समय होत बलवान. ये कहावत तो आपको याद ही होगी. ये वक्त ही है जिसने आज उत्तर प्रदेश के धुर विरोधी पार्टियों को एक साथ चलने को मजबूर किया है. यहां बात हो रही है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की. उत्तर प्रदेश में आगामी 11 मार्च को लोकसभा की दो सीटों गोरखपुर व फूलपुर में होने वाले उपचुनाव में बसपा ने सपा को समर्थन देने का फैसला किया है. राज्य की राजनीति में धुर विरोधी माने जाने वाले सपा-बसपा की एकसाथ कदमताल किसी राजनीतिक चमत्कार से कम नहीं है. राजनीति में ऐसे चमत्कार देखने को मिल जाते हैं.
कश्मीर से कन्याकुमारी तक भगवे के बढ़ते साम्राज्य के बीच मायावती का सपा के साथ आना दूरगामी राजनीति और रणनीति का प्रबल संकेत है. इन सबके बीच यह सवाल अहम हो जाता है कि आखिरकर वो क्या कारण है जिसने बसपा को सपा का समर्थन देने के लिए मजबूर किया. क्यों मायावती ने सपा से अपनी दुश्मनी और प्रतिद्वंदिता भुला दी? क्या पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा की बढ़त ने बसपा को सपा से मनभेद और मतभेद भुलाने को विवश किया है? क्या मायावती 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उपचुनाव में गठबंधन का लिटमस टेस्ट करना चाहती हैं?
इन तमाम सवालों के इतर अहम सवाल यह भी है कि बसपा का हाथी सपा की साइकिल को कितना मजबूती दे पाएगा. ये सवाल इसलिए क्योंकि यूपी विधानसभा चुनाव के करीब ढाई साल बाद सिंतबर 2014 में विधानसभा की 11 व लोकसभा की एक मैनपुरी सीट पर उपचुनाव हुए थे. परंपरानुसार बसपा ने इन चुनावों में हिस्सा नहीं लिया. लेकिन मायावती ने अपने वोटरों को सीटवार निर्दलीय प्रत्याशी को समर्थन की अपीलनुमा फरमान जारी किया था. मायावती की अपील का उनके सर्मथकों पर मामूली असर ही हुआ. बसपा समर्थित प्रत्याशियों को बामुश्किल कुल जमा करीब 50...
समय होत बलवान. ये कहावत तो आपको याद ही होगी. ये वक्त ही है जिसने आज उत्तर प्रदेश के धुर विरोधी पार्टियों को एक साथ चलने को मजबूर किया है. यहां बात हो रही है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की. उत्तर प्रदेश में आगामी 11 मार्च को लोकसभा की दो सीटों गोरखपुर व फूलपुर में होने वाले उपचुनाव में बसपा ने सपा को समर्थन देने का फैसला किया है. राज्य की राजनीति में धुर विरोधी माने जाने वाले सपा-बसपा की एकसाथ कदमताल किसी राजनीतिक चमत्कार से कम नहीं है. राजनीति में ऐसे चमत्कार देखने को मिल जाते हैं.
कश्मीर से कन्याकुमारी तक भगवे के बढ़ते साम्राज्य के बीच मायावती का सपा के साथ आना दूरगामी राजनीति और रणनीति का प्रबल संकेत है. इन सबके बीच यह सवाल अहम हो जाता है कि आखिरकर वो क्या कारण है जिसने बसपा को सपा का समर्थन देने के लिए मजबूर किया. क्यों मायावती ने सपा से अपनी दुश्मनी और प्रतिद्वंदिता भुला दी? क्या पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा की बढ़त ने बसपा को सपा से मनभेद और मतभेद भुलाने को विवश किया है? क्या मायावती 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उपचुनाव में गठबंधन का लिटमस टेस्ट करना चाहती हैं?
इन तमाम सवालों के इतर अहम सवाल यह भी है कि बसपा का हाथी सपा की साइकिल को कितना मजबूती दे पाएगा. ये सवाल इसलिए क्योंकि यूपी विधानसभा चुनाव के करीब ढाई साल बाद सिंतबर 2014 में विधानसभा की 11 व लोकसभा की एक मैनपुरी सीट पर उपचुनाव हुए थे. परंपरानुसार बसपा ने इन चुनावों में हिस्सा नहीं लिया. लेकिन मायावती ने अपने वोटरों को सीटवार निर्दलीय प्रत्याशी को समर्थन की अपीलनुमा फरमान जारी किया था. मायावती की अपील का उनके सर्मथकों पर मामूली असर ही हुआ. बसपा समर्थित प्रत्याशियों को बामुश्किल कुल जमा करीब 50 हजार वोट मिल पाये. उपचुनाव में सपा ने दमदार प्रदर्शन किया था. इसलिये ये सवाल लाजिमी हो जाता है कि क्या बसपा के समर्थक बहनजी की आवाज पर साइकिल की सवारी करेंगे? कहीं इस बार भी वर्ष 2014 के उपचुनाव की कहानी तो नहीं दोहरा दी जाएगी.
