भाजपा में शामिल हुए हार्दिक पटेल तो अभी पहला पेपर ही देने जा रहे हैं. हां, चुनावी राजनीति में पर्चा भरने का लाइसेंस जरूर मिल गया है. बीजेपी ने हार्दिक पटेल को गुजरात की विरमगाम सीट से उम्मीदवार घोषित किया है - और अब चुनाव जीत कर खुद साबित करना है. साबित करने की भी ये पहली सीढ़ी है और ये काफी मुश्किल भी है.
कांग्रेस में तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने पूरा ही मौका दिया था. फिर भी परिस्थितियां ऐसी बनीं की हार्दिक पटेल धीरे धीरे ये भी महसूस करने लगे जैसे 'दूल्हे की नसबंदी' कर दी गयी हो - और फिर वो दिन भी आ ही गया जब हार्दिक पटेल को उसी बीजेपी का भगवा धारण करना पड़ा जिसकी सरकार के खिलाफ गुजरात में जोरदार पाटीदार अनामत आंदोलन चलाया था.
असल में बीजेपी को राहुल गांधी की परख पर भरोसा नहीं होता, तभी तो हार्दिक पटेल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की टीम की जांच-पड़ताल से गुजरना पड़ रहा है - विधानसभा चुनाव तो अभी मंजिल की पहली सीढ़ी ही है.
हार्दिक पटेल (Hardik Patel) को लगता होगा कि राजनीतिक जीवन के सारे ही अनुभव वो हासिल कर चुके हैं. कांग्रेस में तो वो इसे अच्छी तरह महसूस भी कर चुके हैं, लेकिन बीजेपी तो पार्टी विद डिफरेंस है. बाकी मामलों में न सही, लेकिन ये तो ऐसा मसला है कि बिना जांचे परखे किसी को मौका दिया ही नहीं जाता - हार्दिक पटेल भला किस खेत की मूली हैं? पहले की बात और थी, अभी तो बीजेपी बड़े से बड़े नेताओं को भी ऐसे ही लेती है.
मुमकिन है बीजेपी को मुकुल रॉय और एसएम कृष्णा से मिले अनुभव के बाद ऐसे अंगूर ज्यादा ही खट्टे लगने लगे हों. कर्नाटक में कृष्णा को कांग्रेस से बीएस येदियुरप्पा बीजेपी में इसलिए लाये थे कि वोक्कालिगा वोटर बीजेपी के साथ पूरी तरह जुड़ जाएंगे. लिंगायतों के नेता तो वो खुद रहे ही, लेकिन काम नहीं बन...
भाजपा में शामिल हुए हार्दिक पटेल तो अभी पहला पेपर ही देने जा रहे हैं. हां, चुनावी राजनीति में पर्चा भरने का लाइसेंस जरूर मिल गया है. बीजेपी ने हार्दिक पटेल को गुजरात की विरमगाम सीट से उम्मीदवार घोषित किया है - और अब चुनाव जीत कर खुद साबित करना है. साबित करने की भी ये पहली सीढ़ी है और ये काफी मुश्किल भी है.
कांग्रेस में तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने पूरा ही मौका दिया था. फिर भी परिस्थितियां ऐसी बनीं की हार्दिक पटेल धीरे धीरे ये भी महसूस करने लगे जैसे 'दूल्हे की नसबंदी' कर दी गयी हो - और फिर वो दिन भी आ ही गया जब हार्दिक पटेल को उसी बीजेपी का भगवा धारण करना पड़ा जिसकी सरकार के खिलाफ गुजरात में जोरदार पाटीदार अनामत आंदोलन चलाया था.
असल में बीजेपी को राहुल गांधी की परख पर भरोसा नहीं होता, तभी तो हार्दिक पटेल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की टीम की जांच-पड़ताल से गुजरना पड़ रहा है - विधानसभा चुनाव तो अभी मंजिल की पहली सीढ़ी ही है.
हार्दिक पटेल (Hardik Patel) को लगता होगा कि राजनीतिक जीवन के सारे ही अनुभव वो हासिल कर चुके हैं. कांग्रेस में तो वो इसे अच्छी तरह महसूस भी कर चुके हैं, लेकिन बीजेपी तो पार्टी विद डिफरेंस है. बाकी मामलों में न सही, लेकिन ये तो ऐसा मसला है कि बिना जांचे परखे किसी को मौका दिया ही नहीं जाता - हार्दिक पटेल भला किस खेत की मूली हैं? पहले की बात और थी, अभी तो बीजेपी बड़े से बड़े नेताओं को भी ऐसे ही लेती है.
