एक नहीं तमाम मीडिया ने ऐसा ही कहा और माननीय न्यायमूर्ति को कहना पड़ा, 'मैंने ऐसा तो नहीं कहा था !' पता नहीं कैसे बिना धुएं के आग लगा दी मीडिया पर्सनों ने ? दरअसल मीडिया को टीआरपी चाहिए और टीआरपी के लिए खबर सनसनीखेज ना भी हो तो बनाई जाती है, मसालेदार न भी हों तो मसाले डाले जाते हैं और ट्विस्ट एंड टर्न न भी हों तो क्रिएट कर दिए जाते हैं. कहते हैं गलती एक बार होती है, बार बार नहीं होती. परंतु मीडिया की हिमाक़त ही कहेंगे जो शीर्ष न्यायालय के हवाले से पहले एक गलत खबर प्रसारित की और फिर उसी खबर को कोर्ट के हवाले से संपुष्ट भी कर दिया. और ऐसा किसी एक मीडिया ने नहीं किया, तक़रीबन हर डिजिटल या प्रिंट मीडिया ने किया. इस लिहाज से क्या कह दें सामूहिक रूप से इंटरप्रिटेशन गलत हो गया ? वस्तुतः मीडिया भी आजकल कॉपी पेस्ट टाइप हो गया है 'फटाफट सबसे पहले खबर' का स्वघोषित तमगा हासिल करने के लिए ! लेकिन सवाल बड़ा है क्या मीडिया को किसी भी न्यूज़ प्रसारित करने के पहले फैक्ट्स चेक नहीं करने चाहिए ?
चूंकि सनसनी के लिए फटाफट हेडलाइंस बनाने की बाध्यता होती है, बाद में इन्हीं मीडिया के तमाम फैक्ट्स चेक डिपार्टमेंट सक्रिय होकर और आग में घी डालने का ही काम करते है. कुल मिलाकर पहले खबर गलत देकर सुर्खियां बटोर ली और बाद में गलत खबर को दुरुस्त कर एक बार फिर सुर्खियां बटोर ली! 'जो हुआ सो हुआ' की तर्ज पर खारिज करने के पहले समझ तो लें आखिर हुआ क्या था ?
वरिष्ठता-सह-योग्यता के आधार पर नियुक्तियां करने के गुजरात सरकार और गुजरात उच्च न्यायालय के फैसलों को चुनौती देने वाले इच्छुक जिला न्यायाधीशों द्वारा दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का स्थगन आदेश पारित किया गया था. यह तर्क...
एक नहीं तमाम मीडिया ने ऐसा ही कहा और माननीय न्यायमूर्ति को कहना पड़ा, 'मैंने ऐसा तो नहीं कहा था !' पता नहीं कैसे बिना धुएं के आग लगा दी मीडिया पर्सनों ने ? दरअसल मीडिया को टीआरपी चाहिए और टीआरपी के लिए खबर सनसनीखेज ना भी हो तो बनाई जाती है, मसालेदार न भी हों तो मसाले डाले जाते हैं और ट्विस्ट एंड टर्न न भी हों तो क्रिएट कर दिए जाते हैं. कहते हैं गलती एक बार होती है, बार बार नहीं होती. परंतु मीडिया की हिमाक़त ही कहेंगे जो शीर्ष न्यायालय के हवाले से पहले एक गलत खबर प्रसारित की और फिर उसी खबर को कोर्ट के हवाले से संपुष्ट भी कर दिया. और ऐसा किसी एक मीडिया ने नहीं किया, तक़रीबन हर डिजिटल या प्रिंट मीडिया ने किया. इस लिहाज से क्या कह दें सामूहिक रूप से इंटरप्रिटेशन गलत हो गया ? वस्तुतः मीडिया भी आजकल कॉपी पेस्ट टाइप हो गया है 'फटाफट सबसे पहले खबर' का स्वघोषित तमगा हासिल करने के लिए ! लेकिन सवाल बड़ा है क्या मीडिया को किसी भी न्यूज़ प्रसारित करने के पहले फैक्ट्स चेक नहीं करने चाहिए ?
चूंकि सनसनी के लिए फटाफट हेडलाइंस बनाने की बाध्यता होती है, बाद में इन्हीं मीडिया के तमाम फैक्ट्स चेक डिपार्टमेंट सक्रिय होकर और आग में घी डालने का ही काम करते है. कुल मिलाकर पहले खबर गलत देकर सुर्खियां बटोर ली और बाद में गलत खबर को दुरुस्त कर एक बार फिर सुर्खियां बटोर ली! 'जो हुआ सो हुआ' की तर्ज पर खारिज करने के पहले समझ तो लें आखिर हुआ क्या था ?
