1940 के दशक के बीच में अचानक हंगारी, पोलैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रिया के यहूदियों ने पाया था कि वे एक कतार में खड़े हैं और कतार खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है.
यहूदियों के घरों में ‘गेस्टापो’ के जवान घुस जाते और कहते, ‘बाहर निकलकर कतार में खड़े हो जाओ!’ सड़क पर चलती बसों को रोक दिया जाता और कहा जाता कि ‘यहूदी मुसाफfर बाहर निकलकर कतार में खड़े हो जाएं!’ ‘ऑश्विात्ज़ बिर्केनाऊ’ में घुसते ही इन यहूदियों से कहा जाता ‘कतार में लग जाओ.’ महिला इधर, पुरुष उधर, बूढ़े इधर, जवान उधर. कमजोर इधर, मज़बूत इधर. दूसरी श्रेणी के यहूदियों को ईंटें ढोने के काम में लगाया जाए और पहली श्रेणी के यहूदियों को ईंटों से बनी भट्टियों में मरने के लिए भेज दिया जाता. ताद्युश बोरोव्स्की की तो किताब ही है ना ‘गैस चेम्बर के लिए इस तरफ, मेरे प्यारे यहूदी भाइयों और बहनो!’
1940, कतारों में खड़े यहूदी
ऑस्कर शिंडलर की फेहरिस्त बहुत मशहूर है. 1940 के दशक के बीचोबीच यूरोप में एक ऐसा वक़्त आ गया था, जब यहूदी हमेशा अपने को इन कतारों और फेहरिस्तों में पाते थे, हाज़िरी भरते हुए- ‘इत्ज़ाक श्टेर्न, येस्स सर.’ ‘हेलेन हेर्श, येस्स सर.’ ‘लियो रोज़्नर, येस्स सर.’ ‘पोल्डेक पेफ़ेरबर्ग, हियर आएम सर!’ और तब, एक दिन यहूदियों ने पूछा- क्या ये कतार और फेहरिस्त ही हमारा वतन है? ये जो लोग आज हम पर थूक रहे हैं, क्या ये ही हमारे हमवतन हैं? जंग शुरू होने से पहले यूरोप में 1.7 करोड़ यहूदी थे. जंग में 60 लाख यहूदियों को विधिपूर्वक मार दिया गया. जो बचे, वे अब और ‘होलोकॉस्ट’ नहीं चाहते थे. यहूदियों ने एक स्वर में पूछा, ‘हमारा वतन कहां है?’
यहूदियों को कतार में खड़ा करके नाजी के सैनिकों द्वारा गोली मार दी गई
‘इंजील’ की आयतों में से जवाब गूंजा- ‘दान और बीरशेवा के बीच, हमाथ के प्रवेशद्वार से लेकर ईजिप्त की नदी तक, जिसके पड़ोस में वो सिनाई का पहाड़ है, जहां पर हज़रत मूसा ने दस उपदेश दिए थे, यरूशलम जिसकी राजधानी है, वही इजरायल की धरती!’ और थके-हारे, टूटे-झुके, मरे-कटे, अपमानित-अवमानित यहूदी अपना-अपना ‘पीला सितारा’ पहनकर उस ‘प्रॉमिस्ड लैंड’ की ओर चल पड़े, जो उनकी धरती थी. जिस धरती को त्यागकर वे दुनिया में फैल गए थे, इस उम्मीद में कि शायद यह दुनिया हर इंसान के लिए एक जैसी है. वह उम्मीद टूटी. वे लौटकर घर चले आए. लेकिन तब तक, उनके घरों पर कोई और काबिज़ हो चुका था!
यहूदियों से इस्लाम का रिश्ता
फलस्तीन और इजरायल के बीच सन् 1948 से ही जारी संघर्ष को कई पहलुओं से देखा जा सकता है. इनमें सबसे अहम है यहूदियों से इस्लाम का रिश्ता. इस्लाम से यहूदियों का खास ताल्लुक रहा है. ईसाइयों से भी रहा है. इस्लाम और ईसाइयत वास्तव में यहूदियों की दो संतानें हैं. हजरत इब्राहिम इन तीनों के आदिपुरुष हैं. ये तीनों एकेश्वरवादी हैं. ये तीनों किसी एक मसीहा में यकीन रखते हैं. इन तीनों का विकास भले ही अलग-अलग तरह से हुआ हो, लेकिन इनका मूल समान है, और वह एक यहूदी मूल है.