मुमकिन है बीजेपी को मुकुल रॉय और एसएम कृष्णा से मिले अनुभव के बाद ऐसे अंगूर ज्यादा ही खट्टे लगने लगे हों. कर्नाटक में कृष्णा को कांग्रेस से बीएस येदियुरप्पा बीजेपी में इसलिए लाये थे कि वोक्कालिगा वोटर बीजेपी के साथ पूरी तरह जुड़ जाएंगे. लिंगायतों के नेता तो वो खुद रहे ही, लेकिन काम नहीं बन सका.
मुकुल रॉय को बड़ी बड़ी उम्मीदों के साथ बीजेपी ने हाथों हाथ लिया था. ये ठीक है कि मुकुल रॉय की अपनी मजबूरियां रहीं, लेकिन तब तो बीजेपी नेताओं को ऐसा लग रहा था जैसे वो ममता बनर्जी की पार्टी में तोड़फोड़ करके ऐसा बना देंगे जैसी अभी शिवसेना की स्थिति हो गयी है. ये भी ठीक है कि शुभेंदु अधिकारी को बीजेपी में लाये जाने में मुकुल रॉय की भी भूमिका रही, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. मुकुल रॉय भी इम्तिहान देते देते थक गये थे, लिहाजा तृणमूल कांग्रेस में लौट जाना ही बेहतर समझा.
कभी हीरो रहे, लगभग जीरो बन गये
जिस तरह के इम्तिहान से हार्दिक पटेल को फिलहाल गुजरना पड़ रहा है, वो राहुल गांधी की जांच-परख पर सवालिया निशान ही समझा जाएगा - जबकि हार्दिक पटेल सहित कुछ और युवा नेताओं की तरफ से बीजेपी के खिलाफ भड़काई गयी आग में ही राजनीतिक रोटी सेंक कर राहुल गांधी ऐसा महसूस करने लगे थे कि चुनाव नतीजे आने से पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी भी करा लिये.
पांच साल पहले तो हार्दिक पटले की उम्र भी नहीं थी कि वो विधानसभा का चुनाव लड़ सकें. तब तो वो अपने साथियों और समर्थकों को ही विधानसभा भेजने की तैयारी में लगे हुए थे. एक वो भी दौर रहा जब हार्दिक पटेल गुजरात में एक ताकत के तौर पर उभरे थे और उसी के बूते राहुल गांधी से विधानसभा सीटों के लिए तोलमोल करते रहे, लेकिन सहमति नहीं बन पायी - और एक दिन ये हाल हो गया कि हार्दिक पटेल को कांग्रेस ज्वाइन करनी पड़ी.
कांग्रेस में तो हार्दिक पटेल को राज्य स्तर पर बड़े लेवल की जिम्मेदारी भी मिली थी, लेकिन जल्दी ही वो कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के शिकार हो गये और धीरे धीरे हाशिये पर पहुंचा दिये गये. ऐसा जोखिम तो बीजेपी में शामिल होने के बाद भी बना हुआ है. अब तो हार्दिक पटेल को नये सिरे से साबित करना है कि वो वास्तव में बीजेपी के लायक हैं. ये भी बीजेपी की अपनी तहजीब और कायदा है, रहे होंगे कार्यकारी अध्यक्ष कांग्रेस के लेकिन उससे फर्क क्या पड़ता है.
ये तो बीजेपी की रवायत है कि मेहमान को मेजबान बनते देर नहीं लगती और ऐन उसी वक्त संघर्ष हो जाता है. बिलकुल गीता के ज्ञान वाले अंदाज में पहले कर्म करना होता है, बगैर फल प्राप्ति की इच्छा के हार्दिक पटेल को भी कुछ खास रस्में निभानी ही होंगी. और ऐसा सिर्फ एक दो बार कर देने से नहीं काम चलने वाला. बार बार और लगातार साबित करना होगा कि वो काम के हैं - और ये बात ऐसी भी नहीं जो पहली बार हार्दिक पटेल पर लागू होने जा रही हो.
अगर उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद अपवाद लगते हैं तो वो विशेष परिस्थितियों की वजह से है. ऐसा भी नहीं कि बीजेपी यूपी में गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर को लेकर ब्राह्मण वर्ग से सशंकित थी, बल्कि ज्यादा फिक्र मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरवाद के गंभीर इल्जाम को काउंटर करने की चुनौती थी - और जितिन प्रसाद को उसका पूरा ही फायदा मिला. विधायक बनने से पहले ही जितिन प्रसाद को मंत्री बना दिया गया था. हार्दिक पटेल की किस्मत वैसी तो नहीं ही है.
