आज होली का दिन है लिहाजा कई जगह आना-जाना हुआ और कई लोगों के फोन आए. होली की बधाई के बाद हर तरफ एक ही बात की चर्चा थी कि कमलनाथ सरकार तो चली गई. मगर इसके साथ ही जब लोग कह रहे थे कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ठीक किया है, सिंधिया के साथ नाइंसाफी हो रही थी तब मन में ऐसा उठ रहा था कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि लोगों के मन में ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रति अपनी सहानुभूति दिख रही है. कमलनाथ ने ऐसा क्या काम कर दिया कि लोग कह रहे हैं कि सिंधिया के साथ नाइंसाफी हो रही थी. अमूमन ऐसा होता है कि जिस मुख्यमंत्री को धोखे से पद से हटाया गया हो उसके साथ लोगों की सहानुभूति होती है मगर ऐसा होता हुआ दिख नहीं रहा है.
कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है. मगर एक ही इतिहास को दादी और पोते दोनों दोहराएं है ऐसा कम देखने को मिलता है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार थी और विजय राजे सिंधिया ने कांग्रेस के ही दूसरे बड़े कद्दावर नेता गोविंद नारायण सिंह को कांग्रेस से इस्तीफा दिलाकर संयुक्त विधायक दल की गैर कांग्रेसी सरकार बनवा दी थी और कॉन्ग्रेस देखती रह गई थी. 1967 में कांग्रेस पहली बार अपना बुरा दिन देख रही थी और उस वक्त सिंधिया परिवार ने कांग्रेस को उत्तर भारत में द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार गिराकर बड़ा झटका दिया था. वही द्वारका प्रसाद मिश्रा जिनके बेटे ब्रजेश मिश्रा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के सलाहकार बने थे. इस समय भी कांग्रेस के लिए हालात ऐसे ही हैं और इस समय सिंधिया परिवार के राजकुमार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिरा कर कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद राजस्थान में भी उथल-पुथल शुरू हो गई है
सवाल उठता है कि क्या...
आज होली का दिन है लिहाजा कई जगह आना-जाना हुआ और कई लोगों के फोन आए. होली की बधाई के बाद हर तरफ एक ही बात की चर्चा थी कि कमलनाथ सरकार तो चली गई. मगर इसके साथ ही जब लोग कह रहे थे कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ठीक किया है, सिंधिया के साथ नाइंसाफी हो रही थी तब मन में ऐसा उठ रहा था कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि लोगों के मन में ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रति अपनी सहानुभूति दिख रही है. कमलनाथ ने ऐसा क्या काम कर दिया कि लोग कह रहे हैं कि सिंधिया के साथ नाइंसाफी हो रही थी. अमूमन ऐसा होता है कि जिस मुख्यमंत्री को धोखे से पद से हटाया गया हो उसके साथ लोगों की सहानुभूति होती है मगर ऐसा होता हुआ दिख नहीं रहा है.
कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है. मगर एक ही इतिहास को दादी और पोते दोनों दोहराएं है ऐसा कम देखने को मिलता है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार थी और विजय राजे सिंधिया ने कांग्रेस के ही दूसरे बड़े कद्दावर नेता गोविंद नारायण सिंह को कांग्रेस से इस्तीफा दिलाकर संयुक्त विधायक दल की गैर कांग्रेसी सरकार बनवा दी थी और कॉन्ग्रेस देखती रह गई थी. 1967 में कांग्रेस पहली बार अपना बुरा दिन देख रही थी और उस वक्त सिंधिया परिवार ने कांग्रेस को उत्तर भारत में द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार गिराकर बड़ा झटका दिया था. वही द्वारका प्रसाद मिश्रा जिनके बेटे ब्रजेश मिश्रा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के सलाहकार बने थे. इस समय भी कांग्रेस के लिए हालात ऐसे ही हैं और इस समय सिंधिया परिवार के राजकुमार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिरा कर कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद राजस्थान में भी उथल-पुथल शुरू हो गई है
सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस के अंदर कोई ऐसा भूकंप आया है जिसकी तीव्रता के बारे में कांग्रेस के वैज्ञानिक अंदाजा लगा नहीं पा रहे हैं और इस भूकंप के केंद्र के बारे में भी कांग्रेस के तथाकथित आलाकमान को पता नहीं चल पा रहा है. लोग कयास लगाने लगे हैं कि कांग्रेस के अंदर उठे भूकंप के झटके क्या व राजस्थान में भी लोग महसूस करने वाले हैं. गहलोत सरकार में उपमुख्यमंत्री का पद संभाल रहे सचिन पायलट के पास भी क्या कोई रणनीति है जिससे वह मुख्यमंत्री बन जाए.
