जिस तरह तेजस्वी यादव की चर्चा हो रही है, राहुल गांधी की शायद ही वैसी चर्चा हुई हो. चर्चा तो राहुल की भी खूब होती है, लेकिन बिलकुल अलग मोड में.
क्या ऐसा इसलिए है कि राहुल को बहुत पहले 'पीएम मैटीरियल' मान लिया गया - और तेजस्वी को लेकर किसी ने अभी ठीक से सोचा भी नहीं था.
विरासत और नेतृत्व क्षमता
बात सही है. राजनीतिक हालात के हिसाब से देखें तो राहुल और तेजस्वी में आधारभूत फर्क है. राहुल जब चाहते प्रधानमंत्री बन सकते थे - जब तब वो ये बात कहा भी करते थे - और बीच बीच में प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह उठ उठ कर कुर्सी भी ऑफर करते रहते थे.
तेजस्वी की अपनी सीमाएं थीं. तेजस्वी बिहार में डिप्टी सीएम से ज्यादा बन नहीं सकते थे.
विरासत के मामले में दोनों की स्थिति एक जैसी ही रही. तेजस्वी ने तो आगे बढ़ कर संभाल लिया लेकिन राहुल अब भी (अपनी पार्टी में) डिप्टी की ही भूमिका में हैं.
तेजस्वी के मामले में किसी ने चूं तक नहीं किया, यहां तक कि अब्दुल बारी सिद्दीकी ने भी चुपचाप सरकार में नंबर तीन की पोजीशन कबूल कर ली. राहुल के नेतृत्व पर तो कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता खुले तौर पर आपत्ति जता चुके हैं. हां, बिहार के बाद कुछ के स्वर बदल गए हैं, जिसकी वजह चुनाव की नजदीकी तारीखें भी हो सकती हैं.
राहुल सिस्टम बदलने के लिए सरकार से बाहर रह कर संघर्ष कर रहे हैं. तेजस्वी सरकार का हिस्सा बन कर सिस्टम और पार्टी दोनों में बदलाव की बात करने लगे हैं.
सियासत का सबक
वक्त बदलता रहा - हालात तकरीबन वही रहे. राहुल को भी सीखने का वैसा ही मौका मिला जैसा इंदिरा गांधी या राजीव गांधी को मिला था - बल्कि, राहुल को एक्सपेरिमेंट का ज्यादा ही मौका मिला. राहुल ने एक्सपेरिमेंट भी खूब किए. दलितों के घर खाना खाने से लेकर भट्टा पारसौल की मोटर साइकिल यात्रा तक. छुट्टी लेकर मंथन से लेकर आस्टेन कांफ्रेंस तक. एक्सपेरिमेंट अब भी जारी है.
अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव से जो सियासी सबक सीखे...
जिस तरह तेजस्वी यादव की चर्चा हो रही है, राहुल गांधी की शायद ही वैसी चर्चा हुई हो. चर्चा तो राहुल की भी खूब होती है, लेकिन बिलकुल अलग मोड में.
क्या ऐसा इसलिए है कि राहुल को बहुत पहले 'पीएम मैटीरियल' मान लिया गया - और तेजस्वी को लेकर किसी ने अभी ठीक से सोचा भी नहीं था.
विरासत और नेतृत्व क्षमता
बात सही है. राजनीतिक हालात के हिसाब से देखें तो राहुल और तेजस्वी में आधारभूत फर्क है. राहुल जब चाहते प्रधानमंत्री बन सकते थे - जब तब वो ये बात कहा भी करते थे - और बीच बीच में प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह उठ उठ कर कुर्सी भी ऑफर करते रहते थे.
तेजस्वी की अपनी सीमाएं थीं. तेजस्वी बिहार में डिप्टी सीएम से ज्यादा बन नहीं सकते थे.
विरासत के मामले में दोनों की स्थिति एक जैसी ही रही. तेजस्वी ने तो आगे बढ़ कर संभाल लिया लेकिन राहुल अब भी (अपनी पार्टी में) डिप्टी की ही भूमिका में हैं.
तेजस्वी के मामले में किसी ने चूं तक नहीं किया, यहां तक कि अब्दुल बारी सिद्दीकी ने भी चुपचाप सरकार में नंबर तीन की पोजीशन कबूल कर ली. राहुल के नेतृत्व पर तो कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता खुले तौर पर आपत्ति जता चुके हैं. हां, बिहार के बाद कुछ के स्वर बदल गए हैं, जिसकी वजह चुनाव की नजदीकी तारीखें भी हो सकती हैं.
राहुल सिस्टम बदलने के लिए सरकार से बाहर रह कर संघर्ष कर रहे हैं. तेजस्वी सरकार का हिस्सा बन कर सिस्टम और पार्टी दोनों में बदलाव की बात करने लगे हैं.
सियासत का सबक
वक्त बदलता रहा - हालात तकरीबन वही रहे. राहुल को भी सीखने का वैसा ही मौका मिला जैसा इंदिरा गांधी या राजीव गांधी को मिला था - बल्कि, राहुल को एक्सपेरिमेंट का ज्यादा ही मौका मिला. राहुल ने एक्सपेरिमेंट भी खूब किए. दलितों के घर खाना खाने से लेकर भट्टा पारसौल की मोटर साइकिल यात्रा तक. छुट्टी लेकर मंथन से लेकर आस्टेन कांफ्रेंस तक. एक्सपेरिमेंट अब भी जारी है.
अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव से जो सियासी सबक सीखे वो सामने है. जगन मोहन ने वाईएसआर राजशेखर रेड्डी से जो कुछ सीखा वो भी सबके सामने है.
जहां तक तेजस्वी की बात है, वो उम्र में अपने समकालीनों से काफी छोटे हैं. अव्वल तो उन्होंने जिम्मेदारी भी संभाल ली है - और सीखने के लिए लंबा समय शेष है.
लालू ने एक पिता की तरह अपनी भूमिका का पूरा निर्वाह किया है. अपनी व्यावसायिक विरासत उन्होंने धीरे धीरे हैंडओवर करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. हालांकि, अब तक तेजस्वी ने न तो पढ़ाई ठीक से की है और न ही क्रिकेट ही खेला है.
तेजस्वी का घर हॉर्वर्ड जैसा है तो दफ्तर ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज की तरह. घर में लालू जैसा उच्च कोटि का गुरु और राबड़ी जैसी अनुभवी टीचर हैं तो दफ्तर में नीतीश कुमार जैसा राजनीतिक का उम्दा प्रोफेसर.
अब तेजस्वी लालू वाली राजनीति सीखते हैं या नीतीश का सुशासन - फैसला उन्हीं को करना है.
राहुल का बीता कल और तेजस्वी का आज - दोनों की अपनी अपनी ऊंचाइयां हैं. फिलहाल दोनों अपने अपने रास्ते आने वाले कल की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसे मौके कितनों को मिलते हैं? मिलते भी हैं तो उसका दायरा काफी सीमित होता है - और सीमाओं को कम ही लोग लांघ पाते हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.