अजादी के बाद से ही राष्ट्रीय राजनीति में तमाम ऐसे दल बने जिन्होंने क्षेत्रीय स्तर की सरकार को बनाने-बिगाड़ने में अच्छी भूमिका अदा की है. पर वह राष्ट्रीय फलक पर आज तक खास कुछ नहीं कर सके. शुरू से ही वह अपना असतित्व बचाने के प्रयास में लगे रहते हैं. इनकी राजनीति इसी मानसिकता के इर्द-गिर्द घूमती रहती है.
चुनाव समीप देख राजनैतिक दल अपनी सरकार बनाने का गुणाभाग लगाने लगते हैं. हर किसी की चाह होती है कि वह चुनाव में अपने दल का कद बढ़ा सकें. यह अपने क्षेत्र अपने जातिगत आंकड़े के आधार पर अपनी डिमांड भी बढ़ाने का प्रयास करते हैं.
वर्ष 1962 में हुए राज्य के तीसरे विधानसभा चुनाव में दलित आधारित राजनीति करने वाली रिपब्लिकन पार्टी और दक्षिणपंथी विचारधारा वाली हिन्दू महासभा एवं राम राज्य परिषद के मैदान में किस्मत अजमाने उतरे थे. ये पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त थे. तब रिपब्लिकन पार्टी को आठ सीटें मिली थीं. हिन्दू महासभा को दो, जबकि राम राज्य परिषद खाली हाथ रह गई थी. दोनों दलों ने कुल 237 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा. इन छोटी पार्टियों को कुल 5.09 प्रतिशत वोट मिले.
1985 में जहां सिर्फ दो गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत पार्टियों ने चुनाव लड़ा था, वहीं 2007 में छोटे दलों की तादाद 111 तक पहुंच गई |
वर्ष 1969 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाले भारतीय क्रांतिदल को कामयाबी मिली थी. यह गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत पहला राजनीतिक दल था, जिसने 98 सीटों पर जीत दर्ज की थी. यह 425 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. साल 1969 के विधानसभा चुनाव में 16 छोटे दलों के 658 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा जिनमें से 100 ने कामयाबी हासिल की. उस चुनाव में छोटे दलों के हिस्से में कुल 23.41 प्रतिशत वोट आए. हालांकि इससे प्रमुख पार्टियों के मतों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा और कांग्रेस ने 425 में से 211 सीटें जीतकर आसानी से सरकार बनाई...
अजादी के बाद से ही राष्ट्रीय राजनीति में तमाम ऐसे दल बने जिन्होंने क्षेत्रीय स्तर की सरकार को बनाने-बिगाड़ने में अच्छी भूमिका अदा की है. पर वह राष्ट्रीय फलक पर आज तक खास कुछ नहीं कर सके. शुरू से ही वह अपना असतित्व बचाने के प्रयास में लगे रहते हैं. इनकी राजनीति इसी मानसिकता के इर्द-गिर्द घूमती रहती है.
चुनाव समीप देख राजनैतिक दल अपनी सरकार बनाने का गुणाभाग लगाने लगते हैं. हर किसी की चाह होती है कि वह चुनाव में अपने दल का कद बढ़ा सकें. यह अपने क्षेत्र अपने जातिगत आंकड़े के आधार पर अपनी डिमांड भी बढ़ाने का प्रयास करते हैं.
वर्ष 1962 में हुए राज्य के तीसरे विधानसभा चुनाव में दलित आधारित राजनीति करने वाली रिपब्लिकन पार्टी और दक्षिणपंथी विचारधारा वाली हिन्दू महासभा एवं राम राज्य परिषद के मैदान में किस्मत अजमाने उतरे थे. ये पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त थे. तब रिपब्लिकन पार्टी को आठ सीटें मिली थीं. हिन्दू महासभा को दो, जबकि राम राज्य परिषद खाली हाथ रह गई थी. दोनों दलों ने कुल 237 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा. इन छोटी पार्टियों को कुल 5.09 प्रतिशत वोट मिले.
