आज भारत अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है, यह एक ऐसा संकट है जिसमें भारत का अतीत और भविष्य दोनों निशाने पर है. यह स्पष्ट रूप से देखा और समझा जा सकता है कि 2014 से इस देश की सत्ता ऐसा लोगों के हाथों में पहुंच गयी है जो इस देश के भविष्य को ही नहीं बल्कि इतिहास को भी पूरी तरह से बदल देने के लक्ष्य के साथ हैं और इसके बदले देश पर एक ऐसे विचार को थोप रहे हैं जो पूरी तरह से एकांकी, विभाजक और प्रतिगामी है. यह केवल राजनीतिक संकट नहीं बल्कि इसमें समाज, संस्कृति और राजनीति सभी कुछ शामिल हैं. तो क्या भारत सभ्यात्मक संकट के दौर से गुजर रहा है? या फिर यह एक गरम हवा का झोंका है जो आगामी किसी चुनाव में बह जायेगा?
संकट की तहें
भारत की आज़ादी के 75 बरस पूरे हो गये हैं लेकिन इस मुकाम तक पहुंचते-पहुंचते भारत भटक गया है, आजादी के वक्त नियति के साथ किये गये वादे को भुला दिया गया है, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व और अनेकता में एकता का वादा था. आज देश में नागरिक आजादी पर लगाम कसी जा रही है असमानता चरम पर है और बंधुत्व पर सबसे बड़ा निशाना लगाया गया है. देश के दो प्रमुख धार्मिक समुदायों के बीच नफरत और अविश्वास का भाव अपने चरम पर हैं, देश में हर अच्छे-बुरे मौके का इस्तेमाल बहुत ही सघनता से नागिरकों के बीच के खाई को और चौड़ा करने में किया जा रहा है.
अब तो ये एक राष्ट्रीय शगल बन चुका है जिसमें समाज से लेकर मीडिया और सत्ता बैठे लोग शामिल हैं. भारत की महानता का दावा इसके बहुसंस्कृतिवाद के अपने अनोखे इतिहास में निहित है. ऐतिहासिक रूप से भारत दुनिया में सबसे विविध राष्ट्र रहा है और यही इसकी ताकत और पहचान भी रही है. एक ऐसी भूमि जहां सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं, क्षेत्रीय आधार पर इतनी विवधता हो और जहां विभिन्न धर्मों, नस्लों और पंथों के लोग साथ रहते आये हों और जो अपने आक्रमणकारियों को भी आत्मसात करने की ताकत रखती हो.
यही भारत की सभ्यतागत उपलब्धि है लेकिन यह पुराना भारत अब हकीकत से दूर होता जा रहा है और इसकी जगह पर 'न्यू इंडिया' का...
आज भारत अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है, यह एक ऐसा संकट है जिसमें भारत का अतीत और भविष्य दोनों निशाने पर है. यह स्पष्ट रूप से देखा और समझा जा सकता है कि 2014 से इस देश की सत्ता ऐसा लोगों के हाथों में पहुंच गयी है जो इस देश के भविष्य को ही नहीं बल्कि इतिहास को भी पूरी तरह से बदल देने के लक्ष्य के साथ हैं और इसके बदले देश पर एक ऐसे विचार को थोप रहे हैं जो पूरी तरह से एकांकी, विभाजक और प्रतिगामी है. यह केवल राजनीतिक संकट नहीं बल्कि इसमें समाज, संस्कृति और राजनीति सभी कुछ शामिल हैं. तो क्या भारत सभ्यात्मक संकट के दौर से गुजर रहा है? या फिर यह एक गरम हवा का झोंका है जो आगामी किसी चुनाव में बह जायेगा?
