ये पहला ही मौका रहा जब जिग्नेश मेवाणी की रैली में खाली कुर्सियों की चर्चा हुई. वरना, ऊना की घटना के बाद चाहे अहमदाबाद में दलितों का जमावड़ा रहा हो, या अपने तरीके से आजादी मनाने वाला ऊना मार्च - न कभी मैदान में जगह आई, न सड़क किनारे की इमारतों पर.
रैलियों में भीड़ और खाली कुर्सियां हमेशा नेताओं के विरोधियों के लिए मजे लेकर बात करने के हॉट टॉपिक होते हैं. ऐसा बीजेपी नेताओं की रैलियों को लेकर भी हुआ है - लालू प्रसाद की पटना रैली में भीड़ को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने को लेकर विवाद भी हो चुका है.
रैलियों में भीड़ के हिसाब से देखा जाये तो मायावती के सामने ऐसा कभी कोई संकट नहीं रहा. तब भी नहीं जब मायावती ने बहुमत के साथ चुनाव जीत कर सरकार बनायी - और बाद में भी नहीं जब बीएसपी के हिस्से में लगातार हार दर्ज होती जा रही है. देखा जाये तो मायावती हाल के दिनों में अपनी ही रैलियों की भीड़ को वोट में तब्दील कर पाने में नाकाम रही हैं - जबकि जिग्नेश मेवाणी अभी अभी गुजरात से चुनाव जीत कर निकले हैं. सवाल ये है कि जिग्नेश की दिल्ली रैली में भीड़ को लेकर जो चर्चा हो रही है उसे मायावती किस नजर से देख रही होंगी.
आखिर कैसे हुई रैली?
खबर आई कि दिल्ली पुलिस ने नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल के आदेशों का हवाला देते हुए संसद मार्ग पर होने वाली रैली जिग्नेश मेवाणी की रैली रद्द कर दिया है. इसके साथ ही पुलिस ने जिग्नेश और उनके साथियों को किसी और इलाके में रैली करने की सलाह दी. पुलिस के सख्त रवैये के बावजूद जिग्नेश और उनके साथियों ने रैली वहीं की जहां होनी तय थी.
ऐसा कैसे हो सकता है कि बाहर से आकर कोई दिल्ली में पुलिस के मना करने के बावजूद रैली कर ले. अव्वल तो ऐसी हालत में दिल्ली पुलिस पहले ही सीमाओं पर आने वालों को रोक देती है. लेकिन ये तो रैली भी हुई और पुलिस ने उमर खालिद जैसे...
ये पहला ही मौका रहा जब जिग्नेश मेवाणी की रैली में खाली कुर्सियों की चर्चा हुई. वरना, ऊना की घटना के बाद चाहे अहमदाबाद में दलितों का जमावड़ा रहा हो, या अपने तरीके से आजादी मनाने वाला ऊना मार्च - न कभी मैदान में जगह आई, न सड़क किनारे की इमारतों पर.
रैलियों में भीड़ और खाली कुर्सियां हमेशा नेताओं के विरोधियों के लिए मजे लेकर बात करने के हॉट टॉपिक होते हैं. ऐसा बीजेपी नेताओं की रैलियों को लेकर भी हुआ है - लालू प्रसाद की पटना रैली में भीड़ को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने को लेकर विवाद भी हो चुका है.
रैलियों में भीड़ के हिसाब से देखा जाये तो मायावती के सामने ऐसा कभी कोई संकट नहीं रहा. तब भी नहीं जब मायावती ने बहुमत के साथ चुनाव जीत कर सरकार बनायी - और बाद में भी नहीं जब बीएसपी के हिस्से में लगातार हार दर्ज होती जा रही है. देखा जाये तो मायावती हाल के दिनों में अपनी ही रैलियों की भीड़ को वोट में तब्दील कर पाने में नाकाम रही हैं - जबकि जिग्नेश मेवाणी अभी अभी गुजरात से चुनाव जीत कर निकले हैं. सवाल ये है कि जिग्नेश की दिल्ली रैली में भीड़ को लेकर जो चर्चा हो रही है उसे मायावती किस नजर से देख रही होंगी.
आखिर कैसे हुई रैली?
खबर आई कि दिल्ली पुलिस ने नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल के आदेशों का हवाला देते हुए संसद मार्ग पर होने वाली रैली जिग्नेश मेवाणी की रैली रद्द कर दिया है. इसके साथ ही पुलिस ने जिग्नेश और उनके साथियों को किसी और इलाके में रैली करने की सलाह दी. पुलिस के सख्त रवैये के बावजूद जिग्नेश और उनके साथियों ने रैली वहीं की जहां होनी तय थी.
