कहां कैराना और कहां कर्नाटक. दोनों चुनावों की तुलना का तो कोई मतलब नहीं है. फिर भी ताजा चुनावी राजनीति ने दोनों की एक साथ जिक्र की वजह दे दी है. बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही कर्नाटक में जोर आजमाइश उसी हिसाब से कर रहे थे जैसे 2019 का सेमीफाइनल हो. कांग्रेस ने तो अपने कर्नाटक मैनिफेस्टो को 2019 का ब्लू प्रिंट तक बता डाला था.
ये तो पहले से ही माना जा रहा था कि कर्नाटक में खंडित जनादेश आएगा. हुआ भी ऐसा ही कि न तो कांग्रेस सत्ता बरकरार रख सकी, न बीजेपी उससे छीन कर कब्जा जमा सकी. बीजेपी नेता येदियुरप्पा ने कोशिश तो की मगर ढाई दिन में ही भाग खड़े हुए.
किंग मेकर के तौर पर चर्चा में रहे एचडी कुमारस्वामी कहने को तो स्वयं किंग बन चुके हैं लेकिन खुद उन्हें भी भरोसा नहीं कि कुर्सी पर कब तक बैठ पाएंगे. खुद ही कह भी रहे हैं - 'न तो मुझे और न ही कर्नाटक के लोगों को पता है कि ये सरकार कब तक टिक पाएगी?'
2019 की राष्ट्रीय राजनीति का अपना अलग स्वरूप हो सकता है, फिलहाल कैराना उपचुनाव बिलकुल सटीक केस स्टडी जैसा लग रहा है - जहां लड़ाई में एक तरफ बीजेपी है तो दूसरी तरफ सारे राजनीतिक दल एकजुट हो चले हैं.
कैराना शो मैच - 2018
कर्नाटक में विपक्षी एकता की नुमाइश से पहले ही कैराना में उसकी नींव रखी जा चुकी थी. देखा जाये तो कैराना उपचुनाव यूपी की सियासत के सैंपल जैसा लग रहा है.
1. मॉडल चुनाव क्षेत्र - ऐसा नमूना भला कहां देखने को मिलता है जब बीजेपी को सांप्रदायिक बताते हुए पूरा विपक्ष एकजुट हो जाये. बीजेपी के पास भी काम और कारनामा से लेकर श्मशान और कब्रिस्तान पर बहस चलाने का फ्रूटफुल फील्ड सहज तौर पर मिल जाये. धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण के साथ साथ कैराना...
कहां कैराना और कहां कर्नाटक. दोनों चुनावों की तुलना का तो कोई मतलब नहीं है. फिर भी ताजा चुनावी राजनीति ने दोनों की एक साथ जिक्र की वजह दे दी है. बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही कर्नाटक में जोर आजमाइश उसी हिसाब से कर रहे थे जैसे 2019 का सेमीफाइनल हो. कांग्रेस ने तो अपने कर्नाटक मैनिफेस्टो को 2019 का ब्लू प्रिंट तक बता डाला था.
ये तो पहले से ही माना जा रहा था कि कर्नाटक में खंडित जनादेश आएगा. हुआ भी ऐसा ही कि न तो कांग्रेस सत्ता बरकरार रख सकी, न बीजेपी उससे छीन कर कब्जा जमा सकी. बीजेपी नेता येदियुरप्पा ने कोशिश तो की मगर ढाई दिन में ही भाग खड़े हुए.
किंग मेकर के तौर पर चर्चा में रहे एचडी कुमारस्वामी कहने को तो स्वयं किंग बन चुके हैं लेकिन खुद उन्हें भी भरोसा नहीं कि कुर्सी पर कब तक बैठ पाएंगे. खुद ही कह भी रहे हैं - 'न तो मुझे और न ही कर्नाटक के लोगों को पता है कि ये सरकार कब तक टिक पाएगी?'
2019 की राष्ट्रीय राजनीति का अपना अलग स्वरूप हो सकता है, फिलहाल कैराना उपचुनाव बिलकुल सटीक केस स्टडी जैसा लग रहा है - जहां लड़ाई में एक तरफ बीजेपी है तो दूसरी तरफ सारे राजनीतिक दल एकजुट हो चले हैं.
कैराना शो मैच - 2018
कर्नाटक में विपक्षी एकता की नुमाइश से पहले ही कैराना में उसकी नींव रखी जा चुकी थी. देखा जाये तो कैराना उपचुनाव यूपी की सियासत के सैंपल जैसा लग रहा है.
1. मॉडल चुनाव क्षेत्र - ऐसा नमूना भला कहां देखने को मिलता है जब बीजेपी को सांप्रदायिक बताते हुए पूरा विपक्ष एकजुट हो जाये. बीजेपी के पास भी काम और कारनामा से लेकर श्मशान और कब्रिस्तान पर बहस चलाने का फ्रूटफुल फील्ड सहज तौर पर मिल जाये. धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण के साथ साथ कैराना में जातीय समीकरणों को समझने का पूरा का पूरा स्कोप है.
