बरसों से इमरान खान पूरी शिद्दत से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाह रहे थे - और इस साल सारी कायनात ने उसे दिला कर ही दम लिया.
पूरी न सही, लेकिन क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इमरान थोड़ी भी शिद्दत से बुलाना नहीं चाह रहे थे? या फिर, सारी कायनात ने मिलकर उल्टी साजिश रच दी और इमरान-मोदी की पहली मुलाकात जश्न-ए-ताजपोशी के दरम्यान होते होते रह गयी? कुछ तो बात है, वरना इमरान खान यू टर्न वाले खिलाड़ी तो नहीं रहे हैं. हां, हर ओवर की बॉल अलग अलग तरीके से डाली जा सकती है, लेकिन एक गुगली तो मन की भी हो सकती है. या इमरान को इस बात की भी इजाजत लेनी पड़ रही है?
ये कौन सी फिजूलखर्जी का जिक्र है
ये तो साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तरह इमरान खान भी अपने शपथग्रहण में सार्क मुल्कों के नेताओं को बुलाकर दुनिया को 'नये पाकिस्तान' की नींव रखने का मैसेज देना चाहते थे. हो सकता है फेहरिस्त में सार्क नेताओं के अलावा भी कुछ नेता हों, लेकिन ये बात तो पाक मीडिया को इमरान के प्रवक्ता ने ही बतायी थी. साथ ही ये भी बता दिया था कि परमिशन की अर्जी भी पहले से ही भेजी जा चुकी है. ये तो नहीं मालूम कि परमिशन वाला खत कहां कहां और कब कब पहुंचा, लेकिन इतना तो माना ही जा सकता है कि कहीं न कहीं कोई लोचा तो है - और वो केमिकल लोचा तो कहीं से भी नहीं माना जा सकता.
शपथग्रहण में सादगी, निहायत ही निजी दोस्तों की मौजूदगी और 'फिजूलखर्ची' का जिक्र इमरान खान के मन की बात तो नहीं लगती. इमरान ने अपने पहले संबोधन में कहा जरूर था कि वो बंगले में नहीं बल्कि लोगों के...
बरसों से इमरान खान पूरी शिद्दत से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाह रहे थे - और इस साल सारी कायनात ने उसे दिला कर ही दम लिया.
पूरी न सही, लेकिन क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इमरान थोड़ी भी शिद्दत से बुलाना नहीं चाह रहे थे? या फिर, सारी कायनात ने मिलकर उल्टी साजिश रच दी और इमरान-मोदी की पहली मुलाकात जश्न-ए-ताजपोशी के दरम्यान होते होते रह गयी? कुछ तो बात है, वरना इमरान खान यू टर्न वाले खिलाड़ी तो नहीं रहे हैं. हां, हर ओवर की बॉल अलग अलग तरीके से डाली जा सकती है, लेकिन एक गुगली तो मन की भी हो सकती है. या इमरान को इस बात की भी इजाजत लेनी पड़ रही है?
ये कौन सी फिजूलखर्जी का जिक्र है
ये तो साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तरह इमरान खान भी अपने शपथग्रहण में सार्क मुल्कों के नेताओं को बुलाकर दुनिया को 'नये पाकिस्तान' की नींव रखने का मैसेज देना चाहते थे. हो सकता है फेहरिस्त में सार्क नेताओं के अलावा भी कुछ नेता हों, लेकिन ये बात तो पाक मीडिया को इमरान के प्रवक्ता ने ही बतायी थी. साथ ही ये भी बता दिया था कि परमिशन की अर्जी भी पहले से ही भेजी जा चुकी है. ये तो नहीं मालूम कि परमिशन वाला खत कहां कहां और कब कब पहुंचा, लेकिन इतना तो माना ही जा सकता है कि कहीं न कहीं कोई लोचा तो है - और वो केमिकल लोचा तो कहीं से भी नहीं माना जा सकता.
शपथग्रहण में सादगी, निहायत ही निजी दोस्तों की मौजूदगी और 'फिजूलखर्ची' का जिक्र इमरान खान के मन की बात तो नहीं लगती. इमरान ने अपने पहले संबोधन में कहा जरूर था कि वो बंगले में नहीं बल्कि लोगों के बीच रहना पसंद करेंगे. नया पाकिस्तान बनाने के लिए इमरान को भ्रष्टाचार मिटाने की मशीन भी चीन से ही इम्पोर्ट करनी है.
पाकिस्तानी फौज, फौज समर्थित ज्यूडिशियरी और कट्टरपंथियों के कॉकटेल में हुई इमरान खान की हालिया सियासी परवरिश के चलते इमरान खान से बहुतों को बहुत उम्मीद नहीं है. जहां तक पाकिस्तान के अर्थव्यवस्था की बात है तो इमरान खान के सामने उसे पटरी पर लाना बहुत बड़ा चैलेंज है. हाल की ही खबर है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर को तैयार कर रहे ठेकेदारों को दिये गये चेक फंड की कमी के चलते बाउंस होने वाले हैं - और कर्ज चुकाने के लिए पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से आर्थिक मदद की दरकार है. फिर सुनने को मिला कि अमेरिका इसमें टांग अड़ाने लगा है.
वेस्टन कल्चर और बिंदास लाइफस्टाइल के शौकीन इमरान खान आलिशान जिंदगी जीने के आदी रहे हैं - फिर अचानक से जिंदगी के सबसे बड़े जश्न के मौके पर 'फिजूलखर्ची' की बातें बड़ी अजीब लग रही हैं. कहां इमरान खान की ताजपोशी के शानदार जश्न की चर्चा रही - और कहां फिजूलखर्ची के नाम पर ये सादे समारोह में तब्दील हो गया. बगैर अदृश्य शक्तियों के हाथ के ऐसा मुमकिन है क्या?