ऐसा कैसे हो सकता है कि बाहर से आकर कोई दिल्ली में पुलिस के मना करने के बावजूद रैली कर ले. अव्वल तो ऐसी हालत में दिल्ली पुलिस पहले ही सीमाओं पर आने वालों को रोक देती है. लेकिन ये तो रैली भी हुई और पुलिस ने उमर खालिद जैसे छात्रनेताओं के भाषण की रिकॉर्डिंग भी करवायी. हाल ही की बात है खालिद और मेवाणी के खिलाफ भीमा-कोरेगांव में भड़काऊ भाषण देने के लिए केस भी दर्ज हो रखा है.
बताते हैं कि दिल्ली पुलिस के आला अफसर रैली के पक्ष में नहीं थे क्योंकि पुणे के फौरन बाद दिल्ली में वे किसी तरह के बवाल से बचना चाहते थे. पुलिस के सीनियर अफसरों ने रैली को लेकर लगातार नजर भी जमाये रखी.
ऐसा तो हो नहीं सकता कि बगैर पुलिस की अनुमति के जिग्नेश या कोई भी दिल्ली में रैली कर लेता. अगर ऐसी कोई कोशिश भी होती तो निश्चित तौर पर उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाता. मगर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. तो क्या आयोजकों और पुलिस में किसी तरह का समझौता हुआ था? या जिग्नेश की रैली में ज्यादा भीड़ न होने पाये इस बात में भी दिल्ली पुलिस की कोई दिलचस्पी रही?
जैसे भी हो रैली तो हुई, लेकिन अपने मूल स्वरूप से काफी भटकती देखी गयी. ये रैली खास तौर पर युवा दलित नेता और भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर की रिहाई को लेकर आयोजित हुई थी. हकीकत तो ये रही कि रैली में चंद्रशेखर की रिहाई की जगह ज्यादातर गाय, लव-जिहाद और बेरोजगारी जैसे मुद्दे छाये रहे - और उससे भी ज्यादा निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी प्रमुख अमित शाह बने रहे.
गुजरात से होने के मायने!
पिछले साल जनवरी की ही बात है. हैदराबाद के रिसर्च स्कॉलर रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली थी जिसके बाद दलितों के मुद्दे पर पूरे देश में बवाल हुआ. इसी मुद्दे पर संसद में दलित नेता मायावती और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के बीच तीखी नोकझोंक भी हुई. बाद में रोहति की खुदकुशी से कहीं ज्यादा विवाद इसी बात पर होता रहा कि वो दलित थे भी या नहीं.
अभी साल भर नहीं बीता कि गुजरात में भेदभाव के चलते ही एक मेडिकल छात्र के आत्महत्या के प्रयास की खबर है. तमिलनाडु के इस छात्र ने बीते 5 जनवरी को बहुत सारी नींद की गोलियां खाकर खुदकुशी की कोशिश की. वक्त रहते उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया और उसे बचा लिया गया है. तमिलनाडु के किसान परिवार से आने वाले मारी राज ने बीबीसी को बताया, "मैं अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई देश की किसी भी संस्था से कर सकता था लेकिन मैंने गुजरात को चुना. लेकिन अब मैं अपने राज्य वापस जाना चाहता हूं."
लगता तो ऐसा ही है कि रोहित वेमुला के आत्महत्या के साल भर बाद भी हालात वैसे ही हैं. रोहित ने 17 जनवरी, 2016 को हॉस्टल में फांसी लगाकर जान दे दी थी. ऐसा नहीं कि जिग्नेश की रैली में रोहित वेमुला या भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर की रिहाई पर बात नहीं हुई, लेकिन पूरा जोर मोदी पर रहा. मोदी के नाम पर जिग्नेश खुद को पीड़ित साबित करने की कोशिश करते रहे.
पुणे के भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा को लेकर अपने खिलाफ हुए एफआईआर को लेकर जिग्नेश मेवाणी ने दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस कर सफाई दी थी. जिग्नेश ने ऐलान किया था कि दिल्ली की हुंकार रैली के बाद वो एक हाथ में संविधान की कॉपी और दूसरे हाथ में मनुस्मृति लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय जाएंगे और मोदी से पूछेंगे कि वो दोनों में से किसे चुनेंगे?
दिल्ली में रैली के दौरान मेवाणी ने कहा, ''मोदी गुजरात में आते हैं तो मुझे हिरासत में ले लिया जाता है. दिल्ली में मैं रैली करने आता हूं तो अनुमति नहीं मिलती है. देश की 125 करोड़ जनता देख रही है कि लोगों को बोलने नहीं दिया जा रहा है.''
