प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देशज पसमांदा मुद्दे की चर्चा करने के बाद से ही मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का प्रश्न सामाजिक और राजनीतिक हल्के में अब पूरी तरह से बहस के केंद्र में आ गया है. लेकिन, अभी भी मुस्लिम समाज को लीड करने वाले अशराफ वर्ग में इसे लेकर उतनी सकारात्मक हलचल नहीं दिख रही है, जैसा की होनी चाहिए. इसलिए यह महत्वपूर्ण सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की प्रक्रिया शुरू होती है और देशज पसमांदा समाज को भी भारत के अन्य वंचित समाज की तरह तरक्की के हर क्षेत्र में जगह मिलती है. तो, क्या यह अशराफ वर्ग को स्वीकार होगा?
ज्ञात रहे कि विदेशी अशराफ वर्ग कुल मुस्लिम जनसंख्या का केवल 10% होने के बावजूद भी शासन प्रशासन से लेकर अन्य क्षेत्रों में लगभग 90% से भी अधिक भाग पर काबिज है. अशराफ मुस्लिमों के इतिहास-भूगोल पर नजर डाली जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके द्वारा देशज पसमांदा के शोषण का पुराना इतिहास रहा है. सल्तनत काल और मुगल काल से ही पसमांदा की अनदेखी और उपेक्षा का सिलसिला शुरू हो गया था. जो स्वतंत्रता संग्राम के समय भी जारी रहा.
इस दौरान शासक वर्गीय अशराफ मुस्लिमों के नेतृत्व में सरगर्म मुस्लिम लीग और उसके द्विराष्ट्र सिद्धान्त का आसिम बिहारी के नेतृत्व में विभिन्न पसमांदा जातियों पर आधारित संगठन पुरजोर विरोध कर रहें थे. यही वो समय था, जब शासक वर्गीय अशराफ मुसलमान और देशज मुस्लिमों का भेद स्पष्ट रूप से खुल कर राष्ट्रीय स्तर पर सामने आ गया था.
जिस कारण ना सिर्फ मुस्लिम लीगी अशराफ अपितु कांग्रेस के अंदर के भी अशराफ नेता लगातार अपने...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देशज पसमांदा मुद्दे की चर्चा करने के बाद से ही मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का प्रश्न सामाजिक और राजनीतिक हल्के में अब पूरी तरह से बहस के केंद्र में आ गया है. लेकिन, अभी भी मुस्लिम समाज को लीड करने वाले अशराफ वर्ग में इसे लेकर उतनी सकारात्मक हलचल नहीं दिख रही है, जैसा की होनी चाहिए. इसलिए यह महत्वपूर्ण सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की प्रक्रिया शुरू होती है और देशज पसमांदा समाज को भी भारत के अन्य वंचित समाज की तरह तरक्की के हर क्षेत्र में जगह मिलती है. तो, क्या यह अशराफ वर्ग को स्वीकार होगा?
ज्ञात रहे कि विदेशी अशराफ वर्ग कुल मुस्लिम जनसंख्या का केवल 10% होने के बावजूद भी शासन प्रशासन से लेकर अन्य क्षेत्रों में लगभग 90% से भी अधिक भाग पर काबिज है. अशराफ मुस्लिमों के इतिहास-भूगोल पर नजर डाली जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके द्वारा देशज पसमांदा के शोषण का पुराना इतिहास रहा है. सल्तनत काल और मुगल काल से ही पसमांदा की अनदेखी और उपेक्षा का सिलसिला शुरू हो गया था. जो स्वतंत्रता संग्राम के समय भी जारी रहा.
इस दौरान शासक वर्गीय अशराफ मुस्लिमों के नेतृत्व में सरगर्म मुस्लिम लीग और उसके द्विराष्ट्र सिद्धान्त का आसिम बिहारी के नेतृत्व में विभिन्न पसमांदा जातियों पर आधारित संगठन पुरजोर विरोध कर रहें थे. यही वो समय था, जब शासक वर्गीय अशराफ मुसलमान और देशज मुस्लिमों का भेद स्पष्ट रूप से खुल कर राष्ट्रीय स्तर पर सामने आ गया था.