पायलट खेमे से आप पूछे तो उनका कहना है कि बस इंतजार कीजिए जल्दी ही कोई धमाका होने वाला है. सचिन पायलट मुख्यमंत्री नहीं बन पाए इसका मलाल उनके चेहरे और उनके हावभाव के अलावा उनके वक्तव्यों और क्रियाकलापों से देखा जा सकता है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के रास्ते में उन्होंने कई दिनों तक रोड़ा अटकाया जिसे अब तक अशोक गहलोत आसानी से पचा नहीं पाते हैं. यह सच है कि 5 सालों तक सड़कों पर संघर्ष करने वाले सचिन पायलट राजस्थान में खून का घूंट पीकर काम चला रहे हैं. अशोक गहलोत उन्हें सत्ता में बराबरी का भागीदार नहीं बनाना चाहते हैं.
अगर ऐसा है तो फिर सचिन पायलट के पास किस तरह के कौन-कौन से विकल्प है. कुछ लोगों का कहना है कि बहुत जल्दी अमित शाह और नरेंद्र मोदी से मिलकर सचिन पायलट राजस्थान में गैर कांग्रेसी और गैर बीजेपी सरकार बना सकते हैं. फिलहाल पिछले 3 दिनों से सचिन पायलट दिल्ली में है और कहा जा रहा है कि दिल्ली में बैठकर वह राजस्थान में बड़ा राजनीतिक विस्फोट करने की तैयारी कर रहे हैं. इसे भांपते हुए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी सुबह से विधायकों से संपर्क में है और अपने सारे सिपहसालारों को राजस्थान के एक एक विधायकों के पीछे लगा दिया है.
हालांकि हमें लगता है कि सचिन पायलट को हड़बड़ी में कोई कदम नहीं उठाना चाहिए. क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जो गए हैं उन्होंने भिंड मुरैना का पानी पीया है जबकि राजस्थान के लोगों का मिजाज अलहदा है. पायलट कहते हैं कि जब आलाकमान ने मुख्यमंत्री बनने के लिए वोटिंग कराई थी तो उनके पास 100 में से 44 विधायक थे मगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया. जब कांग्रेस राजस्थान में 21 सीटों पर समय सिमट गई थी तब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उस वक्त राहुल सचिन पायलट को विजयी भवः कहकर राजस्थान भेजा था. लिखित तो नहीं मगर एक मूक सहमति बनी थी कि राजस्थान में सरकार बनी तो नेतृत्व युवा हाथों में होगी. पायलट खेमे का कहना है कि वह लगातार कांग्रेस को जिताने के लिए मेहनत करते रहे और गांधी परिवार के नजदीकी अशोक गहलोत अपनी गोटियां बैठाने में लगे रहे. 30 सालों से ज्यादा समय तक राजस्थान में सक्रिय रहे अशोक गहलोत के पास ज्यादा अनुभव के साथ ज्यादा संबंध भी हैं लिहाजा उनके पास कुछ विधायक ज्यादा हो सकते है.
मगर गांधी परिवार को अपना वीटो इस्तेमाल कर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाना चाहिए था. सचिन पायलट उपमुख्यमंत्री तो बन गए मगर अशोक गहलोत उनकी हैसियत एक मंत्री से ज्यादा कभी नहीं होने दिए. जब मंत्री पद का शपथ दिलाया जा रहा था तो पायलट को राज्यपाल के साथ अपनी कुर्सी लगवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा था ,तभी तय हो गया था कि राजस्थान में यह किस्सा कुर्सी का चलता रहेगा. विधानसभा जाने के लिए सचिन पायलट मुख्यमंत्री के अंदर जाने के दरवाजे से चले गए तो मार्शल ने उन्हें रोक लिया और कहा कि आप इधर से नहीं जा सकते. पायलट ने तब उप मुख्यमंत्री बनने के बाद अपमान का पहला घुटता पिया था.
