ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) का दिल्ली से नये अवतार में भोपाल पहुंचने पर जोरदार स्वागत हुआ. कह सकते हैं, महाराज का शाही स्वागत. सवाल है कि ये सब सिर्फ चार दिन की चांदनी है या फिर आगे भी बरकरार रहेगा?
सवाल का जवाब हर कोई जानता है - खुद सिंधिया भी, बीजेपी (BJP) नेतृत्व भी और पूरी जनता भी जानती है. ये सब निर्भर इस बात पर करता है कि सिंधिया बीजेपी की अपेक्षाओं पर खरे उतर पाते हैं या नहीं? बीजेपी की अपेक्षाएं भी साफ और सीधी हैं - सत्ता का विस्तार. और शुरुआत मध्य प्रदेश से होनी चाहिये.
सिंधिया का पहला टेस्ट तभी पास कर पाएंगे जब वो मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार को गिराने में मददगार साबित हों. आगे से कोई मतलब नहीं होगा. बीजेपी अपनी सरकार अपने हिसाब से बनाएगी और उसमें सिंधिया का दखल भी नहीं चाहेगी.
बीते एक साल की अवधि को छोड़ दें तो ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेताओं में हुआ करते रहे. खासकर, तब जब राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने अध्यक्ष की कुर्सी संभाल ली थी. सारे नेताओं के रहते हुए राहुल गांधी ने प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ सिंधिया को ही मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश भेजा - ऐसा था सिंधिया पर भरोसा. जब राहुल गांधी ही फकीर बन गये, फिर साथियों का क्या हो सकता है. सिंधिया के साथ भी वही हुआ जो किसी के साथ होता या बाकियों के साथ हुआ या हो रहा है.
बीजेपी में सिंधिया की पोजीशन क्या होगी?
विजयाराजे सिंधिया की बात और है. वैसे भी वो जनसंघ के दौर की नेता रहीं. बीजेपी के संस्थापकों में से एक रहीं. वो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ मंचों पर देखी जाती रहीं.
गुजरे जमाने में वसुंधरा राजे की हैसियत काफी रही, लेकिन 2014 के बाद तो वो सिर्फ अपने जनाधार के बूते खड़ी रहीं. 2018 में राजस्थान विधानसभा का चुनाव हार जाने के बाद उनकी क्या स्थिति हुई है सबको पता है. अब जब तक राजस्थान में भी ऑपरेशन लोटस जैसा कोई करिश्मा नहीं होता या सचिन पायलट भी सिंधिया की राह नहीं पकड़ लेते,...
ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) का दिल्ली से नये अवतार में भोपाल पहुंचने पर जोरदार स्वागत हुआ. कह सकते हैं, महाराज का शाही स्वागत. सवाल है कि ये सब सिर्फ चार दिन की चांदनी है या फिर आगे भी बरकरार रहेगा?
सवाल का जवाब हर कोई जानता है - खुद सिंधिया भी, बीजेपी (BJP) नेतृत्व भी और पूरी जनता भी जानती है. ये सब निर्भर इस बात पर करता है कि सिंधिया बीजेपी की अपेक्षाओं पर खरे उतर पाते हैं या नहीं? बीजेपी की अपेक्षाएं भी साफ और सीधी हैं - सत्ता का विस्तार. और शुरुआत मध्य प्रदेश से होनी चाहिये.
सिंधिया का पहला टेस्ट तभी पास कर पाएंगे जब वो मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार को गिराने में मददगार साबित हों. आगे से कोई मतलब नहीं होगा. बीजेपी अपनी सरकार अपने हिसाब से बनाएगी और उसमें सिंधिया का दखल भी नहीं चाहेगी.
बीते एक साल की अवधि को छोड़ दें तो ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेताओं में हुआ करते रहे. खासकर, तब जब राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने अध्यक्ष की कुर्सी संभाल ली थी. सारे नेताओं के रहते हुए राहुल गांधी ने प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ सिंधिया को ही मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश भेजा - ऐसा था सिंधिया पर भरोसा. जब राहुल गांधी ही फकीर बन गये, फिर साथियों का क्या हो सकता है. सिंधिया के साथ भी वही हुआ जो किसी के साथ होता या बाकियों के साथ हुआ या हो रहा है.
बीजेपी में सिंधिया की पोजीशन क्या होगी?
विजयाराजे सिंधिया की बात और है. वैसे भी वो जनसंघ के दौर की नेता रहीं. बीजेपी के संस्थापकों में से एक रहीं. वो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ मंचों पर देखी जाती रहीं.
गुजरे जमाने में वसुंधरा राजे की हैसियत काफी रही, लेकिन 2014 के बाद तो वो सिर्फ अपने जनाधार के बूते खड़ी रहीं. 2018 में राजस्थान विधानसभा का चुनाव हार जाने के बाद उनकी क्या स्थिति हुई है सबको पता है. अब जब तक राजस्थान में भी ऑपरेशन लोटस जैसा कोई करिश्मा नहीं होता या सचिन पायलट भी सिंधिया की राह नहीं पकड़ लेते, वसुंधरा राजे के अच्छे दिन फिर से नहीं आने वाले.
