कांग्रेस नेता कमलनाथ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 17 दिसंबर को शपथ लेने जा रहे हैं. मध्य प्रदेश के साथ ही राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत का श्रेय राहुल गांधी को मिल रहा है, मिलना भी चाहिये. अजेय हो चुकी मोदी-शाह की जोड़ी को चुनावी शिकस्त देना नामुमकिन सा हो चला था. लेकिन ये सिर्फ आधा सच लगता है. मध्य प्रदेश के मामले में, पूरा सच तो ये है कि राहुल गांधी की तुलना में कमलनाथ इस जीत में क्रेडिट में बड़े साझीदार हैं.
1. आंकड़े भी गवाह हैं: चुनावी नतीजों के आंकड़े ही बता रहे हैं कि मध्य प्रदेश में कैसी गलाकाट लड़ाई थी. छत्तीसगढ़ में बीजेपी को 15 और कांग्रेस को 68 सीटें मिली हैं - बड़ा फासला रहा. राजस्थान में कांग्रेस को 99 और बीजेपी को 73 सीटें मिली हैं - 16 सीटों का फर्क है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 114 और बीजेपी को 109 सीटें मिलीं - महज 5 सीटों का अंतर. जाहिर है सबसे मुश्किल लड़ाई मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने लड़ी.
2. जब कलेक्टर्स को फोन लगाया: रुझानों में बीजेपी और कांग्रेस में कांटे की टक्कर नजर आयी. तभी कांग्रेस ने गौर किया कि अजय सिंह, अरुण यादव और सुरेश पचौरी जैसे नेता चुनाव हार गये. हालत ये हो गयी कि अजय सिंह के गले लगे तो अरुण यादव रो पड़े. इकनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक एक नेता का ध्यान इस बात पर गया कि कांग्रेस उम्मीदवारों को जीत का सर्टिफिकेट नहीं मिल रहा. स्थिति की गंभीरता समझते कमलनाथ को देर नहीं लगी. कमलनाथ ने कलेक्टर्स को फोन लगाना शुरू किया. कइयों ने फोन स्वीच ऑफ कर दिये. रिपोर्ट के मुताबिक दामोह के कलेक्टर से कमलनाथ ने चार बार बात की, तब भी कांग्रेस उम्मीदवार को सर्टिफिकेट नहीं मिला. फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दामोह के कलेक्टर को नियमों का हवाला देते हुए थोड़े सख्त लहजे में चेतावनी देनी पड़ी.
कांग्रेस नेता कमलनाथ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 17 दिसंबर को शपथ लेने जा रहे हैं. मध्य प्रदेश के साथ ही राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत का श्रेय राहुल गांधी को मिल रहा है, मिलना भी चाहिये. अजेय हो चुकी मोदी-शाह की जोड़ी को चुनावी शिकस्त देना नामुमकिन सा हो चला था. लेकिन ये सिर्फ आधा सच लगता है. मध्य प्रदेश के मामले में, पूरा सच तो ये है कि राहुल गांधी की तुलना में कमलनाथ इस जीत में क्रेडिट में बड़े साझीदार हैं.
1. आंकड़े भी गवाह हैं: चुनावी नतीजों के आंकड़े ही बता रहे हैं कि मध्य प्रदेश में कैसी गलाकाट लड़ाई थी. छत्तीसगढ़ में बीजेपी को 15 और कांग्रेस को 68 सीटें मिली हैं - बड़ा फासला रहा. राजस्थान में कांग्रेस को 99 और बीजेपी को 73 सीटें मिली हैं - 16 सीटों का फर्क है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 114 और बीजेपी को 109 सीटें मिलीं - महज 5 सीटों का अंतर. जाहिर है सबसे मुश्किल लड़ाई मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने लड़ी.
