सुना है महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि वो 'दस मिनट' में मुख्यमंत्री बन सकती हैं. बहुत अच्छी बात है. बिलकुल बन सकती हैं, भला इसमें शक किसे हो रहा है? लेकिन ऐसा करने से उन्हें रोक कौन रहा है?
आखिर कैसी उलझन
पहले माना जा रहा था कि पीडीपी में वरिष्ठों का एक विरोधी गुट है जो उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है. समझा जा रहा था कि मुफ्ती मोहम्मद के निधन के बाद वे महबूबा के लिए मुश्किलें खड़ी करेंगे. पर फिलहाल तो ऐसा नहीं है.
लेकिन जब पीडीपी ने सर्व सम्मति से उन्हें कोई भी फैसला लेने के लिए अधिकृत कर दिया है, फिर क्या बाधा है. महबूबा अचानक अपने भाई तसद्दुक मुफ्ती को लेकर मीटिंग में एक दिन पहुंचीं तो हैरान तो कई नेता थे, लेकिन किसी ने कुछ कहा भी तो नहीं.
राहुल की राह
2014 के लोक सभा चुनाव से पहले जब भी पूछा जाता राहुल गांधी भी कुछ ऐसे ही संकेत दिया करते रहे. जब भी उनसे जिम्मेदारी संभालने की बात पूछी जाती वो बड़े ही सहज होकर जवाब देते. जिम्मेदारी संभालने से अक्सर अभिप्राय उनके प्रधानमंत्री बनने से ही होता. राहुल कहा भी करते रहे कि निश्चित रूप से उनके साथ कुछ खास कंडीशन है जिसकी बदौलत वो कभी भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं. पूरे दस साल ये स्थिति भी बनी रही.
जब तब मनमोहन सिंह भी बोल ही देते कि राहुल जी के लिए वो कभी भी कुर्सी छोड़ने को तैयार हैं. राहुल भी अक्सर पूरे अदब के साथ मनमोहन को अपना राजनीतिक गुरु बताते रहे हैं. वैसे इस तरह के राजनीतिक गुरु के असल मायने तो मनमोहन से भी बेहतर शायद राहुल गांधी ही जानते होंगे.
लेकिन हर दिन एक समान नहीं होते. बीतते वक्त के साथ हालात भी बदलते गये. धीरे धीरे हालत यहां तक पहुंच गई कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की राह में ही रोड़े खड़े होने लगे. कैप्टन अमरिंदर सिंह से लेकर शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित तक राहुल के नेतृत्व पर सरेआम सवाल उठाने लगे. कैप्टन तो इस कदर दबाव बनाए कि राहुल के पसंदीदा पंजाब कांग्रेस कमेटी के...
सुना है महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि वो 'दस मिनट' में मुख्यमंत्री बन सकती हैं. बहुत अच्छी बात है. बिलकुल बन सकती हैं, भला इसमें शक किसे हो रहा है? लेकिन ऐसा करने से उन्हें रोक कौन रहा है?
आखिर कैसी उलझन
पहले माना जा रहा था कि पीडीपी में वरिष्ठों का एक विरोधी गुट है जो उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है. समझा जा रहा था कि मुफ्ती मोहम्मद के निधन के बाद वे महबूबा के लिए मुश्किलें खड़ी करेंगे. पर फिलहाल तो ऐसा नहीं है.
लेकिन जब पीडीपी ने सर्व सम्मति से उन्हें कोई भी फैसला लेने के लिए अधिकृत कर दिया है, फिर क्या बाधा है. महबूबा अचानक अपने भाई तसद्दुक मुफ्ती को लेकर मीटिंग में एक दिन पहुंचीं तो हैरान तो कई नेता थे, लेकिन किसी ने कुछ कहा भी तो नहीं.
राहुल की राह
2014 के लोक सभा चुनाव से पहले जब भी पूछा जाता राहुल गांधी भी कुछ ऐसे ही संकेत दिया करते रहे. जब भी उनसे जिम्मेदारी संभालने की बात पूछी जाती वो बड़े ही सहज होकर जवाब देते. जिम्मेदारी संभालने से अक्सर अभिप्राय उनके प्रधानमंत्री बनने से ही होता. राहुल कहा भी करते रहे कि निश्चित रूप से उनके साथ कुछ खास कंडीशन है जिसकी बदौलत वो कभी भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं. पूरे दस साल ये स्थिति भी बनी रही.
