जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JN) एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. जेएनयू की घटना को इस विश्वविद्यालय के 50 वर्षों के अस्तित्व में हुई हिंसा (JN Violence) और अराजकता की घटनाओं की पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है. क्योंकि यह जेएनयू में हिंसा (JN Violence between left and abvp) की कोई पहली घटना नहीं है. वामपंथ इस विश्वविद्यालय को अपना गढ़ मानता है और इसकी स्थापना (22 अप्रैल,1969) से लेकर अभी तक के पिछले पांच दशकों में इस विश्वविद्यालय की राजनीति पर उसका अधिपत्य रहा है. इस काल में हिंसा की अनेक घटनाएं लगभग हर दशक में हुईं हैं. ऐसा नहीं है कि 2014 में एक गैर-वामपंथी सरकार आने के बाद ही जेएनयू का माहौल बदला है. 1983 में तो वामपंथी राजनीति जेएनयू के केम्पस में इस कदर हिंसक और बेकाबू हो गयी थी कि उस समय एक वर्ष के लिए यूनिवर्सिटी को बंद (JN shutdown) करना पड़ा था और सभी होस्टलों को खली करा कर विद्यार्थियों को जबरदस्ती घर भेजना पड़ा था.
उस दौर की हिंसा का आरोप तो प्रोपेगेंडा में माहिर वामपंथी भी किसी और पर लगा भी नहीं पाएंगे, क्योंकि तब तो जेएनयू में दूसरी विचारधाराओं का प्रवेश ही नहीं हुआ था. उस समय जे एन यू के कुलपति रहे प्रोफेसर पीएन श्रीवास्तव ने मीडिया में बयान दिया कि उपद्रवी छात्रों ने उनके घर में प्रवेश करके सारी सम्पति को तहस नहस तो किया ही साथ ही उनकी 35 वर्षों की जमापूंजी भी लूट कर ले गये. झेलम हॉस्टल के वार्डेन रहे प्रो हरजीत सिंह ने बताया कि उनके घर में घुसी उन्मादी छात्रों की भीड़ ने तोड़-फोड़ की.
इन शिक्षकों पर वामपंथी छात्रों ने ‘राष्ट्रवादी’ होने का आरोप लगाया था. इस पूरी हिंसा में वामपंथी विचारधारा के शिक्षक छात्रों को...
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JN) एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. जेएनयू की घटना को इस विश्वविद्यालय के 50 वर्षों के अस्तित्व में हुई हिंसा (JN Violence) और अराजकता की घटनाओं की पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है. क्योंकि यह जेएनयू में हिंसा (JN Violence between left and abvp) की कोई पहली घटना नहीं है. वामपंथ इस विश्वविद्यालय को अपना गढ़ मानता है और इसकी स्थापना (22 अप्रैल,1969) से लेकर अभी तक के पिछले पांच दशकों में इस विश्वविद्यालय की राजनीति पर उसका अधिपत्य रहा है. इस काल में हिंसा की अनेक घटनाएं लगभग हर दशक में हुईं हैं. ऐसा नहीं है कि 2014 में एक गैर-वामपंथी सरकार आने के बाद ही जेएनयू का माहौल बदला है. 1983 में तो वामपंथी राजनीति जेएनयू के केम्पस में इस कदर हिंसक और बेकाबू हो गयी थी कि उस समय एक वर्ष के लिए यूनिवर्सिटी को बंद (JN shutdown) करना पड़ा था और सभी होस्टलों को खली करा कर विद्यार्थियों को जबरदस्ती घर भेजना पड़ा था.
उस दौर की हिंसा का आरोप तो प्रोपेगेंडा में माहिर वामपंथी भी किसी और पर लगा भी नहीं पाएंगे, क्योंकि तब तो जेएनयू में दूसरी विचारधाराओं का प्रवेश ही नहीं हुआ था. उस समय जे एन यू के कुलपति रहे प्रोफेसर पीएन श्रीवास्तव ने मीडिया में बयान दिया कि उपद्रवी छात्रों ने उनके घर में प्रवेश करके सारी सम्पति को तहस नहस तो किया ही साथ ही उनकी 35 वर्षों की जमापूंजी भी लूट कर ले गये. झेलम हॉस्टल के वार्डेन रहे प्रो हरजीत सिंह ने बताया कि उनके घर में घुसी उन्मादी छात्रों की भीड़ ने तोड़-फोड़ की.
