इजराइल और फिलिस्तीनी गुट हमास के बीच युद्ध विराम को लेकर सहमति बन गई है जिसका आधिकारिक ऐलान भी अगले कुछ घंटों में हो जाएगा, इन दोनों के बीच 11 दिनों के भीषण संघर्ष ने कई चीज़ों को आईने की तरह साफ़ करके रख दिया है और आगे क्या होगा इसकी भी हल्की सी झलक ज़रूर दिखला दी है. इस पूरे प्रकरण ने कई देशों के चेहरों पर से नक़ाब भी उतार दिया है और कुछ देशों की झूठी ताकत और उनकी बहादुरी की पोल पट्टी भी खोलकर रख दी है. इस लंबे संघर्ष से कुछ बातेँ जो साफ़ हुई है उसका एक छोटा सा विश्लेषण ज़रूर करना चाहता हूं. एक एक करके इस युद्ध से जुड़े हुए अहम समुह अहम गुट और अहम देशों की बात करना चाहता हूं और आगे की स्थिति पर चर्चा करना चाहता हूं.
इजराइल
सबसे पहले बात इजराइल की इसलिए करनी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा देश है जो बहुत ही छोटा सा है लेकिन बड़े-बड़े ताकतवर देश भी उसका नाम लेने में खौफ खाते हैं. आसपास दुश्मनों से ही घिरे रहने के बावजूद यह देश दुनिया के सबसे सुरक्षित देशों में गिना जाता है. साथ ही इजराइल की अर्थव्यवस्था भी इतनी मजबूत है कि दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां इजराइल में निवेश को लगातार बढ़ावा देती जा रही हैं.
मौजूदा संघर्ष में इजराइल की ताकत ने ही उसको सबसे बड़ी मजबूती प्रदान की है, तमाम मुस्लिम देश इजराइल के खिलाफ सख्त तेवर ज़रूर अपनाए हुए थे लेकिन इजराइल की ताकत और उसकी दिन-बदिन अंतराष्ट्रीय मार्केट में हावी होने के चलते सभी देश धाराशाई हो गए. इजराइल की रणनीति के चलते ही कोई भी देश सामने आकर हमास की ओर से लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाया है.
इस संघर्ष से एक बात जो इजराइल के लिए साफ हुई है वह यह है कि अब इजराइल के साथ एक...
इजराइल और फिलिस्तीनी गुट हमास के बीच युद्ध विराम को लेकर सहमति बन गई है जिसका आधिकारिक ऐलान भी अगले कुछ घंटों में हो जाएगा, इन दोनों के बीच 11 दिनों के भीषण संघर्ष ने कई चीज़ों को आईने की तरह साफ़ करके रख दिया है और आगे क्या होगा इसकी भी हल्की सी झलक ज़रूर दिखला दी है. इस पूरे प्रकरण ने कई देशों के चेहरों पर से नक़ाब भी उतार दिया है और कुछ देशों की झूठी ताकत और उनकी बहादुरी की पोल पट्टी भी खोलकर रख दी है. इस लंबे संघर्ष से कुछ बातेँ जो साफ़ हुई है उसका एक छोटा सा विश्लेषण ज़रूर करना चाहता हूं. एक एक करके इस युद्ध से जुड़े हुए अहम समुह अहम गुट और अहम देशों की बात करना चाहता हूं और आगे की स्थिति पर चर्चा करना चाहता हूं.
इजराइल
सबसे पहले बात इजराइल की इसलिए करनी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा देश है जो बहुत ही छोटा सा है लेकिन बड़े-बड़े ताकतवर देश भी उसका नाम लेने में खौफ खाते हैं. आसपास दुश्मनों से ही घिरे रहने के बावजूद यह देश दुनिया के सबसे सुरक्षित देशों में गिना जाता है. साथ ही इजराइल की अर्थव्यवस्था भी इतनी मजबूत है कि दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां इजराइल में निवेश को लगातार बढ़ावा देती जा रही हैं.
मौजूदा संघर्ष में इजराइल की ताकत ने ही उसको सबसे बड़ी मजबूती प्रदान की है, तमाम मुस्लिम देश इजराइल के खिलाफ सख्त तेवर ज़रूर अपनाए हुए थे लेकिन इजराइल की ताकत और उसकी दिन-बदिन अंतराष्ट्रीय मार्केट में हावी होने के चलते सभी देश धाराशाई हो गए. इजराइल की रणनीति के चलते ही कोई भी देश सामने आकर हमास की ओर से लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाया है.
