बिहार (Bihar) का पुराना मुहावरा है, ‘लईका के दम जाए आ चिरईया के खिलौना’ मतलब किसी की जान निकल रही है और किसी के लिए वो खेल जैसा है. आप सोच रहे होंगे कि अचानक आज ये पुरानी कहावत क्यों याद आयी. दरअसल बिहार इन दिनों कई वजहों से खबरों में है. यकीनन ये ख़बरें अच्छी नहीं होंगी. वैसे तो कोरोना वाइरस (Cornavirus) की वजह से दुनिया में कहीं से भी अच्छी ख़बरें नहीं मिल रही लेकिन बिहार का सीन ही अलग है. वहां तो हर चीज़ में डार्क ह्यूमर लोग ढूंढ लेते हैं. बिहार के अलावा ये ख़ासियत हमारे देश के नेताओं और मीडिया के पास भी है. आइए आपको इसका एक जीता-जागता उदाहरण देती हूं. दरभंगा (Darbhanga) वाली ज्योति (Jyoti Kumari ) के नाम से अब तक तो आप सब वाक़िफ़ हो ही गए होंगे. अच्छा अगर नहीं हुए तो थोड़ा ब्रीफ़ कर देती हूं. मैं उस ज्योति की बात कर रही जो अपने बीमार को दिल्ली से दरभंगा अपनी साइकिल से ले कर आ गयी. 1200 किलोमीटर का ये सफ़र उसने शायद सात से दस दिन में तय किया. उसके बाद जो हुआ और हो रहा है अभी भी वो वही चिरईया और खिलौने वाली बात है. यहां ज्योति चिरईया और नेताजी के साथ-साथ मीडिया उसको खिलौना बना कर अपना-अपना उल्लू साध रहें हैं.
देखिए, चिराग़ पासवान ट्वीट करते हैं कि वो 26 जनवरी पर बहादुरी के लिए बच्चों को जो सम्मान मिलता है उसके लिए ज्योति का नाम आगे करेंगे. भारत के साइक्लिस्ट एसोसिएशन ने ज्योति को देश के लिए खेलने का न्योता भेजा. जिसे ज्योति ने अब ठुकरा दिया है ये कहते हुए कि वो पढ़ाई पर फ़ोकस करना चाहती है. इस सब के अलावा इवांका ट्रम्प तक ने ज्योति के लिए ट्वीट किया है.
कोई फ़िल्म डायरेक्टर हैं वो इस पर फ़िल्म...
बिहार (Bihar) का पुराना मुहावरा है, ‘लईका के दम जाए आ चिरईया के खिलौना’ मतलब किसी की जान निकल रही है और किसी के लिए वो खेल जैसा है. आप सोच रहे होंगे कि अचानक आज ये पुरानी कहावत क्यों याद आयी. दरअसल बिहार इन दिनों कई वजहों से खबरों में है. यकीनन ये ख़बरें अच्छी नहीं होंगी. वैसे तो कोरोना वाइरस (Cornavirus) की वजह से दुनिया में कहीं से भी अच्छी ख़बरें नहीं मिल रही लेकिन बिहार का सीन ही अलग है. वहां तो हर चीज़ में डार्क ह्यूमर लोग ढूंढ लेते हैं. बिहार के अलावा ये ख़ासियत हमारे देश के नेताओं और मीडिया के पास भी है. आइए आपको इसका एक जीता-जागता उदाहरण देती हूं. दरभंगा (Darbhanga) वाली ज्योति (Jyoti Kumari ) के नाम से अब तक तो आप सब वाक़िफ़ हो ही गए होंगे. अच्छा अगर नहीं हुए तो थोड़ा ब्रीफ़ कर देती हूं. मैं उस ज्योति की बात कर रही जो अपने बीमार को दिल्ली से दरभंगा अपनी साइकिल से ले कर आ गयी. 1200 किलोमीटर का ये सफ़र उसने शायद सात से दस दिन में तय किया. उसके बाद जो हुआ और हो रहा है अभी भी वो वही चिरईया और खिलौने वाली बात है. यहां ज्योति चिरईया और नेताजी के साथ-साथ मीडिया उसको खिलौना बना कर अपना-अपना उल्लू साध रहें हैं.
