जम्मू-कश्मीर की महबूबा मुफ्ती सरकार को गये चार महीने हो रहे हैं. बीजेपी ने पीडीपी गठबंधन तोड़ते हुए महबूबा सरकार से सपोर्ट वापस ले लिया था. उसके बाद सरकार बनाने की पर्दे के पीछे हो रही कोशिशों की भी चर्चा होती रही, लेकिन ये सब खत्म हुआ लगता है.
अब विचार इस बात पर हो रहा है कि लोक सभा के साथ ही जम्मू-कश्मीर विधानसभा के भी चुनाव करा लिये जायें. जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव 2014 में ही हुए थे लेकिन आम चुनाव के छह महीने बाद नवंबर दिसंबर में. अगला चुनाव अब 2020 में होना है क्योंकि वहां विधानसभा का कार्यकाल छह साल का होता है.
जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भी लोक सभा के साथ ही चुनाव कराये जाने की पहल का समर्थन किया है. फिलहाल जम्मू-कश्मीर में गवर्नर रूल ही लागू है.
चुनाव की बात तो बहुत अच्छी है, लेकिन जिस तरीके से अभी अभी निकायों के चुनाव हुए हैं वैसा होने से तो चुनाव न होना ही अच्छा लगता है. चुनाव के नाम पर ताजातरीन जो कुछ हुआ है उसे अगर 'जम्हूरियत का मजाक' बताया जा रहा है तो वो जरा भी गलत नहीं लगता.
अब सरकार नहीं, एक साथ चुनाव की कोशिश
ऐसा लगता है जम्मू और कश्मीर में सरकार बनाने के विकल्प खत्म हो चुके हैं. असल में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में किसी भी पार्टी के पास बहुमत नहीं है - फिलहाल पीडीपी के 28 विधायक, बीजेपी के 25 और नेशनल कांफ्रेंस के 15 विधायक हैं. विधानसभा का कार्यकाल अब भी एक साल से ज्यादा बचा हुआ है.
राज्यपाल सत्यपाल मलिक का ये कहना कि उन्हें नहीं लगता मौजूदा सदन में कोई लोकप्रिय सरकार बन सकती है - ये समझने के लिए काफी है कि पर्दे के पीछे होने वाली सारी कवायद नाकाम हो चुकी है. कुछ दिन पहले ऐसी कोशिशों की चर्चा थी जिसमें बीजेपी और दूसरे दलों...
जम्मू-कश्मीर की महबूबा मुफ्ती सरकार को गये चार महीने हो रहे हैं. बीजेपी ने पीडीपी गठबंधन तोड़ते हुए महबूबा सरकार से सपोर्ट वापस ले लिया था. उसके बाद सरकार बनाने की पर्दे के पीछे हो रही कोशिशों की भी चर्चा होती रही, लेकिन ये सब खत्म हुआ लगता है.
अब विचार इस बात पर हो रहा है कि लोक सभा के साथ ही जम्मू-कश्मीर विधानसभा के भी चुनाव करा लिये जायें. जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव 2014 में ही हुए थे लेकिन आम चुनाव के छह महीने बाद नवंबर दिसंबर में. अगला चुनाव अब 2020 में होना है क्योंकि वहां विधानसभा का कार्यकाल छह साल का होता है.
जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भी लोक सभा के साथ ही चुनाव कराये जाने की पहल का समर्थन किया है. फिलहाल जम्मू-कश्मीर में गवर्नर रूल ही लागू है.
चुनाव की बात तो बहुत अच्छी है, लेकिन जिस तरीके से अभी अभी निकायों के चुनाव हुए हैं वैसा होने से तो चुनाव न होना ही अच्छा लगता है. चुनाव के नाम पर ताजातरीन जो कुछ हुआ है उसे अगर 'जम्हूरियत का मजाक' बताया जा रहा है तो वो जरा भी गलत नहीं लगता.
अब सरकार नहीं, एक साथ चुनाव की कोशिश
ऐसा लगता है जम्मू और कश्मीर में सरकार बनाने के विकल्प खत्म हो चुके हैं. असल में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में किसी भी पार्टी के पास बहुमत नहीं है - फिलहाल पीडीपी के 28 विधायक, बीजेपी के 25 और नेशनल कांफ्रेंस के 15 विधायक हैं. विधानसभा का कार्यकाल अब भी एक साल से ज्यादा बचा हुआ है.
राज्यपाल सत्यपाल मलिक का ये कहना कि उन्हें नहीं लगता मौजूदा सदन में कोई लोकप्रिय सरकार बन सकती है - ये समझने के लिए काफी है कि पर्दे के पीछे होने वाली सारी कवायद नाकाम हो चुकी है. कुछ दिन पहले ऐसी कोशिशों की चर्चा थी जिसमें बीजेपी और दूसरे दलों के कुछ विधायकों के सपोर्ट से सज्जाद गनी लोन की अगुवाई में कोई सरकार बन सकती है. बहरहाल, अब ऐसी चर्चाओं का कोई मतलब नहीं लगता.