यूपी की राजनीति में सपा और बसपा की राजनीतिक दुश्मनी और प्रतिद्वंदिता किसी से छिपी नहीं है. हालांकि, सपा और बसपा अपनी राजनीति की शुरुआत में साथ रह चुके हैं. मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया था. पार्टी बनाने के एक साल बाद चुनाव हुए तो सपा और बसपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था. तब लक्ष्य ‘राम लहर’ को रोकना था. तब एसपी-बीएसपी गठबंधन को 176 सीट मिली थी और बीजेपी को 177 सीट. दोनों ने मिलकर सरकार बनाई थी. मई 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद गठबंधन टूटा तो आज तक दोनों दल साथ नहीं आ पाए हैं. सपा और बसपा के अलगाव के बाद दोनों पार्टियां यूपी की राजनीति के दो ध्रुव बन गईं. दोनों दलों के उभार के बाद भाजपा कुछ समय के लिए जरूर यूपी में मजबूत रही है, लेकिन पिछले दो दशक से बसपा और सपा का ही प्रभाव रहा है.
वर्ष 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के ठीक पहले किसी दल को बहुमत न मिलने पर सपा और बसपा के गठबंधन की भी चर्चा हो रही थी. ज्यादातर एक्जिट पोल सर्वे में कहा गया था कि भाजपा या तो बहुमत ला रही है या फिर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी. इसी बीच मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने संकेत दिया था कि अगर जरूरत पड़ेगी तो वे बहुजन समाज पार्टी के साथ जा सकते हैं. लेकिन नतीजे भाजपा के पक्ष में रहे और ये नौबत ही नहीं आई कि बुआ और बबुआ मंच साझा कर पाएं.
यूपी की जिन दो सीटों पर चुनाव हो रहा है, वो भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए अहम हैं. गोरखपुर सीट से पहले योगी आदित्यनाथ सांसद थे. पिछले साल यूपी का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था. योगी 1998 से लगातार बीजेपी की टिकट पर गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. सपा ने निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय निषाद के बेटे इंजीनियर प्रवीण कुमार निषाद को अपना उम्मीदवार बनाया है. कांग्रेस ने डॉ. सुरहिता करीम और भाजपा ने उपेन्द्र शुक्ल पर दांव लगाया है. निषाद पार्टी, पीस पार्टी, प्रगतिशील मानव समाज पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सपा के साथ मिलकर चुनाव मैदान में हैं. बसपा के समर्थन से इस गठबंधन की ताकत बढ़ना लाजिमी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार योगी आदित्यनाथ को 5 लाख 39 हजार 127 (51.80%) मत मिले थे. सपा व बसपा को कुल 38.7% मत हासिल हुए थे. कांग्रेस को 4.39% मतों से ही संतोष करना पड़ा था. तीनों दलों को प्राप्त वोटों का जोड़ बीजेपी से लगभग 9% कम बैठता है. चूंकि कांग्रेस सपा के साथ नहीं है तो ऐसे में ये अंतर और बड़ा हो जाता है. गोरखपुर सीट गोरक्षपीठ की परंपरागत सीट मानी जाती है. इस सीट पर विजय पाने के लिए पूर्व में भी के विपक्ष सारे हथकंडे फेल साबित हुए हैं.
फूलपुर संसदीय सीट पर 1996 से 2004 के बीच हुए चार लोकसभा चुनावों में यहां से समाजवादी पार्टी का दबदबा कायम रहा. 2004 में कथित तौर पर बाहुबली की छवि वाले अतीक अहमद यहां से सांसद चुने गए. अतीक अहमद के बाद 2009 में पहली बार इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी ने भी जीत हासिल की. जबकि बीएसपी के संस्थापक कांशीराम यहां से खुद चुनाव हार चुके थे. 2014 में मोदी लहर में बीजेपी का कमल यहां खिला. केशव प्रसाद मौर्य ने बीएसपी के मौजूदा सांसद कपिलमुनि करवरिया को पांच लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया. फूलपुर सीट के आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीजेपी के लिए ये सीट क्यों अहमियत रखती है, जहां साल 2009 में बीजेपी का वोट शेयर महज 8% था, वो 2014 में बढ़कर 52% हो गया. वहीं कांग्रेस, बीएसपी, एसपी तीनों को कुल 43% मत हासिल हो पाए.
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो वो विपक्ष के लिए राहत दिखती है. आंकड़ें बताते हैं कि बीएसपी, एसपी और कांग्रेस अगर तीनों एक साथ विधानसभा चुनाव लड़ते तो कहानी कुछ और ही होती. दरअसल, फूलपुर लोकसभा सीट के अंतर्गत पांच विधानसभा क्षेत्र आते हैं. 2017 विधानसभा में अगर एसपी, बीएसपी कांग्रेस के कुल वोटों को जोड़ लें, तो वो बीजेपी से डेढ लाख ज्यादा बैठते हैं. साथ ही अगर ये तीन पार्टियां एक साथ चुनाव लड़ीं होतीं, तो 5 विधानसभा सीटों में से 4 पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ता. फूलपुर में सबसे अधिक पटेल फिर मुस्लिम मतदाता हैं. इस सीट पर यादव मतदाताओं की भी अच्छी खासी संख्या है.
