हमें भारत और अमेरिका के बीच होने वाली 2 + 2 डायलॉग के दूसरे बार स्थिगित होने पर परेशान नहीं होना चाहिए. जिस तरह से ये किया गया था, उससे पता चलता है कि असल में इसकी तत्काल जरुरत थी. लेकिन कई ऐसे भी मुद्दे हैं जिसका सामना भारत को अमेरिका के साथ अपने संबंध को सुदृढ़ बनाने के दौरान करना होगा. हाल के वर्षों में भारत अमेरिका संबंध प्रगाढ़ हुए हैं. दोनों देशों के बीच राजनीतिक समन्वय बढ़ा है, अमेरिका द्वारा भारत में हथियारों की बिक्री बढ़ी है, उच्च स्तरीय यात्राएं बढ़ी हैं, मंत्रिस्तरीय और आधिकारिक स्तर पर कई मंचों पर बातचीत और नियमित सैन्य अभ्यास भी शामिल हैं.
गुटनिरपेक्षता:
आश्चर्यजनक रूप से, दोनों देश जितने करीब आ रहे हैं, नई दिल्ली को रिश्ते को प्रगाढ़ बनाए रखने के लिए उतनी ही ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ रही है. एक तरह से इसे ऐसे देख सकते हैं कि जब तक रिश्ता डेटिंग तक होता है तब तक सब ठीक होता है, लेकिन बात शादी तक पहुंचने पर भारत को दहेज की बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है.
इसमें दो प्रमुख मांगे तो अभी साफ दिख रही है- अमेरिका द्वारा भारत को ईरान और रूस के साथ अपने संबंध तोड़ने के लिए दबाव बनाया जा रहा है. अमेरिका नई दिल्ली को ईरान से अपने तेल आयात कम करने की अनुमति दे सकता है. इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय उपमहाद्वीप में ईरान, हाइड्रोकार्बन एनर्जी का सबसे नजदीकी स्रोत है. दूसरी मांग में रूस के साथ हमारे प्रमुख रक्षा संबंधों से संबंधित है.
CAATSA (Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act) के मुताबिक अमेरिकी कानून तुरंत ही नई खरीद, ज्वायंट वेंचर और स्पेयर पार्ट्स और घटकों के अधिग्रहण को प्रभावित करेगा. 1960...
हमें भारत और अमेरिका के बीच होने वाली 2 + 2 डायलॉग के दूसरे बार स्थिगित होने पर परेशान नहीं होना चाहिए. जिस तरह से ये किया गया था, उससे पता चलता है कि असल में इसकी तत्काल जरुरत थी. लेकिन कई ऐसे भी मुद्दे हैं जिसका सामना भारत को अमेरिका के साथ अपने संबंध को सुदृढ़ बनाने के दौरान करना होगा. हाल के वर्षों में भारत अमेरिका संबंध प्रगाढ़ हुए हैं. दोनों देशों के बीच राजनीतिक समन्वय बढ़ा है, अमेरिका द्वारा भारत में हथियारों की बिक्री बढ़ी है, उच्च स्तरीय यात्राएं बढ़ी हैं, मंत्रिस्तरीय और आधिकारिक स्तर पर कई मंचों पर बातचीत और नियमित सैन्य अभ्यास भी शामिल हैं.
गुटनिरपेक्षता:
आश्चर्यजनक रूप से, दोनों देश जितने करीब आ रहे हैं, नई दिल्ली को रिश्ते को प्रगाढ़ बनाए रखने के लिए उतनी ही ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ रही है. एक तरह से इसे ऐसे देख सकते हैं कि जब तक रिश्ता डेटिंग तक होता है तब तक सब ठीक होता है, लेकिन बात शादी तक पहुंचने पर भारत को दहेज की बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है.
इसमें दो प्रमुख मांगे तो अभी साफ दिख रही है- अमेरिका द्वारा भारत को ईरान और रूस के साथ अपने संबंध तोड़ने के लिए दबाव बनाया जा रहा है. अमेरिका नई दिल्ली को ईरान से अपने तेल आयात कम करने की अनुमति दे सकता है. इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय उपमहाद्वीप में ईरान, हाइड्रोकार्बन एनर्जी का सबसे नजदीकी स्रोत है. दूसरी मांग में रूस के साथ हमारे प्रमुख रक्षा संबंधों से संबंधित है.