इस संघर्ष से एक बात जो इजराइल के लिए साफ हुई है वह यह है कि अब इजराइल के साथ एक बड़ा तबका खड़ा हुआ है, 25 देशों ने उसे खुला समर्थन दिया है वह भी तब जब वह गाज़ा पट्टी में खुला हवाई हमला कर रहा था. यह समर्थन इजराइल को सुकून देने के लिए काफी है.
फिलिस्तीन
एक ऐसा देश जिसका हाल अंग्रेजो ने उसी तरह किया जैसा हाल अंग्रेजो ने भारत और पाकिस्तान का किया है. एक ऐसा बंटवारा जो हमेशा के लिए नासूर बना हुआ है. फिलिस्तीन जिसे 48 फीसदी ज़मीन पर शासन करने की अनुमति दी गई थी और 44 फीसदी पर इजराइल देश की बुनियाद रखी गई थी. यह बंटवारा होने के बाद से ही फिलिस्तीन अपना पूरा कब्ज़ा वापिस पाने की चाह में लगा हुआ था तो दूसरी ओर इजराइल भी अपने अस्तित्व की जंग लड़ने को तैयार था.
जंग हुई और हर बार फिलिस्तीन को अपनी ज़मीन खोनी पड़ी. आज फिलिस्तीन 12 प्रतिशत ज़मीन पर ही शासन कर रहा है. एक ओर इजराइल दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है और लगातार अपनी ताकत बढ़ा रहा है तो फिलिस्तीन अभी भी अपनी अर्थव्यवस्था और ताकत बढ़ाने के बजाय अपना कब्जा वापिस पाने की होड़ में ही लगा हुआ है जोकि उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी बन चुकी है.
ताजा संघर्ष में फिलिस्तीन वजह तो ज़रूर था लेकिन फिलिस्तीन का इस संघर्ष से कोई लेना देना नहीं था. क्योंकि फिलिस्तीन का पूरा शासन वेस्ट बैंक तक ही सीमित है जबकि गाज़ा पट्टी पर कब्ज़ा हमास का है जोकि इस संघर्ष का अहम पहलू था. फिलिस्तीन जब तक अपनी ताकत बढ़ाने पर काम नहीं करेगा तब तक उसे ऐसे ही अपनी ज़मीन और अपने नागरिकों का नुकसान उठाना ही पड़ेगा.
हमास
एक ऐसा गुट जो किसी के लिए सुपरहीरो की जगह रखता है तो किसी के लिए आतंक का गिरोह. फिलिस्तीन की लड़ाई को हमास ने अपने कांधे पर उठाने का कार्य बखूबी कर लिया है. फिलिस्तीन की सरकार और हमास के बीच मनभेद लगातार सामने आते रहते हैं दोनों की लड़ाई और दुश्मन तो एक ही हैं लेकिन लड़ाई लड़ने का तरीका अलग अलग है.
हमास लगातार अपनी ताकत बढ़ाने पर ज़ोर देता रहता है वह ताकत हथियारों का ज़खीरा जमा करने के रूप में हो या फिर राजनीति के क्षेत्र में. हमास ने ताजा संघर्ष के दौरान जिस तरह से राकेट इजराइल पर बरसाए हैं वह हमास को एक नई पहचान देने के लिए काफी है.
युद्ध विराम के बाद हमास भविष्य में और मजबूत होने की दिशा में काम करेगा यह भी तय है.
अमेरिका
एक ऐसा देश जिसकी भूमिका इस संघर्ष में सबसे ज़्यादा रही है. संघर्ष के शुरू होते ही अमेरिका ने इजराइल को समर्थन दे दिया, साथ ही हथियारों को लेकर एक बड़ा सौदा कर लिया. अमेरिका ने इजराइल को समर्थन ज़रूर दिया लेकिन अमेरिका नहीं चाह रहा था कि यह संघर्ष एक भीषड़ युद्ध में तब्दील हो जाए. अमेरिका अंदरूनी तौर पर युद्ध-विराम पर लगातार कोशिशें करता रहा और आखिर में सऊदी अरब के सहारे इजिप्ट और इजिप्ट के सहारे हमास से बातचीत की और खुद इजराइल को भरोसे में लेकर सीजफायर के लिए दोनों ही पक्षों को तैयार किया.
अमेरिका ने इसके ज़रिए अपनी स्थिति भी साफ कर दी है कि वह इजराइल के तो साथ है मगर खाड़ी के अन्य देशों से रिश्ते खराब न हो जाएं इसलिए वह युद्ध किसी भी कीमत पर नहीं चाहता है. खाड़ी के देश अमेरिका के लिए बहुत अहम हैं. वह खाड़ी के देशों के सहारे ही ईरान को घेरने का कार्य करता है.