इन शिक्षकों पर वामपंथी छात्रों ने ‘राष्ट्रवादी’ होने का आरोप लगाया था. इस पूरी हिंसा में वामपंथी विचारधारा के शिक्षक छात्रों को उकसाने और उन्हें लिए योजना बनाने में लगे हुए थे. इस घटना के बाद लम्बे समय तक जे एन यू के कैम्पस में अर्ध-सैनिक बलों की टुकड़ी को अस्थायी तौर पर तैनात करना पड़ा था. गौरतलब है कि 1975-77 में जब देश में आपातकाल लगा था तब जहां सारे देश में सरकार की तानाशाही का विरोध हो रहा था वहीं जेएनयू में सरकार की वाहवाही हो रही थी. क्योंकि तबकी प्रमुख वामपंथी पार्टी ने आपातकाल का समर्थन किया था और उस दौर के मानवाधिकार उल्लंघनों में हिस्सा भी लिया था.
1990 के दशक में भी हिंसा की कई बड़ी घटनाएं घटीं. वर्ष 2000 में जे एन यू में हुई हिंसा का एक सनसनीखेज मामला संसद में कर्नल भुवन चन्द्र खंडूरी ने उठाया था. मामला यह था कि जेएनयू के केसी ओट नामक सभागार में वामपंथी संगठनों द्वारा एक मुशायरा आयोजित किया गया था जिसमे पाकिस्तान से भी शायर आये थे. वहां भारत-पाकिस्तान संबंधों में भारत को बुरा और पाकिस्तान को अच्छा बताने वाली नज्में गाई जा रहीं थीं और हाल ही में हुए कारगिल युद्ध में भारत को दोषी बताते हुए लिखे गये शेर पढ़े जा रहे थे.
उस खुले सभागार में दर्शकों के बीच दो भारतीय सैनिक भी बैठे थे, जो छुट्टी पर थे और जिन्होंने खुद कारगिल की लड़ाई में हिस्सा लिया था. उन्होंने खड़े होकर इस कार्यक्रम का विरोध किया. जवाब में जेएनयू के वामपंथियों ने उन दोनों सैनिकों को घेर कर पीटा और अधमरा करके मुख्य गेट के बाहर फेंक दिया. यह पूरा वृतांत जब कर्नल खंडूरी ने संसद में सुनाया तब उस वक़्त भी जेएनयू में दी जा रही राजनीतिक शिक्षा पर देश में प्रश्न उठे थे.
वर्ष 2005 में भारत के प्रधानमंत्री के जेएनयू आगमन पर भी विवाद हुआ जिसकी परिणति हिंसा के रूप में हुई| वर्ष 2010 में जब दंतेवाडा में सीआरपीएफ के 76 जवान माओवादी हमले में वीरगति को प्राप्त हुए. उस समय देश में शोक की लहर थी. लेकिन जेएनयू के गोदावरी ढाबे पर वामपंथी गुटों ने इस घटना पर जश्न मनाया और डीजे चला कर पार्टी की. वर्ष 2013 में जेएनयू में एक अजीब तरह का कार्यक्रम हुआ जिसको वामपंथियों ने महिषासुर पूजन दिवस का नाम दिया. इस दिन जेएनयू में पर्चा बांटा गया जिसमे भारतीयों की आराध्य देवी दुर्गा के अकल्पनीय अपशब्दों का प्रयोग किया गया.
इस कार्यक्रम से हिन्दू और सिखों की भावना आहत होना स्वाभाविक था, लेकिन विरोध करने पर उनके साथ वामपंथियों द्वारा बर्बर हिंसा हुई. 2016 में जेएनयू में आतंकी अफज़ल गुरु की बरसी के दिन 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' का नारा लगाने वाली घटना तो हमारे समाज की स्मृति पर गहरी स्याही से अंकित है. यह जरुर याद दिलाना चाहिए कि जो देश विरोधी नारे वहां लगे उनमे एक नारा यह भी था- 'आइन हिंदुस्तान का- मंज़ूर नहीं, मंज़ूर नहीं.' आइन का फारसी में अर्थ संविधान होता है.
यानी कि जेएनयू को केंद्र बनाकर होने वाली यह राजनीति तीन चीजों को अपने निशाने पर हमेशा रखती है.भारत देश की एकता और अखंडता, भारत देश की आस्था और संस्कृति तथा भारत का संविधान- यह तीनों को नष्ट करना ही जेएनयू को प्लेटफार्म की तरह इस्तेमाल करने वाली कुटिल शक्तियों के कार्यों का उद्देश्य है. ताज़ा प्रकरण की बात पर आयें तो इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि विश्वविद्यालय अध्ययन-अध्यापन एवं शोध का केंद्र होता है. लेकिन जेएनयू में पिछले ढाई महीनों से लगभग सभी शैक्षणिक गतिविधियां खुद को वामपंथी विचारधारा का बताने वाले कुछ लोगों के आक्रामक रवैये के कारण बंद है.