न्यूज एजेंसी पीटीआई से एक इंटरव्यू में राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा कि उनकी इच्छा है कि चुनाव जल्द से जल्द कराये जायें. मलिक ने कहा कि वो किसी धांधली का हिस्सा तो बनने से रहे.
सत्यपाल मलिक का कहना रहा, ‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता... कम से कम, मैं किसी भी धांधली का हिस्सा नहीं बनूंगा... मुझे प्रधानमंत्री या किसी अन्य केंद्रीय नेता द्वारा ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया है.’’
इससे ये तो साफ है कि जम्मू कश्मीर में नयी सरकार के बनने का रास्ता चुनाव से होकर ही गुजरता है - और अगर ऐसा कोई प्लान बनता है तो 2019 में आम चुनाव के साथ ऐसी संभावना हो सकती है.
वैसे जम्मू कश्मीर में चुनाव के नाम पर हाल फिलहाल जो हुआ है वैसी पोलिंग से तो चुनाव न होना ही अच्छा लगता है.
ऐसे चुनाव का क्या मतलब?
जम्मू-कश्मीर में 13 साल बाद निकाय चुनाव हुए. जम्मू-कश्मीर में धारा 35A के नाम पर सूबे के दो अहम दलों ने चुनाव का पहले ही बहिष्कार कर दिया. महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कांफ्रेंस के बहिष्कार के बाद चुनाव मैदान में सिर्फ दो पार्टियां बची थीं - बीजेपी और कांग्रेस.
नेशनल कांफ्रेंस के महासचिव अली मोहम्मद सागर ने जब इस चुनाव को 'जम्हूरियत का मजाक' बताया है. जाहिर है नेशनल कांफ्रेंस नेता की ये टिप्पणी सियासी है और चुनाव मैदान से दूर रह कर तो ये और भी अप्रासंगिक लगती है. टिप्पणी में यही तीन शब्द किसी राजनीतिक पर्यवेक्षक के होते तो बिलकुल सटीक माने जाते - क्योंकि उसकी खास वजह है.
जम्मू कश्मीर में हुए निकाय चुनावों में जो नमूने देखने को मिले हैं, शायद ही कभी कहीं और देखने को मिलें. हिज्बुल मुजाहिदीन कमांडर रियाज नायकू ने ने चुनाव में हिस्सा लेने वाले उम्मीदवारों को 'आंखों में तेजाब डालकर अंधा' कर देने की धमकी दे रखी थी. नतीजा ये हुआ कि कहीं उम्मीदवारों ने नामांकन वापस ले लिये तो कहीं पर्चा ही नहीं भरा गया. इन सब के बावजूद जब वोट देने की बारी आयी तो लोग घरों से बाहर ही नहीं निकलने का नाम ले रहे थे - जहां कहीं निकले उनकी तादाद भी नाम मात्र की ही रही.
निकाय चुनाव चार चरणों में हुए. वोटिंग के पहले दिन 8 अक्तूबर कुल 84,000 मतदाताओं में से सिर्फ 8.2 फीसदी ही बूथों तक पहुंच पाये. गौर करने वाली बात ये है कि पूरे चुनाव में सबसे ज्यादा डाले गये वोट यही थे. 10 अक्टूबर को हुए दूसरे चरण में 3.3 फीसदी, 13 अक्टूबर के तीसरे चरण में 3.49 फीसदी और 16 अक्टूबर के चौथे चरण में 4 फीसदी वोट डाले गये.
दो सौ से ज्यादा वार्डों में वोटिंग की नौबत ही नहीं आ पायी क्योंकि वहां सिर्फ एक-एक उम्मीदवार ने ही पर्चा भरा था - जिसने भरा उसे तो निर्विरोध होना ही था. होने को तो पश्चिम बंगाल चुनाव में भी ऐसे ही चुनाव हुआ था. वहां भी दहशत का ही आलम बताया गया - और मारकाट की आशंका से काफी संख्या में निर्विरोध उम्मीदवार विजयी घोषित कर दिये गये.
सबसे ज्यादा हैरान करने वाली एक खबर बारामूला से आयी. मालूम हुआ कि महज एक वोट पाकर बीजेपी उम्मीदवार चुनाव जीत गया. दिलचस्प बात ये रही कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार भी वोट डालने बूथ तक नहीं पहुंचे.
श्रीनगर सीट से फारूक अब्दुल्ला चुनाव जीत कर पिछले साल लोक सभा पहुंचे. पता है उस चुनाव में कितने वोट पड़े - 7.14 फीसदी. अनंतनाग की सीट अब तक खाली है जहां श्रीनगर के साथ ही चुनाव होने थे लेकिन आखिरी दौर में चुनाव आयोग को रद्द करना पड़ा.
अगर चुनाव का मॉडल श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव और जम्मू कश्मीर निकाय चुनाव ही है - तो अनंतनाग को अब तक खाली रखने का क्या मतलब है?
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