जब तब मनमोहन सिंह भी बोल ही देते कि राहुल जी के लिए वो कभी भी कुर्सी छोड़ने को तैयार हैं. राहुल भी अक्सर पूरे अदब के साथ मनमोहन को अपना राजनीतिक गुरु बताते रहे हैं. वैसे इस तरह के राजनीतिक गुरु के असल मायने तो मनमोहन से भी बेहतर शायद राहुल गांधी ही जानते होंगे.
लेकिन हर दिन एक समान नहीं होते. बीतते वक्त के साथ हालात भी बदलते गये. धीरे धीरे हालत यहां तक पहुंच गई कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की राह में ही रोड़े खड़े होने लगे. कैप्टन अमरिंदर सिंह से लेकर शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित तक राहुल के नेतृत्व पर सरेआम सवाल उठाने लगे. कैप्टन तो इस कदर दबाव बनाए कि राहुल के पसंदीदा पंजाब कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा को हटा कर कमान उन्हें ही सौंपनी पड़ी.
हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी विरोध का तकरीबन यही हाल है.
हालांकि, पीडीपी नेता कहते हैं कि महबूबा सरकार के गठन के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन वह बेवजह परेशानी मोल लेना नहीं चाहतीं. ऐसे नेताओं की मानें तो, महबूबा को लगता है, मुफ्ती मोहम्मद सईद के 10 महीने के कार्यकाल में उनके सपने पर विचार नहीं किया गया.
राहुल की राह तो यही बताती है कि सियासत में ऐसे फैसले टालना हमेशा फायदेमंद हों जरूरी नहीं. फैसले टालने के मामले में नरसिम्हा राव अपवाद हैं. वो अपने शासन में फैसले टालने के लिए मशहूर थे. राव के कोई फैसला न करने को भी एक फैसला ही माना जाता रहा. लेकिन ये फॉर्मूला हमेशा लागू नहीं रह सकता.
लोक सभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस का वो हाल कर दिया कि अस्तित्व के लिए भी कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है. बस बिहार के नतीजों के बाद कांग्रेस और राहुल गांधी को जरूर कुछ उम्मीद जगी होगी.
महबूबा के इस रवैये के चलते उनके विरोधी उमर अब्दुल्ला उन्हें लगातार ललकार रहे हैं. उमर अब्दुल्ला का कहना है कि अगर सरकार नहीं बनानी तो फिर से चुनाव कराने पर विचार किया जाए.
महबूबा ये तो अच्छी तरह जानती हैं कि अगर इस वक्त चुनाव हो गये तो उनकी पार्टी की हालत क्या होगी. अगर वाकई बीजेपी से पीडीपी के गठबंधन से नाराज लोग मुफ्ती मोहम्मद सईद के जनाजे में शिरकत से परहेज कर सकते हैं तो जब बात वोट की आएगी तो उनका क्या फैसला होगा, आसानी से समझा जा सकता है.
7 जनवरी को सईद के निधन के बाद से जम्मू कश्मीर में गवर्नर रूल लागू है. जब गवर्नर ने महबूबा से लिखित तौर पर सरकार बनाने को लेकर स्थिति स्पष्ट करने की बात कही तो पार्टी हरकत में आई. उसके बाद से कई दौर की मीटिंग हो चुकी है.
पीडीपी नेता नईम अख्तर इस बारे में बताते हैं, "पार्टी की आंतरिक बैठक के बाद महबूबा मुफ्ती को राज्यपाल से मिलने के लिए कहा गया है. वह राज्यपाल से मिलकर राज्य में सरकार बनाने के मुद्दे पर अपना विचार रखेंगी."
महबूबा क्या फैसला लेती हैं इसका उन्हें पूरा अधिकार है जो फिलहाल पार्टी की ओर से भी मिला हुआ है. बीजेपी भी वेट एंड वॉच की नीति अपनाए हुए है - और अब तक उसने कोई नया पत्ता नहीं खोला है.
महबूबा वक्त की नजाकत को बखूबी समझती हैं. मुमकिन है उसी हिसाब से वो रणनीति भी बना रही हों. लेकिन अगर रास्ता राहुल गांधी वाला है तो बात अलग है. वैसे भी वक्त कभी फैसलों का मोहताज नहीं होता, व्यक्ति को फैसले वक्त के हिसाब से लेने पड़ते हैं.
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