ठीक उसी दौर में कांग्रेस छोड़ कर पहुंचे आरपीएन सिंह का संघर्ष अभी चालू ही है और हार्दिक पटेल की निगाह में ये भी तो होगा ही. जो काम वो कांग्रेस के लिए झारखंड में करते थे, अब बीजेपी ने ठेका दे दिया है. यूपी चुनाव के दौरान तो बड़े बड़े कयास लगाये जा रहे थे, लेकिन अब तो ये लग रहा है कि जब तक आरपीएन सिंह झारखंड में कमल नहीं खिला देते, कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला है. भले ही कमल खिलाने के लिए आरपीएन सिंह को ऑपरेशन लोटस की मदद ही क्यों न लेनी पड़े. वैसे केंद्रीय एजेंसियां तो मदद में जुट ही गयी हैं, लेकिन अंजाम तक पहुंचाने के लिए टास्क तो आरपीएन सिंह को ही पूरे करने होंगे.
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो बस एक अंगड़ाई ली थी और तत्काल प्रभाव से कांग्रेस की सरकार गिरा कर बीजेपी की सरकार मध्य प्रदेश में बनवा दी थी. बेशक बारगेन करके वो अपने साथियों को मंत्री बनवा दिये, लेकिन उनको चुनाव जिताने की भी जिम्मेदारी लेनी पड़ी थी - ताकि वो कांग्रेस के पूर्व विधायक की पहचान मिटा कर बीजेपी के विधायक के तौर पर जाने जायें. हार्दिक पटेल को भी जहां तक संभव हो सके ये काम तो करने ही होंगे, सिर्फ कांग्रेस और अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बयानबाजी भर से काम नहीं चलने वाला है.
लब्बोलुआब ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पहले सरकार बनवाई तभी जाकर उनको बीजेपी की सरकार में शामिल किया गया. टोकन के तौर पर गुना की हार पर मरहम लगाते हुए उनको तात्कालिक तौर पर राज्य सभा जरूर भेज दिया गया था, ताकि दिग्विजय सिंह से सदन में आमना सामना हो और वो महाराज कह कर संबोधित कर सकें.
और ये काम सचिन पायलट नहीं कर पाये. हो सकता है वास्तव में वो खुद करना भी नहीं चाहते हों, कम से कम बेनिफिट ऑफ डाउट दिया जाना उनका हक तो है ही - लेकिन सच तो यही है कि अभी तक राहुल गांधी को वो धैर्य की परीक्षा दे रहे हैं - और कहीं कोई उम्मीद की हल्की सी किरण भी नहीं दिखायी पड़ रही है. लेटेस्ट आशंका तो ये है कि लग रहा है जैसे अशोक गहलोत ने वसुंधरा राजे ही नहीं, बीजेपी नेतृत्व को भी सेट कर लिया हो. गौतम अदानी के जरिये राहुल गांधी को तो पहले ही अपना जादू दिखा चुके हैं. आगे आगे देखिये होता है क्या?
बीजेपी ने हार्दिक पटेल के सामने साबित करने की शर्त तो रख ही दी है, शर्त ये भी है कि जीरो से ही शुरुआत करनी होगी - एक हीरो का जीरो बन जाना आखिर इसे नहीं तो किसे कहेंगे?
हार्दिक का 'पटेल' होना
हार्दिक पटेल का पाटीदार समुदाय से होना ही गुजरात की राजनीति में प्लस प्वाइंट है. अब तक की राजनीतिक दखल का आधार भी वही रहा है - संघर्ष की कठिन राह के बावजूद वही चीज हार्दिक पटेल के बीजेपी की राजनीति में उज्ज्वल भविष्य के संकेत दे रही है.
गुजरात की राजनीति में पाटीदार समुदाय के हस्तक्षेप को समझने के तमाम तरीके हैं. आंकड़े भी ऐसी दलीलों को सपोर्ट करते हैं. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद तमाम दावेदारों को पछाड़ कर आनंदी बेन पटेल का मुख्यमंत्री बन जाना - और हार्दिक पटेल के पाटीदार आंदोलन के चलते कुर्सी चले जाना, आखिर इससे बड़ा सबूत क्या होगा.
