हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं के लिए है! नाथूराम गोडसे एक देशभक्त था! भारत में जितना विकास हुआ है वो नरेंद्र मोदी जी ने ही करवाया है और उससे पहले हम आदिम काल में जी रहे थे! अब चुंकी इतना कहने से मुझे संघ से उनके खोखले राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट मिल जाएगा, मैं अपना लेख शुरू करता हूँ!
सच्चा राष्ट्रवाद और असल देशभक्त कौन होता है? 2014 के पहले तक एक असली देश भक्त वो होता था जो देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करे और सजगता के साथ देश की शान्ति खुशहाली और तरक़्क़ी में अपना योगदान दे. परंतु आज के निराशाजनक और भयावह स्थिति देख कर लगता है की यह परिभाषा भारतीय संविधान की मूल भावना के साथ दफ़न कर दी गयी है. और शायद यही कारण है की आज एक दंगा फैलाने के आरोपी की लाश के ऊपर हमारा तिरंगा शर्मशार हो रहा है. तड़ीपार नेता जो खुद हत्या के आरोपी हैं और जिनका नाम सुसाइड नोट में है आज दूसरी पार्टियों के मूल में खराबी ढूंढ रहे हैं. अजय देवगन जो पान मसाले बेच बेच कर कर ना जाने कितने लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं और अमिताभ बच्चन जिनका नाम पनामा टैक्स चोरी केस में आया है आज प्रखर राष्ट्रवाद पर मुखर भाषण दे रहे हैं. आज राष्ट्रवादी वो नहीं है जो गाँधी के सत्यता के विचारों पर चले बल्कि वो है जो बेशर्मी के साथ आर्मी की कार्यवाही पर 56 इंच की छाती पीट पीट कर खुद श्रेय ले.
अब मैं ये बात मानने को तैयार हो गया हूँ कि एक झूठ को अगर 100 बार दिखाया जाए तो लोग उसे सच मान ही लेते हैं. ये बात हम भली भाँती जानते हैं की संघ महात्मा गाँधी से कितनी नफरत करता है और आज यही लोग गाँधी की हत्या के बाद उनके सिद्धांतों की हत्या करने पर आतुर हैं. भारतीय राजनीति इस प्रकार से प्रदूषित हो गयी है कि आज अगर बापू, पंडित नेहरू, पटेल और अंबेडकर ज़िंदा होते तो उन्हें भी देशद्रोही ठहरा दिया जाता. बयानों को इस प्रकार से तोड़ मरोड़ के दिखाया जाता कि शांति बहाली की अपील को सेना का अपमान बताया जाता. अल्पसंख्यकों और दलितों के तुष्टिकरण का आरोप लगाया जाता. टीवी पर प्राइमटाइम में उनके...
हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं के लिए है! नाथूराम गोडसे एक देशभक्त था! भारत में जितना विकास हुआ है वो नरेंद्र मोदी जी ने ही करवाया है और उससे पहले हम आदिम काल में जी रहे थे! अब चुंकी इतना कहने से मुझे संघ से उनके खोखले राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट मिल जाएगा, मैं अपना लेख शुरू करता हूँ!
सच्चा राष्ट्रवाद और असल देशभक्त कौन होता है? 2014 के पहले तक एक असली देश भक्त वो होता था जो देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करे और सजगता के साथ देश की शान्ति खुशहाली और तरक़्क़ी में अपना योगदान दे. परंतु आज के निराशाजनक और भयावह स्थिति देख कर लगता है की यह परिभाषा भारतीय संविधान की मूल भावना के साथ दफ़न कर दी गयी है. और शायद यही कारण है की आज एक दंगा फैलाने के आरोपी की लाश के ऊपर हमारा तिरंगा शर्मशार हो रहा है. तड़ीपार नेता जो खुद हत्या के आरोपी हैं और जिनका नाम सुसाइड नोट में है आज दूसरी पार्टियों के मूल में खराबी ढूंढ रहे हैं. अजय देवगन जो पान मसाले बेच बेच कर कर ना जाने कितने लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं और अमिताभ बच्चन जिनका नाम पनामा टैक्स चोरी केस में आया है आज प्रखर राष्ट्रवाद पर मुखर भाषण दे रहे हैं. आज राष्ट्रवादी वो नहीं है जो गाँधी के सत्यता के विचारों पर चले बल्कि वो है जो बेशर्मी के साथ आर्मी की कार्यवाही पर 56 इंच की छाती पीट पीट कर खुद श्रेय ले.
