यूपी की सियासत के चर्चित चाचा शिवपाल यादव और उनके भतीजे अखिलेश यादव का मिलन आख़िरकार हो ही गया. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चुनावी चुनौतियों की जटिलताओं से निपटने की कोशिश में रिश्तों की गांठो़ को सुलझा दिया. ज़िद और अहम की बर्फ पिघल गई. पांच साल से अधिक पुरानी गांठों की गुत्थी सुलझी और भतीजे अखिलेश की समाजवादी पार्टी और चाचा अखिलेश की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (प्रसपा) का गठबंधन हो गया. सपा गठबंधन में एक और छोटे दल का शामिल होना बड़ी खबर नहीं पर बड़ी बात ये है कि इस गठबंधन ने लाख जद्दोजेहद के बाद यादव परिवार के बीच रिश्तो़ की गांठों को सुलझा लिया. अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव के घर पंहुचकर अकेले में अपने चाचा और प्रसपा अध्यक्ष शिवपाल यादव से घंटों बंद कमरे में बातचीत की. और बाहर निकलकर दोनों की तस्वीर जारी की गई. ये तस्वीर काफी मीनिंगफुल है.
इस तस्वीर में अखिलेश से एक स्टेप ऊपर शिवपाल नजर आ रहे हैं. इसके तमाम अर्थ निकाले जा रहे हैं. शिवपाल यादव के एक प्रशंसक का कहना हैं कि समाजवाद से वफादारी के इम्तिहान में पास होकर शिवपाल अब अखिलेश यादव से एक कदम ऊपर हो गए हैं. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का भाजपा से मुकाबला बेहद कठिन है. यदि कोई शिवपाल यादव को जीरो भी मान रहा था तब भी हर स्थिति में शिवपाल की बड़ी सियासी एहमियत रही.
यदि अखिलेश नहीं पिघलते तो शिवपाल की जीरो शक्ति कुछ भी कर सकती थी. ये शून्य समाजवादियों की ताकत भी बन सकता है और आफत भी बन सकता था. शिवपाल यादव की प्रसपा भले ही आगामी विधानसभा चुनाव में अकेले पांच सीटें भी जीतने की कूबत नहीं रखती हो पर शिवपाल समाजवाद का वो एक जीरो रहे जो अखिलेश के समाजवाद की दो सौ की ताकत का एक जीरो कम करके उसे बीस बना सकते थे.
सौ की...
यूपी की सियासत के चर्चित चाचा शिवपाल यादव और उनके भतीजे अखिलेश यादव का मिलन आख़िरकार हो ही गया. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चुनावी चुनौतियों की जटिलताओं से निपटने की कोशिश में रिश्तों की गांठो़ को सुलझा दिया. ज़िद और अहम की बर्फ पिघल गई. पांच साल से अधिक पुरानी गांठों की गुत्थी सुलझी और भतीजे अखिलेश की समाजवादी पार्टी और चाचा अखिलेश की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (प्रसपा) का गठबंधन हो गया. सपा गठबंधन में एक और छोटे दल का शामिल होना बड़ी खबर नहीं पर बड़ी बात ये है कि इस गठबंधन ने लाख जद्दोजेहद के बाद यादव परिवार के बीच रिश्तो़ की गांठों को सुलझा लिया. अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव के घर पंहुचकर अकेले में अपने चाचा और प्रसपा अध्यक्ष शिवपाल यादव से घंटों बंद कमरे में बातचीत की. और बाहर निकलकर दोनों की तस्वीर जारी की गई. ये तस्वीर काफी मीनिंगफुल है.
इस तस्वीर में अखिलेश से एक स्टेप ऊपर शिवपाल नजर आ रहे हैं. इसके तमाम अर्थ निकाले जा रहे हैं. शिवपाल यादव के एक प्रशंसक का कहना हैं कि समाजवाद से वफादारी के इम्तिहान में पास होकर शिवपाल अब अखिलेश यादव से एक कदम ऊपर हो गए हैं. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का भाजपा से मुकाबला बेहद कठिन है. यदि कोई शिवपाल यादव को जीरो भी मान रहा था तब भी हर स्थिति में शिवपाल की बड़ी सियासी एहमियत रही.
यदि अखिलेश नहीं पिघलते तो शिवपाल की जीरो शक्ति कुछ भी कर सकती थी. ये शून्य समाजवादियों की ताकत भी बन सकता है और आफत भी बन सकता था. शिवपाल यादव की प्रसपा भले ही आगामी विधानसभा चुनाव में अकेले पांच सीटें भी जीतने की कूबत नहीं रखती हो पर शिवपाल समाजवाद का वो एक जीरो रहे जो अखिलेश के समाजवाद की दो सौ की ताकत का एक जीरो कम करके उसे बीस बना सकते थे.
सौ की ताकत से एक जीरो गायब कर उसे बीस बना सकते थे. और यदि समाजवादी पार्टी की चुनावी परफार्मेंस दस में दस नंबर लाने की हैसियत में भी होती तो शिवपाल एक जीरो कम करके दस में से एक नंबर की नौबत पर ला देते. शिवपाल यदि अखिलेश यादव की दस्तक का इतना लम्बा इंतेज़ार न करते और अपमान का बदला लेने, प्रतिशोध की भावना में या स्वार्थवश अपना भविष्य बेहतर बनाने के लिए भाजपा में चले जाते अथवा भाजपा से गठबंधन कर लेते तो वो अपने भतीजे और सपा प्रमुख अखिलेश यादव की जीती बाजी भी पलट कर भाजपा में सियासी हैसियत पा सकते थे.
भाजपा ही में नहीं कांग्रेस या बसपा से हाथ मिलकर भी वो सपा का बेड़ा गर्क करके भाजपा के विजय रथ को रफ्तार दे सकते थे. पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसा हुआ भी था, प्रसपा भले ही एक सीट भी नहीं जीत सकी सपा को हराने की लड़ाई में वो जीत गई थी. ये बात बसपा सुप्रीमों मायावती ने भी कही थी कि शिवपाल यादव के सपा से अलग होने से सपा के यादव वोटर बिखर गए. और इस बंटवारे में सपा बुरी तरह चुनाव हार गई.
शिवपाल यादव की पार्टी में प्रवक्ता रहे उस्मान का कहना है कि पिछले विधानसभा चुनाव से लेकर आजतक पौने पांच साल के दौरान प्रसपा बनाने से पहले या इसके बाद कभी भी शिवपाल यादव भाजपा में रिश्ता क़ायम कर सकते थे. या फिर कांग्रेस, बसपा या एआईएमआईएम के साथ जा सकते थे. भाजपा उन्हें सत्ता सुख देकर सपा के बेस यादव वोटबैंक में बंटवारा जारी रखने सपा को मजबूत नहीं होने देती. पर शिवपाल ने ख़ुद का फायदा नहीं देख समाजवाद विचारधारा से वफादारी निभाई.
इसके बाद वो अपने प्रसपा के उस कुनबे के साथ वफादारी निभाने लगे जो उनके बुरे वक्त पर उनके साथ खड़े थे. इसीलिए अखिलेश यादव के उस प्रस्ताव को मानने को तैयार नहीं हुए जिसके तहत उनके लिऐ सीट छोड़ने और सरकार बनने पर मंत्री बनाने की बात रखी गई थी. वो चाहते थे कि उनके वफादार प्रसपा के कुछ साथियों को भी सम्मानजनक टिकट दी जाए. अब ये तो वक्त बताएगा कि बंद कमरे में चाचा-भतीजे में हुई बात चीत में प्रसपा को सपा कितनी सीटें देगी!
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