एक चुटकुला है कि 1940 के दशक में जर्मन फौजें एक गिरजाघर में घुस गईं, बंदूकें तान दीं और कहा- ‘जितने भी यहूदी हैं, सभी एक-एक कर बाहर आ जाएं.’ सभी यहूदी बाहर आ गए. अब नाज़ियों ने पूछा- ‘कोई और है, जो भीतर रह गया हो?’ अब जीज़ज़ क्राइस्ट खुद सलीब से उतरे और बाहर आकर खड़े हो गए. बिकॉज़, गॉडडैमिट, जीज़ज़ हिमसेल्फ़ वॉज़ अ ज्यू! जीज़ज़ ख़ुद यहूदी थे!
सिनाई का पहाड़
ईजिप्त में जहां यहूदियों का पवित्र ‘सिनाई का पहाड़’ मौजूद है, वह तकरीबन वही इलाका है, जिसे इस्लाम में ‘लेवेंट’ कहा जाता है. जो ‘इस्लामिक कैलिफ़ेट’ का एक अहम हिस्सा माना जाता रहा है. यहूदियों की पवित्र नगरी यरूशलम में जो ‘अल-अक़्सा’ मस्जि द है, मुसलमान पहले उसकी तरफ मुंह करके नमाज़ पढ़ा करते थे. अब वे ‘क़ाबा’ की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं. बहुधा ऐसा भी होता है कि जब वे क़ाबा की ओर मुंह करते हैं तो उनकी पीठ यरूशलम की तरफ होती है. बात वही है, जब आपने पहले को छोड़कर दूसरा ले लिया, तो पहले पर हक कहां से जताएंगे? बात वही हिंदुस्तान और पाकिस्तान वाली है.
पाकिस्तान से याद आया, सलमान रूश्दी अकसर यह लतीफ़ा सुनाया करते हैं कि अमरीका में जब भी वे पाकिस्तान का नाम लेते हैं तो उनसे प्रत्युत्तर में पूछा जाता है- ‘यू मीन पैकेस्टाइन?’ पैलेस्टाइन और पाकिस्तान, ये सभी एक ही हैं, एक ही राष्ट्रीयता है. मज़हबी नेशनलिज़्म!
आज अरब मुल्कों में जहां-तहां ‘इत्बा अल यहूद’ (यहूदियों का क़त्ल कर डालो) का नारा बुलंद होता रहता है. ऐसे में उन मुसलमानों को यह जानकर खुशी होनी चाहिए कि सातवीं सदी में मोहम्मद साहब द्वारा ख़ुद को पैगम्बर घोषित किए जाने से पहले तक मध्यपूर्व के बाशिंदे यहूदियों के साथ मिलजुलकर रहते थे. हालत यह थी कि पांचवीं सदी में दहू नुवास नामक अरब के सुल्तान ने यहूदी धर्म अपना लिया था. यहां तक कि मदीना का शहर भी यहूदियों ने ही बसाया था और पहले इसे ‘यथरीब’ कहा जाता था. और खुद हज़रत मोहम्मद यहूदियों को खुश करने के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे सुअर का मांस ना खाएं, क्योंकि यहूदियों के लिए वह हराम था.
लेकिन इससे बात बनी नहीं. यहूदियों ने मोहम्मद को अपना पैगम्बर कबूल नहीं किया. यहां से यहूदियों के कत्लेआम की शुरुआत हुई. मोहम्मद के वक़्त में यहूदियों के तीन क़ुनबे थे- ‘क़ुरयाज़ा’, ‘नादिर’ और ‘क़यून्क़ा’. इनमें से ‘क़ुरयाज़ा’ क़ुनबे को पूरा का पूरा खत्म कर दिया गया, जबकि ‘क़यून्क़ा’ और ‘नादिर’ को अरब से बाहर खदेड़ दिया गया और नादिरों को ख़ैबर में सिमटकर रहना पड़ा. ये सन् 624 से 628 के बीच का अफ़साना है, जब यहूदी मर्दों के सिर कलम किए जाते थे और उनकी औरतों और बच्चों को मंडियों में बेच दिया जाता था. इनमें से एक औरत ‘रेहाना’ को किसने अपनी ‘रखैल’ बनाकर रखा, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है. केवल ‘रेहाना बिन्त ज़ायद’ को गूगल करके देख लीजिए.