संकट की तहें
भारत की आज़ादी के 75 बरस पूरे हो गये हैं लेकिन इस मुकाम तक पहुंचते-पहुंचते भारत भटक गया है, आजादी के वक्त नियति के साथ किये गये वादे को भुला दिया गया है, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व और अनेकता में एकता का वादा था. आज देश में नागरिक आजादी पर लगाम कसी जा रही है असमानता चरम पर है और बंधुत्व पर सबसे बड़ा निशाना लगाया गया है. देश के दो प्रमुख धार्मिक समुदायों के बीच नफरत और अविश्वास का भाव अपने चरम पर हैं, देश में हर अच्छे-बुरे मौके का इस्तेमाल बहुत ही सघनता से नागिरकों के बीच के खाई को और चौड़ा करने में किया जा रहा है.
अब तो ये एक राष्ट्रीय शगल बन चुका है जिसमें समाज से लेकर मीडिया और सत्ता बैठे लोग शामिल हैं. भारत की महानता का दावा इसके बहुसंस्कृतिवाद के अपने अनोखे इतिहास में निहित है. ऐतिहासिक रूप से भारत दुनिया में सबसे विविध राष्ट्र रहा है और यही इसकी ताकत और पहचान भी रही है. एक ऐसी भूमि जहां सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं, क्षेत्रीय आधार पर इतनी विवधता हो और जहां विभिन्न धर्मों, नस्लों और पंथों के लोग साथ रहते आये हों और जो अपने आक्रमणकारियों को भी आत्मसात करने की ताकत रखती हो.
यही भारत की सभ्यतागत उपलब्धि है लेकिन यह पुराना भारत अब हकीकत से दूर होता जा रहा है और इसकी जगह पर 'न्यू इंडिया' का निर्माण किया जा रहा है जो एकरुपी, हिंसक, नफरती, प्रतिगामी और एक दूसरे के प्रति शक्की है. हज़ारों बरसों की सांस्कृतिक विविधता दावं पर है और बर्बादी भरे रास्ते को महानता का पथ बताया जा रहा है.
इस संकट के किरदार और विचार
साल 2014 में सिर्फ सत्ता नहीं बदली थी बल्कि तख्ता पलट हुआ था, यह तख्तापलट आजादी के आन्दोलन के गर्भ से निकले भारत का था जहां धर्म, जाति, नस्ल, रंग, लिंग किसी भी भेदभाव के बगैर शासन चलाना सुनिश्चित किया गया था और एक राष्ट्र के रूप में भारत का बुनियादी विचार और ढांचा धर्मनिरपेक्ष था. ऐसा इसलिये हो सका क्योंकि उस वक्त के हमारे राष्ट्रीय नेताओं की सोच व्यापक, समावेश और दूरदर्शी थी. नेहरु जैसे नेताओं ने आजादी के आन्दोलन के दौरान ही 'भारत की खोज' जैसी रचनाओं के माध्यम से 'धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद' और 'विभिन्नता में एकता' की अवधारणा को पेश करना शुरू कर दिया था.
बाद में संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान भी इसपर काफी सोच विचार किया गया और अंततः हमारे राष्ट्र निर्माता विभाजन और साम्प्रदायिक हिंसा के साये के बावजूद भी इस देश को एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष बुनियाद देने में कामयाब रहे. 20 जनवरी 1947 को सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने संविधान सभा में बहस के दौरान कहा था कि 'आधुनिक जीवन का आधार राष्ट्रीयता है न कि धर्म, इस देश में हिन्दू और मुसलमान एक हजार वर्ष से भी अधिक समय से साथ साथ रहते आये हैं. ये एक ही देश के रहने वाले हैं और एक ही भाषा बोलते हैं,उनकी जातीय परम्परा एक ही है, उन्हें एक ही प्रकार के भविष्य का निर्माण करना है. वे एक दूसरे में गुथे हुए हैं'.
हमारे राष्ट्रीय नेता इस बुनियाद पर आने वाले खतरों के प्रति भी सचेत थे इसीलिए संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरु ने चेताते हुए कहा था कि 'हमारे सामने बहुत से सवाल आयेगें और आते हैं, अलहदा अलहदा गिरोहों, फिरकों के लोग अपने अपने ढंग से इसको देखेंगे और बहस भी होगी.लेकिन हमेशा इस सवाल को याद रखना है कि छोटी बातों और बहसों में हम न बहक जाएं....अगर हिन्दुस्तान जिन्दा है तो हम भी जिन्दा हैं और सब फिरके और गिरोह भी जिन्दा हैं.'