इमरान को मोदी का साथ अब भी पसंद है क्या?
सीनियर पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने अपने कॉलम में इमरान खान के उस भारत दौरे का जिक्र किया है जब वो आज तक के मीडिया कॉन्क्लेव में हिस्सा लेने आये थे. उसी दौरान इमरान की प्रधानमंत्री मोदी से भी मुलाकात हुई. उस मुलाकात के बाद इमरान ने बड़े ही जोश के साथ कहा था - "इतने सकारात्मक व्यक्ति हैं, ये वाकई बहुत अच्छी मुलाकात रही."
ये वाकया याद दिलाने के बाद राजदीप सरदेसाई पूछते हैं - 'क्या निकट भविष्य में कोई मोदी-इमरान शिखर बैठक होगी? अगर होती है तो क्या ऐसा होगा कि फोटो में मोदी की जगह कोई और छाया होगा?' सवाल बहुत वाजिब है, मगर जवाब तो वक्त ही देगा. संभव है खुद इमरान के सामने भी ये सवाल आये तो उनका भी फौरी जवाब यही हो - क्योंकि पॉलिटिकली करेक्ट जवाब के लिए तो पूछना ही होगा!
इमरान खान और मोदी की जिस मुलाकात का जिक्र है वो वाकया 2015 का है यानी प्रधानमंत्री बनने के साल भर बाद का. तीन साल में काफी कुछ बदल चुका है. बदला न भी हो तो बदला हुआ तो लगता ही है. इसे समझने के लिए इमरान के चुनावी भाषण सुना जा सकता है. फिर ये समझना मुश्किल होगा कि इमरान खान की कौन सी बात पर यकीन किया जाये?
इमरान खान पाकिस्तानी फौज की पसंद यूं ही नहीं बने. ये तब जाकर संभव हो पाया जब एक दूसरे को दोनों पूरक के तौर पर समझ पाये. वक्त की मांग थी. आखिर में चलती तो फौज की ही थी, लेकिन पुराने नेताओं से डील करना मुश्किल हो रहा था. जब आसिफ अली जरदारी राष्ट्रपति थे तो ISI को आंतरिक मंत्रालय को रिपोर्ट करने का हुक्म दे दिया था. मगर, फरमान जारी होने के 24 घंटे के भीतर ही कागज फाड़ कर फेकना पड़ा. नवाज शरीफ का फौज से दोबारा छत्तीस का आंकड़ा बनने की वजह रहा भारत-पाक रिश्ता. शरीफ का मोदी से मेलजोल पाक फौज को जरा भी नहीं सुहा रहा था. फिर ऐसा तानाबाना बुना गया कि शरीफ की शराफत का चोला ही उतर जाये. इस्लामाबाद हाई कोर्ट के जज शौकत अजीज का खुलासा तो तस्दीक ही कर रहा है. जज का ISI की मंशा कुछ इस रूप में बतायी थी, "हम नहीं चाहते कि नवाज शरीफ और उनकी बेटी चुनाव होने तक जेल से बाहर आएं." जाहिर है इमरान ISI की आंखों के तारे यूं ही नहीं बने हैं.
पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के बाद इमरान खान ने कहा था, "मैं नवाज शरीफ को बताऊंगा कि मोदी को कैसे जवाब देना है." एक पाकिस्तानी होने के नाते इमरान खान का ये कहना कहीं से भी गलत नहीं था. इमरान की इस बात की जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन को लेकर दिये बयान से तुलना भी नहीं की जानी चाहिये.
आपत्तिजनक अगर कुछ है तो इमरान की चुनावी रैलियों में लगाये जाने वाले नारे - 'मोदी का जो यार है, गद्दार है'.
खुद इमरान खान भी कहते रहे, "भारत और मोदी को नवाज प्यारे हैं लेकिन वे हमारी सेना से नफरत करते हैं... अब उन्हें इस बात की चिंता है कि अगर इमरान सत्ता में आया तो पाकिस्तान के लिए काम करेगा."
कुछ भी नया तभी होता है जब हर किरदार की मंजिल एक होती है. मंजिल एक होने का मतलब मकसद भी एक हो कतई जरूरी नहीं. 'नया पाकिस्तान' का नारा वैसे ही कारगर रहा जैसे भारत में 2014 का 'अच्छे दिन...' वाला सुपर हिट स्लोगन. संभव है पाकिस्तानी नौजवानों के लिए 'नया पाकिस्तान' कोई सपनों का मुल्क हो. हाफिज सईद के बेटे-दामाद की हार इस बात का सबूत है कि आम पाकिस्तानी दहशदगर्दी को सिरे से खारिज कर रहा है. फौज और उसके कारगर कारिंदे ISI को भी नया पाकिस्तान चाहिये था जिसमें कोई पुराना राजनेता न हो. इमरान का अब तक किसी सरकारी पोस्ट पर न होना उनके सेलेक्शन में बड़ा फैक्टर जरूर रहा. अब ऐसे ही मिले जुले मंसूबों की पंचमेल की खिचड़ी ही इमरान का नाम है 'नया पाकिस्तान' - देखते रहिये इमरान अपनी खिचड़ी पकाने में कामयाब हो पाते हैं या सारी कवायदों के बावजूद नयी खिचड़ी भी अधपकी ही रह जाती है!
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