हिंदी की कहावतों की मारक क्षमता काफ़ी है; क्षमता होनी चाहिए कि कब कैसे और किस बात पर कहनी है! वस्तुतः कहावतों के मूल में कोई कहानी अथवा घटना होती है. बाद में जब लोग उस घटना अथवा कहानी से निकली या सामंजस्य बैठाती बात देखते सुनते हैं तो किसी गुनी जन ने तब जो कहा था, उसे दोहराते हैं कहते हुए कि कहावत एक बार फिर चरितार्थ हो रही है. आज कहावतों को क्वोट करने वाले गुनी भाजपा में ज्यादा हैं और भाजपा के भाग से कांग्रेसी नेता संयोग दर संयोग बैठा ही दे रहे हैं और प्रचलित कहावतें राजनीतिक रिवायतों पर सटीक बैठ रही हैं.
एक अनार सौ बीमार
सभी क्षेत्रीय क्षत्रपों और कांग्रेस पार्टी भी एक साथ मिलकर 2024 में बीजेपी को मात नहीं दे सकती; क्योंकि यहां "एक अनार और सौ बीमार" वाली कहावत ही चरितार्थ होने वाली है.
ढाक के तीन पात
भारत जोड़ो यात्रा के बाद, जैसा राहुल गांधी ने स्वयं भी कहा था कि 'वे' अपने पहले वाले 'को' मार चुके हैं, अब 'उन्होंने' नया अवतार लिया है, लगने लगा था कांग्रेस में एक धीर, गंभीर, सच्चा राजनेता अवतरित हुआ है. परंतु लंदन जाकर वही ढाक के तीन पात वाली बात हुई है. तमाम कांग्रेसी फूट-फूटकर बयान दे रहे हैं और कांग्रेस गुमनामी की राह पर अविरल चली जा रही है.
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!
“मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं होते तो आज देश के प्रधानमंत्री भी नहीं होते” - कहा तो नहीं लेकिन दिल में उनके यही था.
कांग्रेस के बड़े नेता पवन खेड़ा, अब तो सुप्रीम कोर्ट सर्टिफाइड भी है, पिछले साल अफ़सोस...
हिंदी की कहावतों की मारक क्षमता काफ़ी है; क्षमता होनी चाहिए कि कब कैसे और किस बात पर कहनी है! वस्तुतः कहावतों के मूल में कोई कहानी अथवा घटना होती है. बाद में जब लोग उस घटना अथवा कहानी से निकली या सामंजस्य बैठाती बात देखते सुनते हैं तो किसी गुनी जन ने तब जो कहा था, उसे दोहराते हैं कहते हुए कि कहावत एक बार फिर चरितार्थ हो रही है. आज कहावतों को क्वोट करने वाले गुनी भाजपा में ज्यादा हैं और भाजपा के भाग से कांग्रेसी नेता संयोग दर संयोग बैठा ही दे रहे हैं और प्रचलित कहावतें राजनीतिक रिवायतों पर सटीक बैठ रही हैं.
एक अनार सौ बीमार
सभी क्षेत्रीय क्षत्रपों और कांग्रेस पार्टी भी एक साथ मिलकर 2024 में बीजेपी को मात नहीं दे सकती; क्योंकि यहां "एक अनार और सौ बीमार" वाली कहावत ही चरितार्थ होने वाली है.
ढाक के तीन पात
भारत जोड़ो यात्रा के बाद, जैसा राहुल गांधी ने स्वयं भी कहा था कि 'वे' अपने पहले वाले 'को' मार चुके हैं, अब 'उन्होंने' नया अवतार लिया है, लगने लगा था कांग्रेस में एक धीर, गंभीर, सच्चा राजनेता अवतरित हुआ है. परंतु लंदन जाकर वही ढाक के तीन पात वाली बात हुई है. तमाम कांग्रेसी फूट-फूटकर बयान दे रहे हैं और कांग्रेस गुमनामी की राह पर अविरल चली जा रही है.
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!
“मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं होते तो आज देश के प्रधानमंत्री भी नहीं होते” - कहा तो नहीं लेकिन दिल में उनके यही था.
कांग्रेस के बड़े नेता पवन खेड़ा, अब तो सुप्रीम कोर्ट सर्टिफाइड भी है, पिछले साल अफ़सोस जाहिर कर रहे थे कि जब कांग्रेस सत्ता में थी, उस वक़्त अगर हम नरेंद्र मोदी की राजनीति करने का तरीका अपनाते तो वे (नरेंद्र मोदी) गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं होते. खैर! जो हुआ सो हुआ! होनी टलती जो नहीं. सो गाना गुनगुना दें उनके लिए ‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए, हम वफ़ा करके भी तनहा रह गए !’
"हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-खुदा" उर्दू कहावत है. मानो हिम्मत मर्दों की बपौती है. जेंडर इक्वलिटी के नजरिये से देखें तो कहावत एंटी है और साथ ही "बपौती' भी पितृसत्तात्मक शब्द है. दरअसल दुनिया में हर मर्द ग्रीन आइड मॉन्स्टर (Green Eyed Monster) है औरतों के प्रति. और जब ऐसा है तो जेंडर इक्वलिटी की बात ही बेमानी है. ग्रीन आइड मॉन्स्टर को बेहतर समझना हो तो शेक्सपियर के 'ऑथेलो' से राब्ता बैठा लीजिये, समझना आसान होगा.
