जम्मू कश्मीर में 30 साल बाद एक बार फिर राजनीतिक दलों की जमीन तंग हो रही है. जम्मू कश्मीर में पीडीपी भाजपा की गठबंधन सरकार टूटने के बाद राज्यपाल शासन की शुरुआत हुई. जम्मू कश्मीर के राज्यपाल के लिए सबसे बड़ी चुनौती जम्मू कश्मीर के हालात को बेहतर करना और 2016 से ठप्प पड़ी चुनावी प्रक्रिया के लिए माहौल तैयार करना था. लेकिन जिस अंदाज से कश्मीर में हालात सुधरने की बजाए बिगड़ रहे हैं उसने चुनावी प्रक्रिया पर एक तरह का विराम ही लगाया है.
1987 में जब जम्मू कश्मीर में कुछ इसी तरह के हालात बने थे तब कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की साझा सरकार में फारूक अब्दुल्ला प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने 1987 में जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के शुरुआत में ही श्रीनगर के गांव कदम इलाके में हुए नरसंघार के बाद मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर जम्मू कश्मीर में ऐसे ही हालत खड़े किए थे. तब जम्मू कश्मीर में लंबे दौर तक राष्ट्रपति शासन रहा और करीब 9 साल के लिए जम्मू कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक दल नेशनल कांफ्रेंस ने अपनी पार्टी को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखा. तब 1996 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने फारूक अब्दुल्ला के साथ बातचीत की और कई आश्वासन देते हुए उन्हें चुनावी प्रक्रिया में लाए, और 1996 में वह एक बार फिर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने.
इस बार जिस अंदाज से जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पहले पंचायत चुनाव से दूर रहने का फैसला किया है, उनके इस ऐलान के बाद कुछ इसी तरह के संकेत पीड़ीपी ने दिए. इससे साफ जाहिर होता है कि जम्मू कश्मीर में कुछ ऐसे ही हालात दोबारा उभरने लगे हैं, जो 30 साल पहले जम्मू कश्मीर में थे. गौरतलब है जम्मू कश्मीर में अनंतनाग की लोकसभा सीट के लिए 2016 से ही...
जम्मू कश्मीर में 30 साल बाद एक बार फिर राजनीतिक दलों की जमीन तंग हो रही है. जम्मू कश्मीर में पीडीपी भाजपा की गठबंधन सरकार टूटने के बाद राज्यपाल शासन की शुरुआत हुई. जम्मू कश्मीर के राज्यपाल के लिए सबसे बड़ी चुनौती जम्मू कश्मीर के हालात को बेहतर करना और 2016 से ठप्प पड़ी चुनावी प्रक्रिया के लिए माहौल तैयार करना था. लेकिन जिस अंदाज से कश्मीर में हालात सुधरने की बजाए बिगड़ रहे हैं उसने चुनावी प्रक्रिया पर एक तरह का विराम ही लगाया है.
1987 में जब जम्मू कश्मीर में कुछ इसी तरह के हालात बने थे तब कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की साझा सरकार में फारूक अब्दुल्ला प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने 1987 में जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के शुरुआत में ही श्रीनगर के गांव कदम इलाके में हुए नरसंघार के बाद मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर जम्मू कश्मीर में ऐसे ही हालत खड़े किए थे. तब जम्मू कश्मीर में लंबे दौर तक राष्ट्रपति शासन रहा और करीब 9 साल के लिए जम्मू कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक दल नेशनल कांफ्रेंस ने अपनी पार्टी को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखा. तब 1996 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने फारूक अब्दुल्ला के साथ बातचीत की और कई आश्वासन देते हुए उन्हें चुनावी प्रक्रिया में लाए, और 1996 में वह एक बार फिर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने.
इस बार जिस अंदाज से जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पहले पंचायत चुनाव से दूर रहने का फैसला किया है, उनके इस ऐलान के बाद कुछ इसी तरह के संकेत पीड़ीपी ने दिए. इससे साफ जाहिर होता है कि जम्मू कश्मीर में कुछ ऐसे ही हालात दोबारा उभरने लगे हैं, जो 30 साल पहले जम्मू कश्मीर में थे. गौरतलब है जम्मू कश्मीर में अनंतनाग की लोकसभा सीट के लिए 2016 से ही उपचुनाव नहीं हो पा रहे हैं. जो जम्मू कश्मीर में हालात के चलते स्थगित करने पड़े थे. राज्य में पंचायत चुनाव भी 2016 से ही अटके पड़े हैं.
शनिवार को जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख फारुख अब्दुल्ला ने यह भी साफ किया कि वह तब तक किसी भी चुनावी प्रक्रिया में भाग नहीं लेंगे जब तक केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे पर अपना स्टैंड क्लियर नहीं करती है. इससे साफ होता है कि जम्मू कश्मीर में 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ-साथ नए विधानसभा चुनाव के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस फिलहाल दूर भाग रही है और ऐसा ही कुछ माहौल पीडीपी में भी बन रहा है.
सवाल खड़ा होता है कि आखिर क्या कारण है कि जम्मू-कश्मीर के दो प्रमुख राजनीतिक दल चुनावी प्रक्रिया से भाग रहे हैं. इसकी वजह साफ है- जिस अंदाज से 2016 से लगातार घाटी में हालात बिगड़ रहे हैं उसमें किसी चुनाव के लिए ना ही माहौल है और ना ही अधिकतर लोगों की दिलचस्पी. साथ ही जम्मू कश्मीर के विशेष अधिकार पर केंद्र सरकार और जम्मू कश्मीर के राजनीतिक दलों के बीच तलवारें खिंची हैं, वह फिलहाल ठंडा होते नहीं दिख रहा. और कहीं न कहीं जम्मू कश्मीर के दोनों राजनीतिक दल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी केंद्र में भाजपा सरकार पर दबाव बढ़ा रही है कि वह धारा 370 और आर्टिकल 35A को लेकर अपनी नीति साफ करें. और ये वो मुद्दा है जिसे भाजपा न निगल सकती है और न ही उगल सकती है.
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