फूलपुर सीट पर सपा-बसपा का गठबंधन नतीजों को प्रभावित कर सकता है. क्योंकि 2014 को छोड़ पिछले दो दशकों से सीट एसपी-बीएसपी के पास ही रही है. हालांकि 2014 में यहां बीजेपी प्रत्याशी को एसपी, बीएसपी और कांग्रेस तीनों पार्टी के प्रत्याशियों के कुल वोट से एक लाख अधिक वोट मिले थे. यही स्थिति गोरखपुर की भी थी. कांग्रेस चूंकि गठबंधन में शामिल नहीं है. ऐसे में सपा गठबंधन का राह उतनी आसान नहीं है, जितनी ऊपरी तौर पर दिखती है. सपा और बीजेपी दोनों दलों ने जातीय समीकरण साधते हुए यहां से पटेल उम्मीदवार उतारे हैं. सपा ने नागेंद्र पटेल और बीजेपी ने कौशलेंद्र पटेल पर दांव खेला है. कांग्रेस ने भी जातीय गणित को देखते हुए ब्राह्मण चेहरे मनीष मिश्रा पर दांव लगाया है.
फूलपुर में जातीय समीकरण काफी दिलचस्प है. इस संसदीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा पटेल मतदाता हैं, जिनकी संख्या करीब सवा दो लाख है. मुस्लिम, यादव और कायस्थ मतदाताओं की संख्या भी इसी के आसपास है. लगभग डेढ़ लाख ब्राह्मण और एक लाख से अधिक अनुसूचित जाति के मतदाता हैं. फूलपुर की सोरांव, फाफामऊ, फूलपुर और शहर पश्चिमी विधानसभा सीट ओबीसी बाहुल्य हैं. इनमें कुर्मी, कुशवाहा और यादव वोटर सबसे अधिक हैं. सपा को यहां पटेल, मुस्लिम, यादव और पासी मतदाताओं पर भरोसा है. बसपा का वोट अगर उसकी झोली में गया तो सपा की बात बन सकती है.
वर्ष 1993 में नारा लगा था ‘मिले मुलायम काशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’. सपा और बसपा ने पिछड़ों और दलितों की एकता कायम करके देश में एक सामाजिक क्रांति को अंजाम दिया था. यह क्रांति वाकई बहुत भूकंपकारी थी. लेकिन यह भी सच्चाई है कि पिछले पांच वर्षो में भाजपा ने भी दलितों और पिछड़े वर्ग में अपनी दखल तेजी से बढ़ाई है. इसी समीकरण ने उसके लिये सत्ता के दरवाजे खोले हैं. यूपी से जुड़े दलित नेता को देश के सर्वोच्च पद पर बिठकार भाजपा ने दलितों का मजबूत संदेश देने का काम किया है. फिलवक्त पूर्वोत्तर के नतीजों से भाजपा पूरे उत्साह में है. वहीं बसपा और सपा नेताओं के दिल और सुर एक हो जाएं लेकिन जमीन पर कार्यकर्ताओं का मिलन टेढ़ी खीर साबित होगा. पिछले पांच साल में बसपा की राजनीतिक ताकत और सीटें दोनों घटी है. बसपा के तमाम बड़े नेता उसका साथ छोड़ चुके हैं. देश के कई राज्यों में हुए चुनाव में बसपा का निराशाजनक प्रदर्शन जारी है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि सपा-बसपा के एक साथ आने पर पिछड़े, दलित और मुसलमानों का बेहतरीन ‘कॉम्बिनेशन’ बनेगा. इन तीनों की आबादी राज्य में करीब 70 फीसदी है. तीनों एक मंच पर आ जाएंगे तो भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है. वहीं अगर समर्थन के बेहतर नतीजे निकले तो राज्यसभा और विधान परिषद सदस्यों के चुनाव में भी सपा-बसपा एक-दूसरे के साथ रहेगी. इतना ही नहीं सब कुछ ठीक रहा तो अगले वर्ष होने वाले लोकसभा के आम चुनाव में भाजपा से मुकाबला करने के लिए दोनों पार्टियां मिलकर चुनाव भी लड़ सकती हैं. बसपा के समर्थन से सपा को कितना फायदा होगा. और सपा-बसपा की दोस्ती कितनी असरकारी होगी, ये तो चुनाव नतीजे ही बताएंगे. फिलवक्त दूध के जले सपा और बसपा नई दोस्ती में फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं. इसलिए बसपा गठबंधन की बजाय समर्थन का नारा उछाल रही है.
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