अगर इजराइल और हमास के बीच जारी संघर्ष युद्ध में तब्दील हो जाता तो खाड़ी के देश अमेरिका से दिखावटी ही सही मगर दूरी ज़रूर बना लेते. यह स्थिति ही अमेरिका को सीज-फायर के लिए सबसे ज़्यादा मजबूर कर रही थी.
सऊदी अरब
खाड़ी और मुस्लिम देशों का रहनुमा सऊदी अरब जोकि आर्गनाइजेशन आफ़ इस्लामिक कोआपरेशन (OIC) की नुमाइंदगी भी करता है. इस पूरे संघर्ष के दौरान हर किसी की नज़र सऊदी अरब पर टिकी हुई थी. सऊदी अरब से लोगों को काफी उम्मीद थी खासतौर पर उन्हें जो फिलिस्तीन और हमास के समर्थन में थे लेकिन सऊदी अरब ने अपनी आदत के अनुसार इस मुद्दे पर भी महज रस्मअदायगी ही करना बेहतर समझा.
ये बात बिल्कुल साफ है कि इजराइल से सऊद अरब के रिश्ते हमेशा से अंदरूनी तौर पर ही रहे हैं, सऊदी अरब कभी भी खुलकर इजराइल के साथ नहीं होता है लेकिन दोनों के बीच अच्छे संबंध बने रहते हैं. अभी हाल ही में इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने सऊदी अरब का गुप्त दौरा किया था जिसे छिपाकर भी रखा गया है लेकिन कुछ अंदरूनी रिपोर्टों ने इस दौरे को सार्वजनिक भी किया है.
किसी राष्ट्राध्यक्ष का देश में दौरा ही बताने के लिए काफी है कि दोनों देशों के बीच रिश्ते कैसे हैं. हालिया संघर्ष में सऊदी अरब ने महज फिलिस्तीन के पक्ष में बयान ही दिया है और किसी भी तरह का कोई आक्रमण रुख नहीं अपनाया, वह अमेरिका के साथ संघर्ष विराम को लेकर ही प्रयासरत था क्योंकि सऊदी अरब यह बात अच्छी तरह से जानता है कि इजराइल और फिलिस्तीन के युद्ध में उसे अमेरिका के खिलाफ भी खड़ा होना पड़ेगा जोकि उनके सुरक्षा का बंदोबस्त करता है.
सऊदी अरब का राजशाही परिवार किसी भी कीमत पर अपनी सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं करता है.
तुर्की और पाकिस्तान
इन दोनों देशों का हाल लगभग एक सा है. दोनों ही देशों की दिली तमन्ना है कि वह मुस्लिम देशों की रहनुमाई करें, पाकिस्तान जोकि खुद सऊदी अरब और अमेरिका जैसे देशों का कर्जदार है तो वह कभी भी यह गुस्ताखी नहीं करेगा कि वह अमेरिका या सऊदी अरब के खिलाफ खड़ा होगा, हां पाकिस्तान के फिलिस्तीन के पक्ष में बयानबाजी करने से न तो अमेरिका का कोई नुकसान है और न ही सऊदी अरब की मुस्लिम देशों की नुमाइंदगी पर कोई खास फर्क पड़ता है.
इसलिए पाकिस्तान का बोलना या न बोलना यहां पर बराबर था. बात तुर्की की करें तो उसका कोई खास प्रभाव ज़रूर पड़ सकता था. तुर्की के राष्ट्रपति ने पूरे गुस्से के साथ बयान दिया जोकि महज दिखावा था. तुर्की और इजराइल का संबंध बरसों पुराना है. इजराइल के साथ तुर्की का व्यापारिक रिश्ता है इसलिए तुर्की को इस पूरे मसले पर सिर्फ बयानबाजी कर खानापूर्ति करना था जोकि उसने बेहतरीन ढ़ंग से किया है.
तुर्की अगर वाकई फिलिस्तीन के सपोर्ट में खड़ा होता तो सीधे तौर पर वह फिलिस्तीन की सीमा को छूने वाले देश मिस्र, जार्डन, लेबनान जैसे देशों को भरोसे में लेकर सैन्य ताकत पहुंचाता या फिर अमेरिका की तरह खुलकर मैदान में आऩे का ऐलान कर देता. लेकिन तुर्की ने भी फिलिस्तीन के साथ खड़े होने का बस ढ़ोंग ही रचा था.
ईरान
इस संघर्ष में हमास का सबसे भरोसेमंद साथी ईरान रहा है जिसने खुले तौर पर हमास को पहले दिन से न सिर्फ समर्थन दे रखा है बल्कि समर्थन का ऐलान भी किया है. हमास के कई नेताओं ने ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह खामेनाई को पत्र भी लिखा और ईरान के कमांडर ने कई बार फिलिस्तीन की ओर से बयान भी जारी किया है.