इनमें अध्यापक, छात्र और बाहरी तत्व भी शामिल हैं. इन्होनें अपनी इस दुस्साहसी हरकत को न्यायसंगत ठहराने के लिए कभी हास्टलों की फ़ीस वृद्धि को अपनी मुद्दा बताया, कभी 370 के हटने को अपना मुद्दा बताया तो कभी प्रताड़ित शरणार्थियों को राहत देने हेतु बने CAA कानून को अपना मुद्दा बताया. उनके द्वारा जेएनयू प्रशासन के मुख्य भवन पर पिछले 60 दिनों से कब्ज़ा किया गया है. जेएनयू के सभी स्कूलों और सेंटरों के दरवाजे पर दरी बिछाये ढपली बजाते बैठे हुए इन लोगों ने नवम्बर-दिसंबर माह में होने वाली सेमेस्टर परीक्षा को भी यथा संभव बाधित किया.
छात्र-छात्राओं को अपनी कक्षाओं में जाने से रोकने के अलावा इन लोगों ने वामपंथी विचारधारा के शिक्षकों और प्रशासकों का डर और दबाव का प्रयोग करके परीक्षा देने के इच्छुक विद्यार्थियों को सामने आने से रोका. एक सेमेस्टर की परीक्षा के बर्बाद होने के बाद जे एन यू के इन प्रशिक्षित क्रांतिकारियों ने यह फरमान जारी किया कि अगले एक जनवरी से शुरू हो रहे नए सेमेस्टर के लिए कोई भी विद्यार्थी अपना रजिस्ट्रेशन नहीं करेगा.
यदि छात्र रजिस्ट्रेशन न करें तो यूनिवर्सिटी में न तो कोई कक्षा चलेगी और न ही कोई परीक्षा होगी. इस फरमान से ही यह साफ़ हो गया कि येन केन प्रकारेण पूरी यूनिवर्सिटी को ठप कर देना ही इस मुहीम का एजेंडा है. एक जनवरी से रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया शुरू हुई तो छात्रों ने वामपंथी धमकियों को धता बताते हुए रजिस्ट्रेशन करना शुरू कर दिया. छात्रों को रोकने के लिए वामपंथियों ने मुंह पर कपडा बांध कर विश्वविद्यालय के सर्वर कक्ष में प्रवेश किया और पूरे केम्पस का इन्टरनेट बंद कर दिया.
फिर भी वैकल्पिक माध्यमों से रजिस्ट्रेशन के आखिरी दिन 5 जनवरी तक अधिकांश विद्यार्थियों ने रजिस्ट्रेशन करना शुरू कर दिया. इससे बौखलाए वामपंथियों ने डंडे,रॉड और धारदार हथियारों का इस्तेमाल करके रजिस्ट्रेशन करने वाले छात्रों को दौड़ा दौड़ा का पीटा है. इस पूर्व नियोजित एक तरफ़ा हिंसा से दिखा कि वामपंथी शक्तियां जेएनयू में अपने दरकते हुए वर्चस्व को बचाने के लिए बार बार हिंसा का सहारा क्यों और कैसे लेती हैं. इस ताज़ा प्रकरण में वामपंथ की शक्तिशाली प्रोपेगंडा मशीनरी के दिन रात कार्य करने के बाद भी उनकी पोल खुलती जा रही है.
बहरहाल, देश में एक प्रश्न उठने लगा है कि चाहे देश को चुनौती देने वाला कोई भी विचार हो उसकी जड़ों का एक न एक सिरा जेएनयू को अपने अड्डे की तरह इस्तेमाल करने वाले वामपंथियों से जुड़ा हुआ क्यों हुआ मिलता है? देश धीरे धीरे यह समझ चुका है कि वामपंथी राजनीति जेएनयू के कुछ छात्रों को फंसा कर उनके सहयोग से पूरे विश्वविद्यालय को अपने प्लेटफार्म की तरह इस्तेमाल कर रही हैं.
आतंकी अफज़ल की बरसी पर 2016 में 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' के नारे इसी यूनिवर्सिटी में लगे. 5 अगस्त 2019 को जब अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी हुआ तो फिर यहां पर अलगाववादी नारे लगे. यह महज़ संयोग तो नहीं हो सकता कि नक्सली, माओवादी, जेहादी और अलगवादी शक्तियों को जेएनयू के वामपंथियों से किसी न किसी प्रकार का सहारा हर बार मिल ही जाता है.
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