अब बात निकली ही है तो जिक्र बनता है उच्च सदन के तृणमूल सांसद जवाहर सिरकार का; जाहिर है उच्च सदन में हैं तो नस्ल बेहतर हैं, आईएएस थे और तक़रीबन 42 सालों का प्रशासनिक कार्यों का विलक्षण अनुभव भी है उनके पास. लेकिन मोदी से घृणा इस कदर है कि चले थे मोदी को घेरने खुद ही घिर गए; ऐसी तुकबंदी की कि प्रसिद्ध बंग एक्ट्रेस सुष्मिता सेन (विश हर स्पीडी रिकवरी) का तो अपमान किया ही साथ ही अपनी महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी शर्मसार कर दिया था. कहने का मतलब जहां इंटेलेक्चुअल समझे जाने वाले लोग ही मिसोजिनिस्ट हैं तो किस मुंह से बात की जाए जेंडर इक्वलिटी की. जवाहर के ट्वीट की क्वालिटी जस्ट ए क्वेश्चन ही है - " Question is : Did Sushmita Sen chose a better Modi than many Indians ?"
अब ट्विटर है, बुरे फंस गए वे ! या तो कह दें उनकी वाल हैक कर ली किसी ने! सर्वप्रथम तो उनकी अंग्रेजी कटघरे में खड़ी की गयी और उनसे कहा गया कि एक अन्य महान मिसोजिनिस्ट शशि थरूर साहब से क्लास लें. चूँकि उनका ट्वीट अमर्यादित था तो जवाब भी अमर्यादित ही आये! खैर! जो हुआ सो हुआ! जस्ट पढ़ लीजिए किसी के इस अमर्यादित ट्वीट को और दिमाग से डिलीट कर दीजिये- 'What I feel meanwhile his wife Nandita thinking .......I will choose better Sircar this time .........Modi Sarkar !'
अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना
मोदी बीजेपी की रणनीति का एक बड़ा जोर हमेशा से विपक्ष को बाँटने पर रहा है और इस बार कांग्रेस यह काम खुद ही कर ले रही है; इसे कहते हैं अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना! दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और केसीआर की के कविथा को ईडी द्वारा पूछताछ करना कांग्रेस के लिए विच हंट नहीं हैं जबकि अन्य तमाम विपक्षी पार्टियों के लिए है. RJD, शिवसेना और एनसीपी कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां हैं, जबकि दो अन्य- सीपीआई (एम) और डीएमके- 2024 के आम चुनाव में PM मोदी से लड़ने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी मोर्चे के साथी हैं.
इसके बावजूद, सबों ने सिसोदिया और के कविथा का बचाव करने के लिए कांग्रेस से अलग रास्ता अपनाने का विकल्प चुना है. दूसरी तरफ कांग्रेस आम आदमी पार्टी और उसके सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की सरकार को भ्रष्टाचार के आरोप पर लगातार निशाना बना रही है. एक और महत्वपूर्ण घटना हुई कि शरद पवार की एनसीपी ने एनडीपीपी बीजेपी गठबंधन की नागालैंड सरकार राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक प्रगतिशील पार्टी (NDPP) के नेता के नेतृत्व वाली हाल ही में बनी नागालैंड सरकार को अपना समर्थन दिया है इस कुतर्क के साथ कि नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो NDPP का प्रतिनिधित्व करते हैं न कि बीजेपी का. और तो और, स्वयं राहुल गांधी ने ममता दीदी की तृणमूल की भर्त्सना करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.
बीजेपी की तो बल्ले बल्ले है, कांग्रेस और अन्य गैर-बीजेपी दलों की जब जब खटपट होती है, विपक्षी एकता की अवधारणा ध्वस्त ही होती है. भाजपाइयों का एकमेव मकसद है विपक्ष को एकजुट होने या सीटों के समायोजन के किसी भी फॉर्मूले पर पहुँचने से रोकने का.
अब देखिये इसके लिए बीजेपी को जोर नहीं लगाना पड़ रहा है, सो क्यों ना कहें कि विपक्ष उनके लिए काम कर रहा हैं! पिछले साल गुजरात विधानसभा चुनाव में AAP और कांग्रेस ने बीजेपी को अब तक की सबसे बड़ी जीत दिलाने में भूमिका निभाई और एक-दूसरे को बेअसर कर दिया था. त्रिपुरा में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव के नतीजे के आंकड़े बताते हैं कि अगर वाम-कांग्रेस-टिपरा मोथा गठबंधन एक साथ आती तो बड़ी संभावना थी कि बीजेपी सत्ता से बाहर होती.
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के बिना ही बीजेपी से लड़ने की ठान ली है. यही कहलाता है अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मारना. भूल जो गयी है कांग्रेस कि राजनीति में साझा घृणा मित्रता का आधार है…!! क्या खूब कहा था किसी ने, खूब जम जो रहा है कांग्रेस के लिए- 'जिंदगी ना जाने किस मोड़ पर लायी है, आगे कुंआ तो पीछे खाई है, मंजिल दिखती नहीं और अपने रूत गए ; हे खुदा कहाँ जाऊं हम फिर से टूट गए !" कहावतें अनगिनत हैं और विडंबना ही है कि नित हो रही राजनीतिक हलचलों में सामंजस्य ढूंढ ही लिया जाता है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.