क्या बापू भी आज किसान आंदोलन में शामिल रहते या इसकी अगुवाई करते, यह आज के दिन उठने वाला एक अहम प्रश्न है जिसका जवाब अलग अलग सोच वालों के लिए अलग अलग है. वैसे आज के दिन को भारतीय इतिहास के सबसे काले दिनों में से एक कहा जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. एक अहिंसा के पुजारी की उसी के देश के एक कायर व्यक्ति ने गोली मारकर हत्या कर दी थी, इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है. वैसे तो उस दुर्भाग्यपूर्ण और बर्बर कृत्य को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया ट्रेंड पैदा हुआ है और वह है नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करना. इसे मानसिक दिवालियेपन की श्रेणी में ही रखा जा सकता है लेकिन अगर शासक तंत्र ही इस विचारधारा का समर्थन करता नजर आये तो किसको दोष दिया जा सकता है.
खैर आजकल बात चल रही है किसान आंदोलन की और उसके लगातार शांतिपूर्ण ढंग से चलने के बाद अचानक 26 जनवरी को हुए हिंसक घटनाओं की. अब इसके लिए भी पक्ष और विपक्ष के अलग अलग तर्क हैं और होंगे भी क्यूंकि सत्ता पक्ष इसे किसी भी कीमत पर कमजोर और बदनाम करके ख़त्म करना चाहता था और विपक्ष इसे जारी. लेकिन आंदोलन में लगे किसानों, उनके परिवार के बुजुर्गों और महिलाओं से जिन लोगों ने बात किया, उनके अनुसार वे लोग किसी का भी अहित नहीं करना चाहते थे.
प्रदर्शन कर रहे किसान पूरे शांतिपूर्ण तरीके से और एक तरह से अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए ही अपने आंदोलन को आगे बढ़ा रहे थे और उन कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे थे जिनको सत्ताधारी सरकार जबरदस्ती थोपना चाहती है. अब बात करें 26 जनवरी को हुए हिंसक घटनाओं की तो उसकी निंदा होनी ही चाहिए क्यूंकि हिंसा किसी भी...
क्या बापू भी आज किसान आंदोलन में शामिल रहते या इसकी अगुवाई करते, यह आज के दिन उठने वाला एक अहम प्रश्न है जिसका जवाब अलग अलग सोच वालों के लिए अलग अलग है. वैसे आज के दिन को भारतीय इतिहास के सबसे काले दिनों में से एक कहा जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. एक अहिंसा के पुजारी की उसी के देश के एक कायर व्यक्ति ने गोली मारकर हत्या कर दी थी, इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है. वैसे तो उस दुर्भाग्यपूर्ण और बर्बर कृत्य को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया ट्रेंड पैदा हुआ है और वह है नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करना. इसे मानसिक दिवालियेपन की श्रेणी में ही रखा जा सकता है लेकिन अगर शासक तंत्र ही इस विचारधारा का समर्थन करता नजर आये तो किसको दोष दिया जा सकता है.
खैर आजकल बात चल रही है किसान आंदोलन की और उसके लगातार शांतिपूर्ण ढंग से चलने के बाद अचानक 26 जनवरी को हुए हिंसक घटनाओं की. अब इसके लिए भी पक्ष और विपक्ष के अलग अलग तर्क हैं और होंगे भी क्यूंकि सत्ता पक्ष इसे किसी भी कीमत पर कमजोर और बदनाम करके ख़त्म करना चाहता था और विपक्ष इसे जारी. लेकिन आंदोलन में लगे किसानों, उनके परिवार के बुजुर्गों और महिलाओं से जिन लोगों ने बात किया, उनके अनुसार वे लोग किसी का भी अहित नहीं करना चाहते थे.
प्रदर्शन कर रहे किसान पूरे शांतिपूर्ण तरीके से और एक तरह से अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए ही अपने आंदोलन को आगे बढ़ा रहे थे और उन कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे थे जिनको सत्ताधारी सरकार जबरदस्ती थोपना चाहती है. अब बात करें 26 जनवरी को हुए हिंसक घटनाओं की तो उसकी निंदा होनी ही चाहिए क्यूंकि हिंसा किसी भी तरीके से जायज नहीं है. लेकिन अगर उस हिंसा के लिए एक पक्ष किसानों को जिम्मेदार ठहराना चाहता है तो वहीँ दूसरा पक्ष इसके लिए सरकार को दोषी ठहरा रहा है.
ये भी सच है कि आंदोलन में कुछ अवांछनीय तत्व घुस आये थे और उन्होंने इसे गलत रूप देने की कोशिश की. लेकिन गांधीवादी तरीके की अगर बात करें तो यह जरूर लगता है कि इस आंदोलन को बापू के द्वारा किये गए तमाम आंदोलनों से सीखने की जरुरत है. जो भी लोग ऐसे आंदोलन का नेतृत्व करते हैं उनको इसके सही सञ्चालन के लिए दिन रात एक करना चाहिए और किसी भी चूक की स्थिति में इसकी जिम्मेदारी लेना चाहिए.
अगर उनको लगता है कि लोग अगर इस आंदोलन के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं हैं या पूरी तरह से परिपक्व नहीं हैं तो इसे कुछ दिन के लिए स्थगित करके पुनः चालू करना चाहिए. ऐसा पूर्व में बापू ने भी किया था और लोगों ने उनके तरीके को स्वीकार भी किया था.
बहरहाल, क्या बापू अगर आज जिन्दा होते तो इस आंदोलन का समर्थन करते. मेरी समझ से न सिर्फ वह इसका समर्थन करते बल्कि आगे होकर इसका नेतृत्व भी करते. यह उन्होंने उस क्रूर अंग्रेजी शासन के समय भी किया था और आज भी करते. बापू की पुण्यतिथि पर उनको विनम्र श्रन्धांजलि, देश आपको कभी भुला नहीं पायेगा. आप उस वक़्त भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे.
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