1985 में जहां सिर्फ दो गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत पार्टियों ने चुनाव लड़ा था, वहीं 2007 में छोटे दलों की तादाद 111 तक पहुंच गई |
वर्ष 1969 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाले भारतीय क्रांतिदल को कामयाबी मिली थी. यह गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत पहला राजनीतिक दल था, जिसने 98 सीटों पर जीत दर्ज की थी. यह 425 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. साल 1969 के विधानसभा चुनाव में 16 छोटे दलों के 658 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा जिनमें से 100 ने कामयाबी हासिल की. उस चुनाव में छोटे दलों के हिस्से में कुल 23.41 प्रतिशत वोट आए. हालांकि इससे प्रमुख पार्टियों के मतों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा और कांग्रेस ने 425 में से 211 सीटें जीतकर आसानी से सरकार बनाई थी.
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चुनाव आयोग की रिपोर्टों के मुताबिक वर्ष 1952, 1957 और 1967 में विधानसभा चुनाव में किसी भी गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल ने चुनाव नहीं लड़ा. उप्र के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्ष 1985 के बाद से चुनाव मैदान में छोटे दलों की संख्या लगातार बढ़ी है. साल 1985 में जहां सिर्फ दो गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत पार्टियों ने चुनाव लड़ा था, वहीं वर्ष 2007 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में छोटे दलों की तादाद 111 तक पहुंच गई.
वर्ष 1974 के विधानसभा चुनाव में 15 छोटी पार्टियों ने कुल 368 उम्मीदवार उतारे जिनमें से 360 की जमानत जब्त हो गयी और सिर्फ दो उम्मीदवारों की ही चुनावी वैतरणी पार लग सकी. इस चुनाव में छोटे दलों को मात्र 2.18 प्रतिशत वोट मिले. वर्ष 1977 के चुनाव में सात छोटी पार्टियों ने 111 उम्मीदवार उतारे जिनमें से 110 की जमानत जब्त हो गयी. इन चुनाव में ये दल खाली हाथ रहे और उनका वोट प्रतिशत 0.77 प्रतिशत रहा.
वर्ष 1980 के विधानसभा चुनाव में सात छोटे दलों के 60 उम्मीदवारों में से एक जीतने में कामयाब रहा जबकि 58 की जमानत जब्त हो गयी. इन दलों के प्रत्याशियों का कुल वोट प्रतिशत 0.45 प्रतिशत रहा. वर्ष 1985 के चुनाव में दो पार्टियों ने कुल 354 सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें से सभी सीटों पर उनके प्रत्याशी अपनी जमानत भी नहीं बचा सके.
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वर्ष 1989 के चुनाव में 31 छोटे दलों ने कुल 936 उम्मीदवार खड़े किये जिनमें से सिर्फ 15 ही जीत हासिल कर सके और उनका वोट प्रतिशत 11.36 प्रतिशत रहा. यह वह दौर था जब कांग्रेस ने एकछत्र राज किया. राज्य में उसके पतन के बाद छोटे दलों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई और उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती गई.
वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव में 34 छोटे दलों ने कुल 645 उम्मीदवार खड़े किये जिनमें से सिर्फ दो जीत सके और 641 की जमानत जब्त हो गयी. उनका वोट प्रतिशत .09 रहा. वर्ष 1993 में 59 छोटे दलों के कुल 1205 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा जिनमें से 110 ने जीत हासिल की. उस वक्त मुलायम सिंह यादव की अगुवाई वाले गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल समाजवादी पार्टी (सपा) ने 109 सीटें जीती थीं. उस चुनाव में छोटे दलों का कुल वोट प्रतिशत 19.42 प्रतिशत रहा.
वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में 61 छोटे दलों ने कुल 1102 उम्मीदवारों को खड़ा किया जिनमें से 11 ही जीत सके. इस तरह उनका वोट प्रतिशत 5.63 रहा.वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में 58 छोटी पार्टियों ने 1332 प्रत्याशी उतारे जिनमें से 29 ने जीत हासिल की. चुनाव में इन पार्टियों का कुल मत प्रतिशत 12.34 रहा.
वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा 111 छोटे दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया. इन पार्टियों ने कुल 1356 प्रत्याशी उतारे जिनमें से सिर्फ सात जीते और 1329 की जमानत जब्त हो गयी. इन दलों का वोट प्रतिशत 6.37 रहा. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में लगभग 210 छोटे दलों ने हिस्सा लिया. इन पार्टियों ने लगभग 2701 प्रत्याशियों को चुनाव मैदान पर उतार जिसमें 8 लोगों ने चुनाव जीता लगभग 2643 लोगों की जमानत जब्त हो गयी. इन दलों का वोट प्रतिशत 10.26 रहा.
छोटे दलों ने चुनाव में अभी तक कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई. इन दलों ने चुनाव में सिर्फ वोट काटने का ही काम किया है. इन दलों के माध्यम से राजनीति में अपराधियों, व्यवसायियों और नौकरशाहों की बढ़ती आमद ने भी छोटे दलों की संख्या में इजाफा किया है. इन दलों पर नकेल कसने में चुनाव आयोग खुद को अक्षम पाता है. चुनाव आयोग के पास दलों के पंजीकरण का अधिकार तो है लेकिन इनका पंजीकरण निरस्त करने का अधिकार न होने के कारण छोटे दलों की संख्या पर लगाम नहीं लग पा रही है. छोटे दल उन नेताओं की एक शरणस्थली भी साबित हो रहे हैं जिनका बड़े दलों से टिकट कट रहा है. कुछ लोग चुनाव लड़ने के बहाने सुर्खियों में आने की कोशिश करते हैं. छोटे दल उनकी हसरतें आसानी से पूरी कर देते हैं. बेदाग छवि के बहुत कम लोग ही इस दल में आ पाते हैं.
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छोटे दलों के भाव राष्ट्रीय पार्टियों ने बढ़ा दिये हैं. जातीय और क्षेत्रीय आधार पर अपने एजण्डे को देखकर इनसे समझौता तो कर लेते हैं. बाद में यह टांय-टाय फिस्स हो जाते हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव को लेकर ऐसे दल पनपने लगे हैं. जिनका अपनी विधानसभा में भी अस्तित्व नहीं होता है. वह जतीय आधार पर बड़ा मंसूबा बनाते हैं. ऐसे दलों पर जनता और आयोग दोनों को ध्यान देने की जरुरत है. अपराधी और मफिया चुनाव प्रक्रिया में भाग न ले इस प्रकार कानून भी बनाया जाना चाहिए. राष्ट्रीय पार्टियां अगर अपने किये हुए वादों में से 60 प्रतिशत भी पूरा कर दे तो शायद इसकी जरूरत ही न पड़े. सभी को सच्चा लोकतंत्र स्थापति करने के लिए स्वच्छ लोगों को ही राजनीति में आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए.
वस्तुतः ऐसे जनाधार विहीन दल चुनाव की गंभीरता कम करते है. कई दलों के चुनावी घोषणा पत्र कॉमेडी पत्र की भांति लगते है. दो-चार रुपयों में ये दैनिक उपयोग की सभी सामग्री उपलब्ध कराने का वादा करते हैं. बिजली,पानी, सड़क, रोजगार स्वास्थ्य आदि पर निःशुल्क व शतप्रतिशत उपलब्धता की घोषणा करते है. प्रजातंत्र में आप चुनाव संवैधानिक शासन तंत्र को संचालित करने का आधार उपलब्ध कराते है. यह गंभीर ही नहीं बेहद महत्वपूर्ण कार्य होता है. इसे सतही मानने वालो का मनोबल बढ़ाना चाहिए. दलों के पंजीकरण हेतु जनाधार की उपयुक्त शर्त लगनी चाहिए.
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