वरिष्ठता-सह-योग्यता के आधार पर नियुक्तियां करने के गुजरात सरकार और गुजरात उच्च न्यायालय के फैसलों को चुनौती देने वाले इच्छुक जिला न्यायाधीशों द्वारा दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का स्थगन आदेश पारित किया गया था. यह तर्क दिया गया था कि प्रमोशन योग्यता-सह-वरिष्ठता के मौजूदा सिद्धांत पर होना चाहिए था, जिसके अनुसार वरिष्ठता पर योग्यता को वरीयता दी जाती है.
चूंकि प्रमोशन लिस्ट में सूरत कोर्ट के जस्टिस वर्मा का नाम भी शामिल था, कुछ दिनों पहले हेडलाइन आई, 'राहुल गांधी को दोषी ठहराए जाने वाले जज के प्रमोशन को SC में चुनौती' जिसके अंतर्गत कहा गया कि जज हरीश वर्मा समेत सभी 68 न्यायिक अधिकारियों के प्रमोशन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और जस्टिस एमआर शाह की अध्यक्षता वाली बेंच इसपर 8 मई को सुनवाई करेगी. सूरत कोर्ट के जज हरीश वर्मा ने मानहानि के मामले में राहुल गांधी को 2 साल की सजा सुनाई थी.
इतना ही नहीं, अलग अलग मीडिया ने इस खबर को और चटपटा बनाने के लिए सूरत कोर्ट द्वारा राहुल गांधी को दोषी ठहरा कर सजा सुनाये गए फैसले को यूं जोड़ा मानों माननीय जज वर्मा को इस फैसले के लिए प्रमोशन दिया गया था.अब जब इस अपील पर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक स्थगन आदेश दिया तो उसका मतलब यूं निकाला गया कि शीर्ष अदालत ने सूरत कोर्ट के जज हरीश वर्मा के प्रमोशन पर रोक लगा कर उनके राहुल को लेकर दिए गए फैसले के बायस्ड होने की शंका को बल दे दिया है.
क्या फैसला ऐसा कुछ कहता है ? शीर्ष अदालत ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक फैसले और बाद में 68 न्यायिक अधिकारियों को वरिष्ठता-सह-योग्यता नियम के आधार पर जिला न्यायाधीशों के पद पर पदोन्नत करने के लिए राज्य सरकार की अधिसूचना पर उस हद तक रोक लगाई है जहां वरिष्ठता को योग्यता पर वरीयता दी गई है. दरअसल आदेश का किसी एक व्यक्ति से कोई लेना-देना है ही नहीं.
मुद्दा योग्यता-सह-वरिष्ठता बनाम वरिष्ठता-सह-योग्यता का था. खबरों ने बिना ठीक से पढ़े ही कह दिया कि पीठ ने सभी 68 प्रोन्नति पर रोक लगा दी. केवल उनके प्रमोशन को रोका गया है जिन्हें योग्यता को ताक पर रखकर वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नत किया गया था. स्वयं माननीय जस्टिस शाह ने स्पष्ट किया कि राहुल गांधी को दोषी ठहराने वाले न्यायाधीश इस रोक के दायरे में नहीं आएंगे और ऐसा इसलिए है कि यह रोक सूची में उन लोगों पर लागू नहीं होगी जो केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नत हुए हैं.
मिस्टर वर्मा को मेरिट के आधार पर भी प्रमोशन मिल रहा है चूंकि वह योग्यता के मामले में 68 में पहले स्थान पर हैं. क्या मीडिया ये कहकर पल्ला झाड़ सकता है कि यह स्पष्ट नहीं था कि न्यायाधीश वर्मा स्टे के दायरे में आएंगे या केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नति के लिए पात्र होंगे ? और यही हो भी रहा है और कहा जा रहा है स्पष्टता नहीं थी तभी तो न्यायमूर्ति शाह ने सफाई दी है.
जबकि आदर्श स्थिति होती कि मीडिया खेद प्रकट करती और कहती कि उनके गलत विश्लेषण की वजह से न्यायमूर्ति को स्पष्टीकरण देना पड़ा, 'न्यायाधीश वर्मा स्टे के दायरे में नहीं आएंगे क्योंकि 'योग्यता - सह - वरिष्ठता' का पालन करने पर भी उनकी पात्रता है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.