2. मानक वोट बैंक - कैराना में कुल 17 लाख वोटर हैं. इनमें एक तिहाई, करीब पांच लाख मुस्लिम वोटर हैं. जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप और प्रजापति सहित चार लाख पिछड़े वोटर हैं. डेढ़ लाख जाटव दलित हैं और करीब एक लाख गैरजाटव दलित. यहां तीन लाख गुर्जर मतदाता हैं जिनका चुनाव में खासा दबदबा रहता है. 2014 में बीजेपी के हुकुम सिंह के खिलाफ दो मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में थे. समाजवादी पार्टी से नाहिद हसन और बीएसपी से कंवर हसन. मुस्लिम वोटों के बंट जाने का हुकुम सिंह को पूरा फायदा मिला. तब हुकुम सिंह को 5.66 लाख, नाहिद हसन को 3.29 लाख और कंवर हसन को 1.60 लाख वोट मिले थे.
3. पांच साल बाद - 2014 और 2018 में काफी फर्क है. हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह बीजेपी की उम्मीदवार हैं और उनके खिलाफ विपक्ष की साझा उम्मीदवार तबस्सुम हसन हैं. पहले तो निर्दल उम्मीदवार के रूप में कंवर हसन भी मैदान में कूद पड़े थे, लेकिन एक कांग्रेस नेता के मनाने पर मान गये हैं. कंवर हसन और तबस्सुम में देवर-भाभी का रिश्ता है. गणित के हिसाब से देखें तो नाहिद हसन और कंवर हसन के वोटों को जोड़ दें तब भी हुकुम सिंह को मिले वोट ज्यादा हैं. अब यही गणित मृगांका के मामले में भी काम करे ये कोई जरूरी तो नहीं.
4. हुकुम बनाम हसन घराना - कैराना लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की पांच सीटें आती हैं. 2017 में इनमें से चार सीटें बीजेपी के खाते में आईं और एक समाजवादी पार्टी के हिस्से. कैराना विधानसभा सीट से नाहिद हसन ही विधायक हैं - तबस्सुम हसन उनकी मां हैं. तबस्सुम मुनव्वर हसन की पत्नी हैं जो खुद भी कैराना से सांसद रह चुके हैं.
फूलपुर-गोरखपुर और कैराना में फर्क
फूलपुर-गोरखपुर और कैराना में बुनियादी फर्क है. ये बात बीजेपी को भी मालूम है, फिर भी योगी आदित्यनाथ के तेवर पिछले उपचुनाव वाले ही हैं. लगता नहीं कि नतीजों से बीजेपी नेताओं ने कोई सबक लिया हो.
1. बीजेपी की एकतरफा जीत हुई होती - फूलपुर और गोरखपुर को ऐसे समझें कि एक सूबे के सीएम की और दूसरी डिप्टी सीएम की. बीजेपी के हिसाब से देखा जाये फिर तो फूलपुर न सही, गोरखपुर में तो मैच एकतरफा होना चाहिये था. फूलपुर में विपक्ष भले टक्कर दे देता लेकिन गोरखपुर में तो बीजेपी के आगे हर किसी की जमानत जब्त हो जानी चाहिये थी. मालूम नहीं बीजेपी किस मुगालते में रही कि एक विरोधी के उम्मीदवार ने दूसरे के वोट ट्रांसफर के बूते भारी शिकस्त दे डाली.
2. कैराना अजीत सिंह का इलाका है - गोरखपुर और फूलपुर के मुकाबले कैराना में बीजेपी इसलिए भी कमजोर पड़ेगी क्योंकि वो अजीत सिंह का इलाका है. ये ठीक है कि अजीत सिंह को लगातार हार झेलनी पड़ी है, लेकिन इस बार भी बीजेपी को खुला मैदान मिल पाएगा - ऐसी गफलत नहीं पालनी चाहिये.
3. यूपी अकेले भारी पड़ सकता है 2019 में - कर्नाटक और कैराना के बीचोबीच टाइम्स ऑफ इंडिया ने मौजूदा हालात में बीजेपी और विपक्ष के बदलते समीकरण को लेकर एक आकलन पेश किया है. इसके लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जितनी सीटों पर बीजेपी जीती है उनकी संख्या निकाली गई. विपक्ष के एकजुट होने की स्थिति में कुल वोटों की संख्या को जोड़ा गया. नये समीकरण में बीजेपी के सीटों की संख्या में कितना फर्क आ सकता है समझने की कोशिश की गयी है.
आकलन में बीजेपी को सबसे ज्यादा नुकसान यूपी में ही होता नजर आ रहा है. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यूपी में 71 सीटों पर जीत हासिल की थी. विपक्ष के एकजुट होने की स्थिति में बीजेपी को 46 सीटों का नुकसान होता लग रहा है. आकलन में बीजेपी के खाते में सिर्फ 25 सीटें आ रही हैं. 2014 में बीजेपी ने 282 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि आकलन में 2019 में उसे 226 सीटें ही मिलती दिख रही हैं, जिसमें पार्टी को 56 सीटों का नुकसान हो रहा है.
पूरे देश में बीजेपी को जहां 56 सीटों का नुकसान हो रहा है, उसमें अकेले यूपी से वो 46 सीटें गंवाती नजर आ रही है. गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में ज्यादा फासला भले न रहा हो, लेकिन गुजरात के मुकाबले कर्नाटक फैक्टर 2019 में बीजेपी को बड़ा झटका देता प्रतीत हो रहा है.
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