2014 के लोकसभा चुनाव में भले ही नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के लहर और 'विकास' के भ्रामक नारों के सहारे सत्ता में आये हों लेकिन आखिरकार वो हिन्दू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी थे जिनका नाम ही ध्रुवीकरण के लिए काफी था और फिर इसके बाद 2019 के चुनावी नतीजे बिना किसी लाग लपेट के भारत को एक हिन्दू बहुसंख्यक राष्ट्र बनाने की मंशा पर मुहर की तरह थे. अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार बहुत ही खुले हाथों से भारत को बहुसंख्यकवादी राष्ट्र बनाने की दिशा में आगे बढ़ती हुई दिखाई पड़ रही है.
यह मौजूदा समय की आर्थिक, सामाजिक चुनौतियों से ध्यान भटकाने के लिए नहीं किया जा रहा है बल्कि यह एक लक्ष्य है जिसे बहुत ही मुस्तैदी के साथ पूरा किया जा रहा है. प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की तुलना पूर्व के प्रधानमंत्रियों में केवल जवाहरलाल नेहरु से की जा सकती है जिन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर आधुनिक भारत की नींव रखी थी बाद के सभी प्रधानमंत्री कमोबेश उन्ही के विरासत पर आगे बढ़ते रहे.
मोदी ऐसे पहले प्रधानमंत्री है जिन्होंने खुले रूप से उस विरासत पर आगे बढ़ने से इनकार कर दिया और उसके स्थान पर एक नये बहुसंख्यकवादी भारत की नींव रख चुके हैं जिसे 'न्यू इंडिया' कहा जा रहा है.भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री प्रतीकों और आयोजनों के माध्यम से खुद को एक हिन्दू राष्ट्र के प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करते हैं. अयोध्या मंदिर के शिलान्यास समारोह, काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर और हैदराबाद में 11वीं सदी के हिंदू संत रामानुजाचार्य के स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी का उद्घाटन के मौके पर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी भूमिका, वेशभूषा और भाषणों के माध्यम से भारत को एक नयी राष्ट्रीय पहचान देने को कोशिश करते हैं.
वे बहुत बारीकी से हिंदू पहचान और राज्यसत्ता का मिश्रण कर रहे हैं जिसका अर्थ है कि भारतीय और हिन्दू होना एक समान है.यह सबकुछ संघ द्वारा पिछले नौ दशक से अधिक समय में किये गये कामों का नतीजा है जो उन्होंने वैचारिक और जेहन बनाने के स्तर पर किया है आज पूरे देश में एक विचारधरा के तौर पर हिंदुत्व का प्रसार,स्वीकार्यता और वर्चस्व किसी भी समय के मुकाबले व्यापक और सघन है. अगर इसे फासीवाद कहना चाहें तो आर्गेनिक फासीवाद कहना ज्यादा उचित होगा.
दुर्भाग्य से फिलहाल तो इस संकट का मुकाम नजर नहीं आ रहा है, हम हिन्दुस्तान में एक बार फिर द्विराष्ट्र के सिद्धांत को फलीभूत होते हुये देख रहे हैं. कभी नयी सदी को एशिया की सदी बताया गया था जिसके भारत और चीन प्रमुख किरदार होने वाले थे. लेकिन भारत के पीछे हटने से अब एशिया के सदी का फसाना पीछे छूट गया है. चीन तो अपनी पूरी ताकत से साथ एशिया ही नहीं दुनिया की महाशक्ति बनने के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रहा है लेकिन भारत तो अपनी उस मूल ताकत को ही खोता जा रहा है यो उसके सांस्कृतिक बहुलता में निहित थी.
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