जिस कारण ना सिर्फ मुस्लिम लीगी अशराफ अपितु कांग्रेस के अंदर के भी अशराफ नेता लगातार अपने हितों को लेकर सचेत और सक्रिय रहते हुए और अपने हितसाधन के लिए पूरे मुस्लिम समाज को एक इकाई बनाकर पेश करते रहें. और, मुसलमान नाम पर मिलने वाले लगभग सभी प्रकार की रियायतो को स्वयं उपभोग करते रहें.
इस द्वंद और पहले से चली आ रही उपेक्षा और भेदभाव में मौलाना आजाद भी भागीदार बन कर सामने आते हैं. और, उन्होंने संविधान निर्माण के समय अल्पसंख्यक सुरक्षा कमेटी द्वारा ड्राफ्ट कांस्टीट्यूशनल कमेटी में, अन्य अशराफ नेताओं के साथ मिलकर, वंचित मुसलमानो को पहले से मिल रहें आरक्षण के विरोध में वोट करके मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के सवाल से मुंह मोड़ लिया.
यूपी में एक पसमांदा को मंत्री बनाना अशराफों के गले नहीं उतरा
अभी हाल में ही जब उत्तर प्रदेश में नवनियुक्त भाजपा सरकार ने शिया सैय्यद को ही उच्च पद देने की अपनी परंपरा से हटते हुए मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के प्रश्न को दृष्टिगोचर रखते हुए देशज पसमांदा समाज से आने वाले अपने पार्टी के दानिश आजाद को मंत्रालय में जगह प्रदान किया है. तो, इसके साथ ही अशराफ वर्ग की ओर से गंभीर और भारी विरोध देखने को मिला. सोशल मीडिया पर अशराफ वर्ग के नौजवानों और बुजुर्गों, जिसमें खुद को सेकुलर, लिबरल, कट्टर धार्मिक और राष्ट्रवादी कहने वाले लगभग सभी प्रकार के लोग थे, के द्वारा जातिसूचक अपमानजनक शब्द 'जुलाहा' (बुनकर समुदाय से) का प्रयोग कर पूरे पसमांदा समाज के मान सम्मान को ठेस पहुंचाने का प्रयास किया गया.
ज्ञात रहें कि पसमांदा आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता एवं आम पसमांदा नौजवानों द्वारा भाजपा के इस निर्णय का स्वागत करते हुए सोशल मीडिया पर बधाई संदेशों की एक बाढ़ सी आई गई थी. जिसकी प्रतिक्रिया में यह देखने को मिला. खैर, ये तो हुई सोशल मीडिया की बात. जिसे आप चंद लोगों का मानसिक दिवालियापन कह सकते हैं. लेकिन, समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता शहजाद अब्बास द्वारा एक टीवी डिबेट में यह कहना कि शिया मुस्लिमों को भागेदारी न देकर पसमांदा नाम पर एक ऐसे चेहरे को मंत्री बनाना जिसे कोई नहीं जानता. आपने तो इस वक्त जो मंत्रिमंडल का गठन किया है, उसमें मुसलमानों का तो अपमान किया है.
इससे यह अर्थ निकलता है कि सैय्यद मंत्री बने, तो मुसलमानों का सम्मान. और, देशज पसमांदा मंत्री बने, तो मुसलमानों का अपमान है. 'यूपी तक' यूट्यूब चैनल पर सीनियर पत्रकार सैय्यद कासिम बुनकर समाज को मुसलमानों में आर्थिक और शैक्षिक रूप से सबसे मजबूत बिरादरी बताते हैं. और, कमजोर तबका मानने से इनकार कर देते हैं. जबकि, यह पूर्णतः सत्य से परे हैं.