वसुंधरा राजे की बहन यशोधरा राजे की तो हालत ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को भला बुरा कहने के चक्कर में शिवराज सिंह चौहान उनको भी भूल गये. यशोधरा राजे को सिंधिया घराने पर शिवराज की टिप्पणी को लेकर कड़ा ऐतराज जताना पड़ा था. तकरीबन यही हाल वसुंधरा के बेटे दुष्यंत सिंह का है. फिलहाल वो राजस्थान की झालावाड़ लोक सभा सीट से बीजेपी सांसद हैं.
शिवराज सिंह चौहान का ट्वीट ही मध्य प्रदेश बीजेपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए वेलकम नोट है - 'स्वागत है महाराज, साथ है शिवराज'. ये उनके अपने हिस्से की खुशी हो सकती है, लेकिन ये तो प्रभात झा ही जानते हैं कि उन पर क्या बीत रही है. ऐसा होता तो क्या होता, वैसा होता तो क्या होता की बात और है. ये भी ठीक है कि बीजेपी ने राज्य सभा चुनाव में इस बार किसी को दोबारा टिकट नहीं दिया है - लेकिन असली सच तो यही है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ही प्रभात झा के राज्य सभा की राह में रोड़ा बने हैं. प्रभात झा को इस बात का मलाल तो रहेगा ही, ये बात अलग है कि मीडिया में ये खबर आने के बाद से रफा-दफा करने के लिए सफाई देते फिर रहे हैं. वैसे भी सिंधिया के साथ प्रभात झा का छत्तीस का ही आंकड़ा रहा है.
सिर्फ प्रभात झा ही नहीं, ऐसे कई नेता होंगे जो सिंधिया के बीजेपी में आने से खफा होंगे, लेकिन सबकी पीड़ा अलग अलग होगी. सबसे ज्यादा बेचैन तो गुना से बीजेपी सांसद केपी यादव ही होंगे. वही केपी यादव जो कभी सिंधिया के सांसद प्रतिनिधि हुआ करते थे और कभी गाड़ी के अंदर बैठे सिंधिया के साथ ली गयी सेल्फी वायरल हुई थी. 2019 के चुनाव में पहली बार सिंधिया गुना सीट से केपी यादव से ही हार गये थे - और उसके बाद से ही उनकी पोजीशन बिगड़ने लगी.
अब कोई केपी यादव से पूछे कि सिंधिया के बीजेपी में आ जाने से उन पर क्या बीत रही होगी? केपी यादव की खासियत तो यही है कि वो सिंधिया के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहते थे और इसी वजह से अमित शाह ने उनको टिकट दिया था. अब भी उनकी पहचान यही है कि वो गुना में सिंधिया को हरा कर लोक सभा पहुंचे हैं - लेकिन इससे उनकी हैसियत सिंधिया से ऊपर तो होने से रही. ऐसा करने के लिए उन्हें कुछ बड़ा करना होगा.
ये तो सिंधिया को लेकर शुरुआती खुशी या दुख है. आने वाले दिनों में सिंधिया की वजह से जिस किसी को भी दिक्कत होगी वो अपने हिसाब से रिएक्शन देता रहेगा. बस एक बात पक्की है, सिंधिया चाह कर भी या कुछ भी कर लें वो पोजीशन तो हासिल नहीं ही कर सकते जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं की होती है.
राहुल गांधी ने भी सिंधिया के बारे में मीडिया के जरिये अपनी बात रखी है - 'वो मेरे साथ कॉलेज में थे. मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूं.'
और इस दावे के साथ कि 'मैं ज्योतिरादित्य सिंधिया की विचारधारा को जानता हूं.'
सिंधिया के बीजेपी ज्वाइन करने को लेकर अपने रिएक्शन में राहुल गांधी का कहना है कि ये विचारधारा की लड़ाई है और सिंधिया ने उसे तिलांजलि दे डाली है. सिंधिया ने विचारधारा को अपनी जेब में रखा. सिंधिया ने अपनी विचारधारा को त्याग दिया और आरएसएस के साथ चले गये. सिंधिया अपने सियासी भविष्य को लेकर डरे हुए थे.
राहुल गांधी ने सिंधिया को लेकर भविष्यवाणी भी की, 'वास्तविकता ये है कि वहां सम्मान नहीं मिलेगा और वो संतुष्ट नहीं होंगे. उन्हें इसका एहसास बाद में होगा.'
खुद राहुल गांधी ऐसा कहने की वजह भी बतायी है, 'मुझे पता है क्योंकि लंबे समय से उनका दोस्त हूं. सिंधिया के दिल में कुछ और है - जबान पर कुछ और है.'
