राहुल गांधी अपनी बात पर अटल हैं कि वह कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर नहीं रहना चाहते. उन्होंने लोकसभा चुनाव के बेहद खराब नतीजों के बाद इस्तीफा दे दिया. CWC (Congress Working Committee) इस बात पर अड़ी है कि वह प्रेसिडेंट बने रहेंगे, क्योंकि एक कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) मेंबर ने कहा कि नतीजे शर्मनाक नहीं थे.
राहुल गांधी अगर वाकई चाहते हैं कि कांग्रेस सिर्फ एक भूली-बिसरी याद बनकर न रह जाए, तो उन्हें अपने इस्तीफे के बारे में फिर से सोचना चाहिए. बल्कि उन्हें तो CWC को ही पार्टी से बाहर निकाल देना चाहिए. हालांकि, ये काफी विरोधाभासी बात लगती है.
कई बार दुश्मन की ताकत को परखना मददगार होता है. भाजपा एक चुनावी मशीन है, इसलिए नहीं क्योंकि वह कांग्रेस से बेहतर या बड़ी है. बल्कि इसलिए क्योंकि भाजपा को पता है कि कब पुराने खिलाड़ियों को आराम दे देना चाहिए.
बेहद लोकप्रिय होने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी 2004 में सत्ता नहीं बचा सके. वह कहीं खो से गए और लाल कृष्ण आडवाणी ने नई टीम का नेतृत्व शुरू कर दिया. वह 2009 में मनमोहन सिंह को सत्ता से बेदखल करने में नाकाम रहे और पार्टी में फिर से एक संरचनात्मक बदलाव हुआ.
तब राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष थे, जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर बहुमत से चुनाव जीता. उसके कुछ ही समय बाद अमित शाह को पार्टी के अध्यक्ष पद से नवाजा गया, जिन्होंने 2014 का कैंपेन ऑर्गेनाइज किया था. तब से भाजपा कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो गई. अगर कुछ अपवाद छोड़ दें तो इसके बाद भाजपा ने चुनाव पर चुनाव जीतना शुरू कर दिया.
भाजपा ने लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों को पूरे 'सम्मान' के साथ रिटायर कर दिया....
राहुल गांधी अपनी बात पर अटल हैं कि वह कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर नहीं रहना चाहते. उन्होंने लोकसभा चुनाव के बेहद खराब नतीजों के बाद इस्तीफा दे दिया. CWC (Congress Working Committee) इस बात पर अड़ी है कि वह प्रेसिडेंट बने रहेंगे, क्योंकि एक कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) मेंबर ने कहा कि नतीजे शर्मनाक नहीं थे.
राहुल गांधी अगर वाकई चाहते हैं कि कांग्रेस सिर्फ एक भूली-बिसरी याद बनकर न रह जाए, तो उन्हें अपने इस्तीफे के बारे में फिर से सोचना चाहिए. बल्कि उन्हें तो CWC को ही पार्टी से बाहर निकाल देना चाहिए. हालांकि, ये काफी विरोधाभासी बात लगती है.
कई बार दुश्मन की ताकत को परखना मददगार होता है. भाजपा एक चुनावी मशीन है, इसलिए नहीं क्योंकि वह कांग्रेस से बेहतर या बड़ी है. बल्कि इसलिए क्योंकि भाजपा को पता है कि कब पुराने खिलाड़ियों को आराम दे देना चाहिए.
बेहद लोकप्रिय होने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी 2004 में सत्ता नहीं बचा सके. वह कहीं खो से गए और लाल कृष्ण आडवाणी ने नई टीम का नेतृत्व शुरू कर दिया. वह 2009 में मनमोहन सिंह को सत्ता से बेदखल करने में नाकाम रहे और पार्टी में फिर से एक संरचनात्मक बदलाव हुआ.
तब राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष थे, जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर बहुमत से चुनाव जीता. उसके कुछ ही समय बाद अमित शाह को पार्टी के अध्यक्ष पद से नवाजा गया, जिन्होंने 2014 का कैंपेन ऑर्गेनाइज किया था. तब से भाजपा कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो गई. अगर कुछ अपवाद छोड़ दें तो इसके बाद भाजपा ने चुनाव पर चुनाव जीतना शुरू कर दिया.
भाजपा ने लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों को पूरे 'सम्मान' के साथ रिटायर कर दिया. उन्होंने पार्टी बनाई थी और वह आराम से चले भी गए, क्योंकि पार्टी का हित उनके निजी हितों से ऊपर था. 2019 का चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले जाकर उनके पैर छुए. पार्टी ने ये नियम बना दिया है कि 75 साल से ऊपर का कोई नेता पार्टी में नहीं होगा, बल्कि उसे मार्गदर्शन मंडल में रख दिया जाएगा. कुछ अन्य वरिष्ठ नेता इस साल भाजपा के मार्गदर्शन मंडल में शामिल होंगे.