मंडल कमीशन, रंगनाथ मिश्रा कमीशन और सच्चर कमेटी की रिपोर्टों के आधार पर मुस्लिम बुनकर समाज हर रूप से पिछड़ा है. और, इसी कारण केंद्र और राज्य की आरक्षण लिस्ट में अन्य पिछड़े वर्ग में आता है. जबकि, हिंदू समाज के बुनकर अनुसूचित जाति में आते हैं. यही नहीं उर्दू मीडिया भी मंत्री दानिश आजाद से आरएसएस की विचाराधारा से संबंधित आदि मुश्किल/असहज सवाल पूछ रहे थे. शायद ही कभी उर्दू मीडिया ने भाजपा के किसी अशराफ लीडर से ऐसे सवाल किए हों. कम से कम मेरी जानकारी में तो ऐसा नहीं है.
वो अलग बात है एक मझे हुए कैडर की तरह मंत्री दानिश आजाद ने उन सवालों का बखूबी जवाब दिया. जबकि, जनसंघ और भाजपा के संस्थापकों में सैय्यद जाति के लोग रहे हैं. और, भाजपा के संगठन और सरकार में सदैव उच्च पद पर आसीन होते रहे हैं. लेकिन, उनको या उनकी जाति को लेकर कभी किसी ने कोई सवाल खड़ा नहीं किया. बल्कि, अशराफ वर्ग की ओर से सदैव एक खामोश सहमति सी दिखती रही है.
क्या आपने कभी ऐसा देखा है कि किसी पिछड़े दलित हिंदू को राजनीतिक भागेदारी मिलने पर सवर्ण समाज की तरफ से सोशल मीडिया पर इस प्रकार की गाली गलौज की जाती हो या किसी राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता द्वारा एक वंचित को सियासी भागेदारी मिलने पर हिंदू समाज का अपमान बताया जाता हो? जबकि, यही लोग इससे पहले शिया सैय्यद लोगों के मंत्री बनाए जाने पर लगभग खामोश रहा करते थे.
अशराफ वर्ग पसमांदा मुसलमानों को जगह देने के लिए राजी नहीं
उपरोक्त विवरण से इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि विदेशी अशराफ वर्ग आसानी से देशज पसमांदा के लिए जगह छोड़ने को तैयार नहीं दिख रहा है. जो ना तो मुस्लिम समाज के हित में है और ना ही राष्ट्रहित में. इस्लामी शिक्षा के भी अनुसार साधन संपन्न मुसलमान पर ही यह जिम्मेदारी आती है कि वो अपने वंचित मुसलमान भाइयों को ऊपर लाने के लिए काम करे. लेकिन, साधन संपन्न अशराफ मुसलमान इसकी जिम्मेदारी उठाना तो दूर, इसकी आवाज दबाने का पूरा प्रयास करता हुआ दिख रहा है.
इस प्रकार वो अपने मजहब इस्लाम द्वारा निर्धारित कर्तव्य से भी मुंह मोड़ रहा है. ऐसे में संविधान में प्रदत्त सामाजिक न्याय के लिए उसके द्वारा किसी प्रयास की आशा करना थोड़ा मुश्किल प्रतीत होता है. लेकिन, यह भी एक अजीब विडंबना है कि यही विदेशी अशराफ वर्ग हिंदू समाज में सामाजिक न्याय के लिए दिन रात जी-तोड़ मेहनत करता रहता है. ऐसी सूरत में देशज पसमांदा को अशराफ की ओर देखने के बजाय स्वयं पर भरोसा करते हुए संवैधानिक ढांचे के अनुरूप सामाजिक न्याय की मांग को और तेजी के साथ उठाना चाहिए.
अशराफ वर्ग के पास यह आखिरी मौका है कि वो मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना की ओर कदम बढ़ाते हुए अपने द्वारा स्थापित अल्पसंख्यक और मुस्लिम नाम से चलने वाली सभी संस्थाओं और संगठनों में देशज पसमांदा की भागेदारी सुनिश्चित करते हुए घर से इसकी शुरुआत कर अपने मजहबी और न्यायप्रिय होने का प्रमाण दें.
जब कोई नहीं सुनता बात दर्दमंदो की
बात और बढ़ती है मुख्तसर नहीं होती.
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