सिंधिया को लेकर राहुल गांधी का ये बयान राजनीतिक जरूर है, लेकिन हकीकत के काफी करीब भी लगता है. ये तो सच है कि सिंधिया अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर डरे हुए थे. 2019 के आम चुनाव से पहले तक. वैसे तो तब से जब से राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहते हुए भी फैसलों में खासी दखल रखते थे, लेकिन 2017 के आखिर में जब उनकी अध्यक्ष पद पर ताजपोशी हुई - सिंधिया सबसे खास रहे. हर जगह साये की तरह. दोनों के जैकेट का रंग जरा देखिये.
वे नेता जो बाहर से बीजेपी
केरल के नेता टॉम वडक्कन की एक टिप्पणी बड़ी ही चर्चित रही. खुद बीजेपी ज्वाइन करने से महीने भर पहले ही टॉम वडक्कन ने कहा था कि बीजेपी ज्वाइन करते ही सारे अपराध धुल जाते हैं. कम से कम सिंधिया के मामले में तो ऐसा नहीं है लेकिन कांग्रेस से बीजेपी में आये हिमंता बिस्वा सरमा और तृणमूल कांग्रेस से बीजेपी में आने वाले मुकुल रॉय के बारे में इस पर खूब चर्चा हो चुकी है.
दूसरे दलों ने समय समय पर बीजेपी ज्वाइन करने वाले नेताओं की फेहरिस्त भी काफी लंबी है, लेकिन हिमंता बिस्वा सरमा के अलावा किसी को भी वैसी पोजीशन मिली हो नजर तो नहीं आता. हिमंता बिस्वा सरमा सिर्फ असम नहीं बल्कि पूरे नॉर्थ-ईस्ट में बीजेपी के टास्क फोर्स के चीफ की तरह हैं - और पश्चिम बंगाल तक उनका दबदबा और वैसी ही मौजूदगी महसूस की जाती है. मुकुल रॉय भी बड़ी उम्मीदों के साथ बीजेपी में आये थे और बीजेपी को भी वैसी ही अपेक्षा रही. 2019 में बीजेपी जरूर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने में सफल रही लेकिन उनका असली इम्तिहान अगले साल होने वाला है. लोक सभा में बीजेपी को मिली सीटों में भले ही मुकुल रॉय का भी योगदान रहा हो, लेकिन वो सब मोदी लहर के हिस्से में चला जाता है. अगर 2021 में चूक गये तो कोई पूछने वाला भी नहीं होगा.
कर्नाटक में एसएम कृष्णा को भी बड़े आदर भाव के साथ बीजेपी में लाया गया था. येदियुरप्पा की वजह से बीजेपी लिंगायतों के वोट तो पा लेती रही, लेकिन वोक्कालिगा समुदाय के लोगों के बीच पैठ बन ही नहीं पाती थी. 2018 के कर्नाटक विधानसभा में बीजेपी को सत्ता नहीं मिल पायी तो उसके बाद एसएम कृष्णा का भी कही पता नहीं चला. कांग्रेस से बीजेपी में आने वाले नेताओं अच्छी तादाद है. हरियाणा से बीजेपी में आये चौधरी बीरेंद्र सिंह तो खैर संन्यास ही ले चुके हैं, लेकिन महाराष्ट्र में नारायण राणे और राधाकृष्ण विखे पाटिल हों या यूपी में जगदम्बिका पाल और रीता बहुगुणा जोशी, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज किस हैसियत में हैं बताने की जरूरत नहीं है. यूपी में नरेश अग्रवाल ने समाजवादी पार्टी सिर्फ इसलिए छोड़ दी क्योंकि अखिलेश यादव ने जया बच्चन को राज्य सभा भेज दिया - बीजेपी में नरेश अग्रवाल कहां हैं शायद ही किसी को मालूम हो.
दिल्ली बीजेपी में अभी कपिल मिश्रा को भी हाथोंहाथ लिया जा रहा है क्योंकि वो बदले में वो सब पूरा कर रहे हैं जिसकी उनसे अपेक्षा है. दिल्ली दंगों के बाद मनोज तिवारी और गौतम गंभीर ने जरूर कपिल मिश्रा के खिलाफ टिप्पणी की थी, लेकिन अब वो भी कसीदे पढ़ने लगे हैं - और रही सही कसर तो मीनाक्षी लेखी ने ही पूरी कर दी है.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास भी पूरा मैदान खाली है - वो चाहें तो जो हैसियत हिमंता बिस्वा सरमा की उत्तर-पूर्व में है वैसी ही उत्तर भारत में बना सकते हैं. बस बीजेपी को स्वर्णिम काल पहुंचाने यानी पंचायत से पार्लियामेंट तक सत्ता दिलाने में 24x7 जी जान से जुटे रहना होगा.
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