कहते हैं कि सचिन पायलट ने कैबिनेट की बैठक में जब कुर्सी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बगल में लगवा ली तो अगली बैठक में अशोक गहलोत ने उनकी कुर्सी हटवा कर मंत्रियों के साथ लगवा दी. जाहिर सी बात है कि जब अशोक गहलोत इन छोटी मोटी बातों पर सचिन पायलट को जलील करने लगे हों तो पायलट के पास बगावती तेवर दिखाने का कोई के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है. पिछले कुछ दिनों से पायलट अपने तेवर दिखाने शुरू भी कर दिए है. चाहे कोटा में बच्चों की मौत का मामला हो या फिर नागौर में दलितों के अत्याचार का मामला हो या फिर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के अपने बेटे वैभव गहलोत को आरसीए अध्यक्ष बनवाने का मामला हो, सचिन पायलट ने सामने आकर गहलोत सरकार को आड़े हाथों लिया है. मगर इससे इतना भर कहा जा सकता है कि सचिन पायलट अपने अंदर के गुस्से को निकाल रहे हैं इसके अलावा पायलट ने पार्टी के खिलाफ जाने की कभी कोशिश नहीं की.
सिंधिया के घटना के बाद सवाल उठने लगा है कि क्या पायलट भी इसी रास्ते पर जाएंगे. राजस्थान में कांग्रेस के पास 101 विधायकों का समर्थन है इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी के 6 विधायकों का कांग्रेसमें अशोक गहलोत ने विलय करवाया है और एक ग्यारह निर्दलीयों को कांग्रेस का एसोसिएट सदस्य बनाकर अपने साथ मिला लिया है. यानी सचिन पायलट को गहलोत की सरकार की गिरानी हो तो कम से कम 25 विधायकों का समर्थन उनके पास होना चाहिए. बड़ा सवाल है क्या सचिन पायलट के साथ कांग्रेस के 25 विधायक जाएंगे. कोई कह रहा है कि पायलट के पास फिलहाल 17 विधायक हैं तो कोई कह रहा है कि पायलट बहुत जल्दी धमाका करने वाले हैं मगर सचिन पायलट को कोई भी कदम उठाने से पहले राजस्थान के इतिहास को भी समझना चाहिए. भैरों सिंह शेखावत ने चार बार अल्पमत की सरकार बनाई है और चारों बार विधायकों के समर्थन लेने की वजह सरकार नहीं गिरी है.
दो बार अशोक गहलोत ने अल्पमत की सरकार बनाई है और आराम से सरकार चलाया है. पूरे उत्तर भारत में एकमात्र ऐसा राज्य है जहां पर अल्पमत की सरकारें भी नहीं गिरी हैं जबकि उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में दल बदल कानून लागू होने से पहले बहुमत की सरकारें गिरती रही है. दरअसल राजस्थान का मिजाज ही ऐसा है कि जब मुग़ल आए तो मुगलों के साथ हो लिए और जब अंग्रेज आए तो अंग्रेजों के साथ हो लिए. यहां जो सत्ता में आता है उसके साथ लोग हो जाते हैं. यहां के लोगों के बारे में यह भी कहा जाता है कि पायलट अगर किसी विधायक को बुलाकर अपने पास कुछ बात करते हैं तो विधायक वहीं से गाड़ी स्टार्ट कर लेता है अशोक गहलोत को वह बात बताने के लिए. ऐसे में पायलट को फुलप्रूफ नीति या रणनीति तैयार करनी होगी.