मैं यहां पर ‘क़ुरआन’ और ‘हदीस’ के उन उद्धरणों का विस्तार से उल्लेख कर सकता हूं, जो अपने स्वरूप में भीषण ‘एंटी-सैमेटिक’ हैं और यहूदियों के क़त्लेआम की हिदायत देते हैं. लेकिन मेरा सवाल दीगर है. और वो यह है कि अपने मुल्क से खदेड़े गए, पराए मुल्क़ों में सताए गए यहूदी जब 1948 में इजरायल वापस लौटे, तो कौन-सी मुसीबतें पेश आईं.
इज़रायल की स्थापना के पीछे तीन थ्योरियां हैं-
1) जो व्यक्ति जहां का मूल निवासी हो, उसे वहां पर रहने का अधिकार है.
2) अगर आपको अपनी धरती से बाहर खदेड़ दिया गया हो और कालांतर में लौटने पर आप पाएं कि वहां पर अन्य लोगों ने कब्ज़ा कर लिया है, तब भी उस पर पहला अधिकार आप ही का है.
3) टू-स्टेट थ्योरी और शांतिपूर्व सहअस्तिरत्व, जिसकी हिमायत हिंदुस्तान के संदर्भ में बहुत की जाती है, लेकिन गाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक और इजरायल के संदर्भ में इतनी नहीं.
इन तीन बिंदुओं के भी तीन निहितार्थ हैं-
1) जो लोग आर्यों को विदेशी और दलितों को ‘नेटिव’ बताकर रात-दिन अपना ‘मूल निवासी विमर्श’ चलाते रहते हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या इसी आधार पर यहूदियों को इजरायल में, नोर्स को स्कैंडिनेविया में, रेड इंडियनों को अमरीका में, माओरियों को न्यूज़ीलैंड में, एबोरिजिनल्स को ऑस्ट्रेलिया में, ज़ुलूओं को दक्षिण अफ्रीका में और पंडितों को कश्मीर में फिर से नहीं बसा देना चाहिए?
2) आप जहां रह रहे हैं, वहां पर आपके आगमन के शत्रुतापूर्ण अतीत को अगर भुला देना चाहिए, तो क्या इस तरह से औपनिवेशिकता को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता? आखिर भारत ने अंग्रेजों को उसी तरह से यहां से खदेड़ा था, जैसे यहूदियों ने इजरायल से अरबों को.
3) अगर सांस्कृतिक विविधता और बहुलता एक तर्क है, तो क्यों नहीं फलस्तीनियों और ‘हमास’ को हथियार डालकर यहूदी भाइयों के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए और उनके साथ समायोजन करना चाहिए, बनिस्बत उनके साथ लड़ने के?
मैं इजरायल को एक उम्मीद की तरह देखता हूं. एक परचम की तरह. उसके जैसा जीवट वाला मुल्क कोई दूसरा नहीं है. खून लगे दांतों के बीच जीभ की तरह वह रहता है. चारों तरफ से खूंखार शत्रुओं से घिरा है. हिंदुस्तान अपने ही घर में पैदा हुए शत्रुओं से हार गया और बंटवारे के बावजूद लगातार टूट रहा है. इजरायल उस बुराई की जड़ में बैठा हुआ है और इसके बावजूद हार मानने को तैयार नहीं. और दुनिया में यहूदी लगातार तरक्की कर रहे हैं.
चूंकि इस्लाम ने इजरायल के विरुद्ध ‘इंतेफ़ाद’ नामक जंग छेड़ी हुई है, इसलिए मैं इजरायल को अपना साथी मानता हूं. दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. जब तक इस्लाम वैश्विहक मनुष्यता का शत्रु है, और जब तक वैश्विक बौद्धिसकता इस्लाम के इस सर्वनाशमूलक ‘क्रूसेड’ में उसकी ‘दासी’ की भूमिका निभाती रहेगी, तब तक इजरायल को हमें एक बड़ी उम्मीद की तरह देखना होना.
इजरायल हमारा दोस्त था, है और रहेगा !
ये भी पढ़ें -
मोदी की इजरायल यात्रा और मुसलमान !
मोदी-मोशे मुलाकात और पाकिस्तान का 'डंक' !
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.