ईरान का सऊदी अरब से दुश्मनी का रिश्ता है जिसके चलते ईरान के साथ खड़े होने के लिए अन्य मुस्लिम देश घबराते हैं, ईरान हथियारों के ज़खीरे से लेकर रणनीति को बनाने और उसको अमल में लाने के लिए पूरी ताकत झोंक देता है. ईरान का चूंकि अमेरिका और इजराइल दोनों से छत्तीस का आंकड़ा रहता है तो ईरान बिना किसी फिक्र और बिना किसी दबाव के खुलकर फिलिस्तीन का समर्थन करता है.
जबकि कोई भी अन्य मुस्लिम देश अमेरिका या इजराइल का खुला विरोध करने से हिचकिचाते हैं. हालिया संघर्ष में ईरान ने हमास की मदद की है इसमें कोई भी शक नहीं है. हमास के पास हथियारों का ज़खीरा है तो उसे इन राकेट का ज़खीरा बनाने और तमाम स्ट्रैटजी को बनाकर अमल में लाने की सलाह भी उसे ईरान से मिली है. ईरान खुले तौर पर फिलिस्तीन का समर्थन करता है और वह हमेशा फिलिस्तीन के साथ ही खड़ा रहेगा.
मिस्र, लेबनान, जार्डन
ये तीनों देश इजराइल और फिलिस्तीन के पड़ोसी देश हैं. ये देश इजराइल के मुकाबले काफी कमजोर देश हैं. ये इजराइल से सीधी लड़ाई लड़ने की क्षमता नहीं रखते हैं. खाड़ी के अन्य देशों का साथ मिलता तो ये अपनी ज़मीन इस्तेमाल करने की इजाज़त ज़रूर दे सकते थे लेकिन ये खुद किसी भी तरह की लड़ाई लड़ने में सक्षम नहीं हैं.
यही वजह है कि न तो इन देशों से कोई खास बयान जारी हुआ न ही इन्होंने किसी भी तरह का कोई एक्शन लिया क्योंकि यह अच्छी तरह से जानते थे कि इजराइल इनपर जवाबी हमला करने में ज़रा सा भी देर नहीं करेगा. हाल का संघर्ष हो या फिर आगे की कोई लड़ाई इन देशों का हाल यही रह जाने वाला है.
इस्लामी सहयोग संगठन (OIC)
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इसकी बुनियाद ही इजराइल का खात्मा और फिलिस्तीन को पूरी ज़मीन दिलाने के नाम पर पड़ी थी. इसमें वर्तमान में 57 इस्लामिक देश शामिल हैं. आपको मालूम भी चला रहा होगा कि ओआईसी (OIC) की बैठक हुई है इजराइल और हमास के बीच जारी तनातनी को लेकर, इसी बैठक में पाकिस्तान से लेकर तुर्की तक ने चीखपुकार मचाई थी, सऊदी अरब ने गुस्सा दिखलाया था.
सबकुछ इसी बैठक का किस्सा बनकर रह गया, इजराइल को सबक सिखाने के नाम पर बैठक करने आए इस्लामिक देश आपस में ही भिड़कर रह गए. वजह सबका अपना अपना व्यापारिक सौदा था. बैठक में मौजूद कई देशों के इजराइल से समझौते थे कई के इजराइल से व्यापार थे. आखिरकार नतीजा यही हुआ कि बैठक का कोई खास मतलब नहीं निकला और ये बस खानापूर्ति बनकर रह गया.
इससे एक बात तो साफ हो चली है कि कुछ इजराइल और फिलिस्तीन की जंग अब सिर्फ इजराइल और फिलीस्तीन के बीच की बनकर रह गई है बाकि देशों का बस अंदर से समर्थन या बाहर से गुस्से का लहजा ही दिखेगा. जिस देश के जिस तरह के रिश्ते होंगे वह उसी तरह का समर्थन हासिल कर सकेगा. बाकी जंग कुछ लम्हे के लिए ज़रूर टल गई है जोकि बेहद सुकून देने वाली बात है.
लेकिन यह शांति बहुत अधिक समय तक बनी रहने वाली नहीं है ये भी सब ही जानते हैं क्योंकि न तो इजराइल नया ज़मीन पर कब्जा करना बंद करने वाला है और न ही फिलिस्तीन अपना 48 फीसदी जमीन को भुला देने वाला है. इसका कोई हल भी हाल-फिलहाल निकलने का कोई अंदेशा नहीं है. तो फिर कहिए कि युद्ध टल ज़रूर गया है लेकिन युद्ध खत्म नहीं हो गया है ये युद्ध कभी भी किसी भी वक्त दुबारा छिड़ सकता है उसके लिए फिर मौका-महल या फिर वजह तलाशने की कोई ज़रूरत नहीं है.
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