25 अप्रैल के भूकंप और उसके बाद आए झटकों की वजह से नेपाल अपने इतिहास में अब तक के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है. नेपाल के लोग दुनिया के हर कोने से आने वाली सहायता के लिए आभारी हैं. हालांकि वे बिग ब्रदर को लेकर खास महसूस नहीं कर रहे हैं. भारत खुश है कि उसने तत्परता के साथ वहां राहत कार्य में मदद की. खुश होना एक बात है, लेकिन इसके बदले में उम्मीद करना अलग बात.
खासतौर पर जब हमारा सबसे बड़ा एशियाई प्रतिस्पर्धी भी मैदान में. भूकंप आने से बस कुछ ही हफ्तों पहले "नेपाल के अनुरोध पर" चीन ने काठमांडू के लिए भव्य योजना की घोषणा की है. वे माउंट एवरेस्ट के नीचे सुरंग बनाकर एक रेल लाइन बिछाएंगे. जो नेपाल की राजधानी को तिब्बत की राजधानी ल्हासा से जोडेगी. ल्हासा से यह लाइन किंघाई प्रांत के लिए जाएगी. यह इंजीनियरिंग चमत्कार है या नहीं, लेकिन सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट का नेपाली नाम) और प्रकृति को यह योजना पसंद आती प्रतीत नहीं होती.
हिमालयन पड़ोसी को हमने सहायता बहुत जल्द पहुंचा दी थी लेकिन भारत में नेपालियों की परेशानी की चर्चा कम ही होती है. नेपाल की परेशानियों के लिए जिम्मेदार कई कारण भारत की वजह से हैं, और इसका आरोप भारत पर लगता है.
नेपाली नेताओं ने हमेशा भारत से जुड़े अपने क्षेत्रीय इतिहास का इस्तेमाल फायदा उठाने के लिए किया है. और ऐसा ही भारत के सभी पडौसी करते आए हैं. क्या यह भारतीयों के लिए चिंता का एक कारण नहीं हो सकता कि भारत अपने पराक्रम, निकटता और नरम रुख के बावजूद अंत में केवल अपने पडौसियों की आलोचना के अलावा कुछ नहीं मिलता.
चलो नेपाल की मदद करते हैं, पर हम बाद में यह देखेंगे कि किसने सबसे ज्यादा काम किया.
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