देखिए, चिराग़ पासवान ट्वीट करते हैं कि वो 26 जनवरी पर बहादुरी के लिए बच्चों को जो सम्मान मिलता है उसके लिए ज्योति का नाम आगे करेंगे. भारत के साइक्लिस्ट एसोसिएशन ने ज्योति को देश के लिए खेलने का न्योता भेजा. जिसे ज्योति ने अब ठुकरा दिया है ये कहते हुए कि वो पढ़ाई पर फ़ोकस करना चाहती है. इस सब के अलावा इवांका ट्रम्प तक ने ज्योति के लिए ट्वीट किया है.
कोई फ़िल्म डायरेक्टर हैं वो इस पर फ़िल्म बनाएंगे ऐसा उन्होंने भी कहा है. बाक़ी के नेता लोग भी उसकी तारीफ़ों के पुल बांध रहें. इसके अलावा देश की मीडिया अलग लेवल पर खेल रही है ज्योति के साथ टीआरपी के लिए. मतलब जैसे ही ज्योति का साइकिल चलाता हुआ विडियो वायरल हुआ लगभग देश की सभी मीडिया हाउस ने अपने-अपने संवाददाता को दरभंगा पहुंच जाने को कहा.बिलकुल सालों पहले आयी फ़िल्म पीपली लाईव के तर्ज़ पर.
मीडिया हाउस को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ज्योति किस हाल में है. वो साइकिल चला कर इतनी दूर से आयी है उसकी मानसिक स्तिथि क्या होगी. क्या उसे या उसके पिता को आराम और आइसोलेशन के ज़रूरत नहीं है. क्या घर पहुंच कर उसे ढंग से खाने और सोने को मिल रहा लेकिन इस बात से किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता. वो बस माईक लिए उससे वही सवाल किए जा रहें जिनका वो सौ बार जवाब दे चुकी है.
हर मीडियाकर्मी अपने-अपने कैमरा के लिए उसे पिता को साइकिल पर बिठा कर साइकिल चलाने को बोल रहा ताकि अपने हिसाब से फ़ोटो ले सकें. अगर मैं यहां ये कहूं कि ज्योति और उसके पिता मांस भर हैं इस गिद्ध मीडिया के लिए तो क्या ग़लत होगा. ये तो रहा मीडिया का हाल देश के नेता भी कुछ इससे अलग नहीं हैं.
उनको इस बात से शर्म आनी चाहिए कि इस महामारी में उनका सिस्टम किस क़दर फेल हुआ है. कैसे उन्होंने अपनी जनता को निराश किया है वो इतने निर्लज़्ज़ हो चुके हैं कि ज्योति के दर्द और मजबूरी पर उन्होंने अपनी राजनीतिक बाजी खेलनी शुरू कर दी है.
ज़रा सोचिए होना क्या चाहिए था? होना ये चाहिए था कि ज्योति के ऊपर ऐसी विपत्ति ही नहीं आती कि उस बच्ची को अपने बीमार पिता को साइकिल पर बिठा कर दिल्ली से अपने गांव दरभंगा लाना पड़ता. ये ज़िम्मेवारी तो सरकार की है न कि वो अपने नागरिकों को सुरक्षित अपने-अपने घरों में भेजे. वो ऐसा करने में फेल हुई है. इस देश का सिस्टम फेल हुआ है.
ज्योति का साइकिल चला कर दिल्ली से बिहार आना इस फेल सिस्टम की कहानी है लेकिन बजाय शर्म से डूब मरने के ये लोग ज्योति की विवशता पर राजनीति कर रहें हैं. पता नहीं किसी को उस बाप की मजबूरी समझ आ भी रही या नहीं. उसे कितना बुरा लग रहा होगा कि जिस बच्चे पर उसे साया बनना था उस बच्चे को धूप में यूं जलना पड़ा.
उसे अपने आप पर शायद ग़ुस्सा आ रहा होगा लेकिन इन बातों का कोई मोल है क्या? क्या इतना सब होने के बावजूद दूसरे मज़दूरों के लिए कोई और फूल प्रूफ़ प्लान सरकार ला रही है क्या? कल ही बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर स्टेशन पर दो मज़दूरों की लाश पहुंची है. एक लाश एक मां की है और एक लाश एक बच्चे की. देश के किसी और हिस्से से एक विडियो आया है जिसमें अपनी मर चुकी मां को एक बच्चा जगा रहा है.
क्या देश के लिए शर्म और नेताओं की मरी हुई आत्मा को झकझोरने के लिए काफ़ी नहीं है.
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