CAATSA (Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act) के मुताबिक अमेरिकी कानून तुरंत ही नई खरीद, ज्वायंट वेंचर और स्पेयर पार्ट्स और घटकों के अधिग्रहण को प्रभावित करेगा. 1960 के दशक से ही रूस ने हमारी छोटे-बड़े सभी रक्षा आवश्यकताओं को पूरा किया है. अमेरिका की बात मानने का तत्काल प्रभाव एस- 400 सिस्टम, परियोजना 1135.6 फ्रिगेट्स और केएस 226टी यूटिलिटी हेलीकॉप्टर सौदों के अधिग्रहण पर हो सकता है. लेकिन अमेरिकी कानून स्पेयर और कंपोनेंट को भी प्रभावित करेगा, जिसका मतलब भारत के रक्षा उपकरणों में से 60 से 70 प्रतिशत है.
भारत के सामने सिर्फ दो ही विकल्प हैं. वो अमेरिका की मांगों को मान सकता है और ईरान और रूस के साथ हमारे संबंधों को कम करने की प्रक्रिया शुरु करे. या फिर वो एक स्टैंड ले सकता है और अमेरिका को दो टूक बता सकता है कि अमेरिका के इन एक्स्ट्रा- टेरिटोरियल मांगों को वो नहीं मानेगा. साथ ही सिर्फ संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को ही स्वीकार करेगा. विडंबना यह है कि, ईरान में अमेरिकी कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र के समझौते वाले अंतर्राष्ट्रीय कानून को धत्ता बताया है.
बैलेंसिंग एक्ट-
अब वाशिंगटन डीसी का चाहे जो भी विचार हो, लेकिन ईरान और रूस दोनों ही भारत की क्षेत्रीय नीति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. अमेरिकी की मांगों के मान लेने का मतलब होगा कि भारत ने अपनी जियोपॉलिटिकल जरूरतों को पूरा करने के किसी भी झगड़े को त्याग दिया है. नई दिल्ली को अब यह तय करना है कि आखिर वो किस तरह का पावर है. क्या यह वास्तव में एक ऐसा देश है जिसके लिए "सामरिक स्वायत्तता" महत्वपूर्ण है या फिर ये सिर्फ अपनी सुविधानुसार गढ़ा गया एक नारा है?
भारत-अमेरिका के बीच की उलझन नई नहीं है. 1950 के दशक से ही अमेरिका के सात हमारे रिश्तों में दूरी रही है. शीत युद्ध के दौरान अमेरिका, भारत को अपना सैन्य सहयोगियों बनाना चाहता था. लेकिन भारत ने साफ मना कर दिया और अपनी सैन्य जरुरतों के लिए सोवियत संघ के पास चला गया. सोवियत के पतन के बाद हमने उतार चढ़ाव देखे लिए लेकिन नए रिश्ते को आकार देने में सफल नहीं रहे. अमेरिका यह समझने में लगातार नाकाम रहा है कि भारत, जापान या पश्चिमी यूरोप जैसा भागीदार नहीं हो सकता है. इन देशों के लिए अमेरिका ही सुरक्षा प्रदाता है. लेकिन परमाणु हथियारों से लैस भारत के अस्तित्व पर ऐसा कोई खतरा नहीं है. लेकिन इसकी अपनी सुरक्षा चिंताएं और जरूरतें हैं जिनके लिए भूगर्भीय अभिविन्यास की आवश्यकता है, जो अमेरिका से अलग है.
पावर पॉलिटिक्स:
विश्व व्यवस्था के मुद्दों और लोकतांत्रिक आदर्शों से परे, भारत को चीन को संतुलित करने के लिए अमेरिका की जरूरत है. खासकर इसलिए क्योंकि हम सशस्त्र बलों और रक्षा औद्योगिक आधार को आधुनिक बनाने के लिए आवश्यक पुनर्गठन और सुधार को पूरा करने में विफल रहे हैं. लेकिन उसी कारण से, अमेरिका को भी चीन की बढ़ती ताकत को दूर करने के लिए भारत की जरूरत है.
इसलिए, भारत-अमेरिका संबंधों के पीछे एक शॉर्ट-टर्म लॉजिक है. लेकिन लंबी अवधि में, वो समझौते भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं. क्योंकि यह देश लोकतांत्रिक, आर्थिक रूप से जीवंत और तकनीकी रूप से उन्नत सभ्यता पाने की कोशिश कर रहे हैं. एक वैश्विक शक्ति जिसकी नियति के साथ-साथ उसकी निर्णय स्वायत्तता अपने हाथों में है. अमेरिका ने एक बार कहा था कि वह भारत को इसके लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करने के लिए तैयार है. लेकिन आज, उनकी अपनी विदेश नीति का संकुचित दृष्टिकोण इस वादे को कमजोर कर रहा है.
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