जिग्नेश मेवाणी ने बड़ा ऐलान भी किया - ‘मैं भी गुजराती हूं और अब विधायक भी बन गया हूं. भ्रष्टाचार की सारी फाइलें निकलवा कर ही दम लूंगा.’
दलित नेता और आंदोलन
देश भर में 16.5 फीसदी से ज्यादा दलित वोटर हैं, जो पहले कांग्रेस के साथ रहे. बाद में कांशीराम के प्रयासों से बीएसपी से मिले और मायावती उन्हीं के बूते दलितो की राजनीति करती रही हैं.
दलितों के मुद्दे को लेकर फिलहाल सबसे ज्यादा बवाल तो महाराष्ट्र में चल रहा है, लेकिन यूपी की चुनावी राजनीति में जितना असर दलितो का होता है वैसा कहीं नहीं दिखता. यहां तक कि पंजाब में भी जहां सबसे ज्यादा - करीब 32 फीसदी दलित आबादी है. शायद यही वजह रही कि कांशीराम को यूपी का रुख करना पड़ा और अब तक पंजाब में मायावती जैसा कोई नेता खड़ा नहीं हो पाया.
सवाल ये है कि क्या जिग्नेश मेवाणी राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेता के रूप में उभर सकते हैं? अगर ऐसा होता है तो मायावती की राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा है.
मायावती अपने आगे किसी भी दलित नेता को खड़े नहीं होने देना चाहतीं. दलितों के मुद्दे को भी अपने हिसाब से उठाती हैं. पिछले साल मई में सुल्तानपुर में हिंसा की घटनाओं के बाद मायावती लोगों से मिलने तो गयीं लेकिन वहां उनका राजनीतिक एजेंडा ही सामने आया. सुल्तानपुर में मायावती लोगों को यही समझाती रहीं कि उनके लिए बीएसपी से बढ़ कर कोई नहीं हो सकता - और समझ में ये आया कि अगर दलितों का कोई नेता उनके साथ नहीं है तो उन्हें उसकी जरा भी परवाह नहीं है. मायावती ने किसी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन बोलीं, 'कई छोटी-छोटी इकाइयां हैं जो बाबा साहब अंबेडकर जयंती मनाती हैं. मैं उन्हें सलाह देना चाहती हूं कि वो इस बसपा के बैनर तले करें. अगर ऐसा करोगे तो किसी की हिम्मत नहीं होगी कि वो आप पर हमले का दुस्साहस करे.' मायावती, असल में, भीम आर्मी को ही मैसेज देना चाह रही थीं.
सुल्तानपुर हिंसा के मामले में भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर के खिलाफ मामला दर्ज होने के बाद उन्होंने दिल्ली में रैली में हिस्सा लिया और गायब हो गये. बाद में यूपी पुलिस ने उन्हें हिमाचल प्रदेश से गिरफ्तार कर लिया. जिग्नेश की रैली में चंद्रशेखर की रिहाई की बात थी, इसलिए उनके फोटो के साथ उनके समर्थक भी नजर आये.
मनुवाद और सामंतवाद हमेशा ही मायावती की राजनीतिक के केंद्र में रहे हैं. जिग्नेश मेवाणी भी मनुवाद को ही मुद्दा बना कर आगे बढ़ रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी को संविधान और मनुस्मृति में से किसी एक को चुनने की चुनौती दे रहे हैं.
मायावती और मेवाणी में बहुत सी बातें कॉमन हैं तो फर्क भी काफी हैं. जिग्नेश युवा हैं, सोशल मीडिया का खूब इस्तेमाल करते हैं और किसी से गठजोड़ करने में कोई गुरेज नहीं है. मायावती की थ्योरी बिलकुल इसके उलट है - और काफी हद तक मायावती के लिए बड़ी चुनौतियां हैं.
इस बार तो राष्ट्रपति चुनाव में भी लड़ाई दलित बनाम दलित हो गयी थी - और उसमें भी कांग्रेस का पहला दलित राष्ट्रपति और बीजेपी का पहला दलित राष्ट्रपति जैसी बातों पर बहस होने लगी थी.
मायावती के लिए जिग्नेश मेवाणी बड़ा खतरा जरूर हैं, लेकिन तभी तक जब तक वो खुद के बूते खड़े हैं - डर सिर्फ इसी बात को लेकर है कि कहीं वो कांग्रेस के दलित नेता बन कर न रह जायें?
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