अब मैं ये बात मानने को तैयार हो गया हूँ कि एक झूठ को अगर 100 बार दिखाया जाए तो लोग उसे सच मान ही लेते हैं. ये बात हम भली भाँती जानते हैं की संघ महात्मा गाँधी से कितनी नफरत करता है और आज यही लोग गाँधी की हत्या के बाद उनके सिद्धांतों की हत्या करने पर आतुर हैं. भारतीय राजनीति इस प्रकार से प्रदूषित हो गयी है कि आज अगर बापू, पंडित नेहरू, पटेल और अंबेडकर ज़िंदा होते तो उन्हें भी देशद्रोही ठहरा दिया जाता. बयानों को इस प्रकार से तोड़ मरोड़ के दिखाया जाता कि शांति बहाली की अपील को सेना का अपमान बताया जाता. अल्पसंख्यकों और दलितों के तुष्टिकरण का आरोप लगाया जाता. टीवी पर प्राइमटाइम में उनके बयानों की निंदा होती और हर गली महल्लों में छुटभैया नेता उनके पुतले जलाते.
कहीं ये किसी बड़े छलावे का खेल तो नहीं... |
पूंजीवादी सत्ता के समय में मीडिया से स्वायत्ता की उम्मीद रखना भी हास्यास्पद होगा, और तो और सोशल मीडिया पर भी पैसे के प्रभाव से एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया है की लोग अपनी राय देने से हिचकिचा रहे हैं. स्तिथि इतनी दुर्भाग्यपूर्ण हो गयी है की बुद्धिजीवी शब्द को गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, शायद यही है अघोषित आपातकाल.
हमें यह बात समझने की ज़रुरत है की एक डेमोक्रेसी में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है की सरकार के काम काज के ऊपर सवाल उठा सके. चाहे वो कोई चीफ मिनिस्टर हो या चायवाला. नरेंद्र मोदी जो कल तक हर छोटे बड़े मुद्दों पर दोयम दर्जे के ट्वीट करके केंद्र सरकार के काम काज पर सवालिया निशान उठाते थे आज वही मोदी सरकार अपना विरोध सुनने से असहज हो जाती है. हार्दिक पटेल और रोहित वेमुला इसका जीता जागता उदाहरण हैं. तानाशाही की शुरुआत इसी प्रकार से होती है. इतिहास गवाह है हिटलर की शुरुआत भी ऐसे ही हुई थी. पहले उसने लोगों को लुभावने सपने दिखाए की अच्छे दिन आएंगे अच्छे दिन आएंगे और जब अंत में वह विफल हो गया तो उसने अपने खोखले राष्ट्रवाद का ढोल बजाना शरू कर दिया. यहूदी जो जर्मनी में अल्पसंख्यक थे उन्हें हर परेशानी की मूलजड़ बताकर देश में दंगे फैलाए गए और पूरे देश को गृह युद्ध और विनाश की राह पर ढकेल दिया गया. आखिर में हुआ क्या? करोड़ों लोग मरे और जर्मनी तबाह हो गया। क्या हम भी देश को उसी हाल पर ले जाना चाहते हैं?
हमें ये समझने की ज़रुरत है की देश में फ़िरक़ापरस्ती की जो मुहीम चलायी जा रही है उसका मूल उद्देश्य यही है की लोग आपसी मतभेदों में इतना उलझ जाए की किसान आत्महत्या, महँगाई, बेरोजगारी, शिक्षा का भगवाकरण, बढ़ते भ्रष्टाचार जैसे असल मुद्दों पर चर्चा ही ना हो. और दूसरी बात ये की हम आने वाली पीढ़ियों को किस प्रकार का देश देना चाहते हैं? जिसमें हिन्दू मुस्लिम सब एक साथ रहे या जिसमे रोज़ कत्लेआम हो?
और एक बात यह मान भी लें की भारत को हम एक धर्म का राष्ट्र घोषित कर देंगे, परंतु इस बात की क्या गारंटी है की इसके बाद लोग आपस में नहीं लड़ेंगे, की कुर्मी कायस्थ से नहीं लड़ेगा और अग्रवाल अवस्थी से? और राष्ट्र की भाषा क्या होगी? शिवसेना जो इस मुहीम में सबसे अग्रसर है क्या वो हिंदी अपनाएगी या मराठी पर ही तठस्त रहेगी? एक समय था जब काशी में उर्दू फ़ारसी में रामायण लिखी जा रही थी और संस्कृत में कुरान और आज, बॉलीवुड के एक प्रख्यात कलाकार को सिर्फ इसलिए उसके गांव में रामायण में भाग लेने से संघी गुंडों ने मना कर दिया क्योंकि उसके नाम में "उद्दीन" लगा हुआ था. विडम्बना ये है की जिस पकिस्तान से पूरा संघ और भाजपा नफरत करती है आज उसी का भगवा प्रतिबिम्ब बन कर रह गयी है.
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