नितिन पटेल तो आनंदी बेन को मुख्यमंत्री बनाये जाते वक्त भी मजबूत दावेदार थे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भरोसा और उनकी करीबी होने से आनंदी बेन के राजनीतिक कद के आगे बाकियों की तरह नितिन पटेल भी हल्के पड़ गये. कुछ तो किस्मत भी होती ही है, आनंदी बेन ने कुर्सी छोड़ी तो चाहती थीं कि नितिन पटेल ही उनकी जगह लें, लेकिन विजय रूपानी को लेकर अमित शाह अड़ गये और वो नितिन पटेल को डिप्टी सीएम से संतोष करना पड़ा. अब तो नितिन पटेल विधानसभा का चुनाव भी नहीं लड़ रहे हैं.
ये सही है कि 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले आनंदी बेन पटेल को हटाकर विजय रूपानी को कमान सौंपी गयी, लेकिन ये तो अमित शाह ने भी महसूस किया ही कि बीजेपी की कितनी फजीहत हुई. महसूस तो प्रधानमंत्री मोदी भी किये ही होंगे - लेकिन आनंदी बेन पटेल तो मन ही मन खुश ही हुई होंगी.
वो मौका भी आ ही गया जब विजय रूपानी के साथ भी आनंदी बेन जैसा ही सलूक हुआ और उनकी जगह आनंदी बेन की ही सिफारिश पर घाटलोडिया इलाके में उनके उत्तराधिकारी भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया गया. समय का चक्र ऐसे ही पूरा होता है. तभी तो दुनिया के गोल होने की उपमा दी जाती है.
बेशक भूपेंद्र पटेल कमान संभाल रहे हों और अभी उनकी जगह लेने के लिए मनसुख मंडाविया इंतजार में बैठे हुए हों, लेकिन नितिन पटेल के मैदान से हट जाने से हार्दिक पटेल को तो राहत ही मिली होगी - फिर भी अहमदाबाद में होते हुए भी उनके लिए मंजिल दिल्ली जैसी ही दूर है.
जो हार्दिक पटेल गुजरात की सरकार हिला कर रख दिये थे, बीजेपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी ले डाली थी अब उसी बीजेपी नेतृत्व ने उनके सामने चैलेंज पेश कर दिया है - पहले विधायक तो बन जाओ फिर देखेंगे.
समझाया तो ऐसे जा रहा है जैसे हार्दिक पटेल को बड़े नेताओं पर तरजीह देते हुए विधानसभा का टिकट दिया गया है, लेकिन जो नेता अपनी टीम के संभावित विधायकों का नेता रहा हो, उसके लिए ये कोई उपलब्धि तो नहीं ही है. अव्वल तो हार्दिक पटेल को सजा हो जाने की वजह से चुनाव लड़ना ही दूभर हो गया था, ये तो अदालत की मेहरबानी से राहत मिली और वो चुनावी राजनीति में उतरने जा रहे हैं.
मुश्किल ये है कि हार्दिक पटेल को विरमागाम सीट पर कांग्रेस के उसी विधायक से जूझना है जिसके कभी वो नेता हुआ करते थे - और ये कोई मामूली चुनौती नहीं है. गुजरात में बीजेपी की सरकार होने के बावजूद दस साल से विरमगाम की सीट पर कांग्रेस काबिज है. नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद विरमगाम पर बीजेपी का कब्जा हो गया था, लेकिन उनके शासन के दौरान ही 2012 में कांग्रेस ने वो सीट जीत ली औप 2017 में को बीजेपी के लिए वैसे ही मुश्किल रही.
2017 में बीजेपी ने डॉक्टर तेजश्रीबेन दिलीपकुमार पटेल को मैदान में उतारा था, लेकिन कांग्रेस के भरवाड लाखाभाई भीखाभाई के हाथों हार का सामना करना पड़ा - अब हार्दिक पटेल पर ये जिम्मेदारी आ गयी है कि वो विरमगाम सीट कांग्रेस से छीन कर बीजेपी की झोली में डाल दें.
नितिन पटेल के पीछे हट जाने के बाद हार्दिक पटेल के पास मौका तो है ही. खुला मैदान है. जैसे खुला आसमान होता है, लेकिन साबित तो करना ही होगा. फिर चाहें तो वो ज्योतिरादित्य सिंधिया बन सकते हैं या फिर हिमंत बिस्वा सरमा जैसा मौका भी मिल सकता है.
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