जहां तक विचारधारा की बात है तो पायलट विचारधारा से बंधे हुए कभी दिखाई नहीं दिए. पायलट के अंदर फ्रस्ट्रेशन भी दिखता है क्योंकि कांग्रेस के अंदर उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है. बाहर लोग भले ही बात करते हैं कि वह राहुल गांधी के करीबी हैं मगर सच्चाई तो यह है कि उप मुख्यमंत्री बनने के बाद कभी राहुल गांधी से उनकी बातचीत तक नहीं हुई कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी के पास और महासचिव प्रियंका गांधी के पास अशोक गहलोत ने इस तरह की बिसात बिछा रखी है कि पायलट वहां तक पहुंच नहीं पाते हैं. कहा तो यह जाता है कि पायलट के लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह से बात करना आसान है मगर सोनिया गांधी और राहुल गांधी से बात करना मुश्किल है. हालात यह है तो अगर पायलट बगावत करते हैं और लोगों की सहानुभूति पायलट के साथ बनती है तो कांग्रेस के किसी नेता को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
पायलट के साथ एक नुकसान यह है कि अशोक गहलोत और कमलनाथ में अंतर है. अशोक गहलोत को पूरी तरह समझने का दावा उनके बेटे वैभव गहलोत भी नहीं कर सकते हैं. 20 सालों से जो अशोक गहलोत के साथ काम कर रहे कर रहे हैं वह भी कहते हैं अरे यार यह क्या चीज है इसके बारे में समझना मुश्किल है. अशोक गहलोत खाते -पीते सोते -बैठते, बातें करते, हर वक्त राजनीत करते हैं. अगर आप उनके साथ बात करें और उनको ध्यान से देखें तो आप देख सकते हैं कि उनके अंदर एक अजीब सी बेचैनी रहती है. उनका कोई ना कोई एक अंग हिलता डुलता रहता है. किसी बेचैनी की वजह से लोग 24 घंटे के राजनीतिज्ञ हैं और कांग्रेस के अंदर 24 घंटे के इकलौते राजनीतिज्ञ हैं. लिहाजा उन्होंने खतरे को भांपते हुए पहले ही बहुजन समाज पार्टी और निर्दलीयों की फौज अपने साथ खड़ी कर ली है.
इसके अलावा राज्य की राजनीति में एक बात और होती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के धुर विरोधी बीजेपी की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत में दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाली रणनीति के तहत अंदर खाने दोस्ती चल रही है. तभी तो चुनाव से पहले पानी पी पी कर कोसने वाले गहलोत वसुंधरा राजे पर जुबान तक नहीं खोलते हैं और उनका एक अदद बंगला तक बचाने के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से टकरा गए. अगर ऐसी नौबत आती है कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी सचिन पायलट को आगे कर राजस्थान में बीजेपी सरकार बनाने की कोशिश करेंगे तो वसुंधरा अपने विधायकों का समर्थन अशोक गहलोत को दिलवा सकती हैं और अशोक गहलोत की सरकार बचा सकती है.
अब सवाल उठता है कि अगर अशोक गहलोत महफूज है तो फिर पायलट का क्या है. हमें लगता है कि पायलट के पास अब बारगेनिंग पावर बढ़ गई है. अब वह गहलोत सरकार के अंदर अपने जूते जोर जोर से बजा सकते हैं. अशोक गहलोत उनको प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाने की मुहिम में लगे थे, उस मुहिम पर ब्रेक लग सकता है. पायलट से पूछ कर अब राज्यसभा उम्मीदवार का चयन होगा. आने वाले मंत्रिमंडल विस्तार में पायलट को पूरी तरजीह मिलेगी. राजस्थान में राजनीतिक नियुक्तियों में पायलट की चलेगी. मगर इससे ज्यादा कुछ कर पाएंगे वह ऐसा लगता नहीं है.
फिलहाल पायलट के पास 20 के आसपास ऐसे विधायकों की फौज है कि उनके कहने पर उनके साथ दिल्ली कूच कर जाएं लेकिन पायलट को उन सभी विधायकों को भी साथ लेना होगा जो किसी ने किसी कारणवश अशोक गहलोत से नाराज चल रहे हैं. पायलट अगर ऐसा कर पाते हैं तो राजस्थान में पायलट की स्थिति मजबूत हो सकती है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.