भाजपा में जनरेशन शिफ्ट होने को इससे समझ सकते हैं. स्वर्गीय वेद प्रकाश गोयल उस समय वाजपेयी सरकार में एक मंत्री थे. उनके बेटे पियूष गोयल नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री हैं. कांग्रेस छोड़ने के बाद हिमांत बिस्वा शर्मा ने बेहद कम समय में नॉर्थईस्ट में भाजपा को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया. यह सब सिर्फ इसलिए हो सका क्योंकि कांग्रेस के निष्ठावान तरुण गोगोई असम में उन्हें एक इंच भी देने को तैयार नहीं थे. उन्होंने अमित शाह की टीम में एक जटिल रोल अदा किया.
अब बात करते हैं कांग्रेस की. सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ा और राहुल गांधी उस पोस्ट पर आ गए. लेकिन टीम नहीं बदली. जरा कल्पना कीजिए कि भारत की टीम विराट कोहली की कप्तानी में वर्ल्ड कप खेलने गई हो, लेकिन सचिन, सहवाग, गंभीर, युवराज और यूसुफ पठान जैसे खिलाड़ी टीम में हों. टीम इंडिया को वर्ल्ड कप जीतने का मौका मिला है, क्योंकि इस समय टीम में 2011 का सिर्फ एक धोनी है, इसलिए नहीं कि वह बहुत सम्माननीय खिलाड़ी हैं, बल्कि इसलिए कि वह भारत को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं.
अब वापस आते हैं कांग्रेस पर. सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने और टीम पुरानी ही रही. मैडम के सभी आदमी CWC में हैं. मोतीलाल वोरा तो खुद से चल भी नहीं सकते. उन्हें तो CWC में कांग्रेस की असफलता पर बहस करने के बजाय घर में आराम करना चाहिए. आखिर वह कैसे राहुल गांधी का इस्तीफा स्वीकार कर सकते हैं, जबकि वह खुद पार्टी से इस्तीफा नहीं दे रहे हैं? गुलाम नबी आजाद, मनमोहन सिंह, एके एंटनी, अंबिका सोनी, मल्लिकार्जुन खड़गे, अशोक गहलोत, ओमान चांडी, आनंद शर्मा, तरुण गोगोई, हरीश रावत, सिद्धारमैया और भी कई. ये सभी सोनिया गांधी के वक्त की कांग्रेस की सेंट्रल वर्किंग कमेटी के नेता हैं.
इनमें से अधिकतर अपने ही गढ़ से जीते की हालत में नहीं हैं. इनमें से अधिकतर नई दिल्ली नगरपालिका परिषद एरिया में अपना अधिकतर समय बिताते हैं और पार्टी के अंदर के समीकरणों पर काम करते हैं, ताकि 5 सालों के लिए जरूरी बने रहें और जब अमित शाह द्वारा मैनेज किए गए चुनाव का सामना करते हैं तो असहाय महसूस करते हैं. जहां एक ओर आज के समय की राजनीति में विरासत एक खराब शब्द है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस का पास कोई दूसरा ऐसा नेता नहीं है जो राहुल गांधी की तरह पार्टी को आगे ले जा सके. पार्टी ने गांधी परिवार से हटकर भी नेता को चेहरा बनाकर देख लिया है और ये भी देख लिया है कि नतीजे में पार्टी कैसे टुकड़ों में बंटती है.
भले ही आपको ये अच्छा लगे या नहीं, गांधी परिवार वो गोंद है, जिसने कांग्रेस पार्टी को एक साथ बनाए रखा है. लेकिन राहुल गांधी अकेले चुनाव नहीं जीत सकते. हां, भारत के लोगों ने नरेंद्र मोदी को वोट दिया है, लेकिन अमित शाह ने ये सब होने के लिए जो इंतजाम कर के एक बड़ा संगठन खड़ा किया, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. कांग्रेस में कोई संगठन नहीं है, क्योंकि संगठन तो उन लोगों के हाथों में छूट गया है, जो सिर्फ पार्टी में अपनी जगह बचाए रखने की जुगत में हैं. वह कांग्रेस से पूरी पावर लेते हैं, लेकिन उसे वापस कुछ नहीं देते.
कांग्रेस पार्टी में सारे बड़े फैसले CWC ही लेती है. ये फैसले लेने वाले भी बदले जाने चाहिए, क्योंकि नेतृत्व बदल चुका है. वरिष्ठ नेताओं को सिर्फ नेतृत्व का मार्गदर्शन करना चाहिए, ना कि इसका हिस्सा होने चाहिए. राहुल गांधी के लिए ये वाकई मुश्किल होगा कि वह कैसे अपने पिता या दादी के समय के नेताओं के कड़क होकर बात करें. भारतीय संस्कृति अपने से बड़ों से ऊंची आवाज में बात करना बेहद मुश्किल बना देती है. राहुल गांधी के पास अब नया काम है पार्टी को दोबारा बनाने का. वह इसकी शुरुआत CWC से ही कर सकते हैं.
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