2. जब कलेक्टर्स को फोन लगाया: रुझानों में बीजेपी और कांग्रेस में कांटे की टक्कर नजर आयी. तभी कांग्रेस ने गौर किया कि अजय सिंह, अरुण यादव और सुरेश पचौरी जैसे नेता चुनाव हार गये. हालत ये हो गयी कि अजय सिंह के गले लगे तो अरुण यादव रो पड़े. इकनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक एक नेता का ध्यान इस बात पर गया कि कांग्रेस उम्मीदवारों को जीत का सर्टिफिकेट नहीं मिल रहा. स्थिति की गंभीरता समझते कमलनाथ को देर नहीं लगी. कमलनाथ ने कलेक्टर्स को फोन लगाना शुरू किया. कइयों ने फोन स्वीच ऑफ कर दिये. रिपोर्ट के मुताबिक दामोह के कलेक्टर से कमलनाथ ने चार बार बात की, तब भी कांग्रेस उम्मीदवार को सर्टिफिकेट नहीं मिला. फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दामोह के कलेक्टर को नियमों का हवाला देते हुए थोड़े सख्त लहजे में चेतावनी देनी पड़ी.
3. 11 के बाद 12 दिसंबर: जब कमलनाथ ने देखा कि कलेक्टर उनके कॉल करने की वजह से फोन बंद कर रहे हैं, तो उन्होंने पूरी टीम को सक्रिय किया और नेताओं ने राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी से भी संपर्क किया. इस बीच कमलनाथा का एक बयान खासा चर्चित रहा - '11 के बाद 12 तारीख भी आती है.' दरअसल, अफसरों को कमलनाथ की ओर से ये चेतावनी भरा संदेश रहा. ताकि अधिकारी शिवराज सिंह चौहान के प्रति निष्ठावान न बने रहें. सीनियर पत्रकार राजदीप सरदेसाई से आज तक पर बातचीत में कमलनाथ का कहना रहा कि रिटर्निंग ऑफिसर दबाव में थे. बकौल कमलनाथ, कलेक्टरों से सिर्फ इतना ही कहा कि जिस बात की शपथ ली है, उस पर कायम रहें. जंग जीतने के लिए ये सब भी बहुत जरूरी होता है. ऐसी बातें मौके पर ही पता चलती हैं.
4. संसाधनों के लिए संघर्ष: मुद्दा कोई भी हो, सत्ता पक्ष के खिलाफ संघर्ष बेहद मुश्किल होता है. कहीं लेने के देने न पड़े इसलिए कोई कांग्रेस को चंदा देने तक के लिए राजी न था. कमलनाथ ने चुनाव के दौरान सुनिश्चित किया कि संसाधनों की कमी आड़े न आये. दरअसल, केंद्र की सत्ता से हटने के बाद कांग्रेस को चंदा मिलना काफी कम हो चुका था. आर्थिक रूप से खुद भी काफी मजबूत होने के कारण कमलनाथ इस मोर्चे पर भी पूरी मुस्तैदी से डटे रहे.
5. एकजुटता की ताकत समझायी : प्रदेश की कमान मिलने के बाद कमलनाथ ने अपनी खास स्टाइल में गुटबंदी खत्म करने में जुट गये. कमलनाथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को 'घर फूटे, गंवार लूटे' वाली कहावत समझाने में कामयाब रहे - और कांग्रेस को इस बात से बड़ी राहत मिली. वो भी उस हालत में जब कमलनाथ के समर्थक सिंधिया के समर्थकों से दो-दो हाथ करने पर अक्सर आमादा रहते थे.
कमलनाथ की एक रणनीति और भी काम आयी - 'घर संभालो, हल्ला बोलो'. कार्यकर्ताओं के एकजुट बनाये रखना और सत्ता पक्ष पर सीधा हमला राहुल गांधी और कमलनाथ की रणनीति यही नजर आती है और यही दोनों की सबसे बड़ी चुनौती भी थी. राहुल गांधी को कमलनाथ और सिंधिया को साथ भी रखना था और कमलनाथ को समर्थकों को.
6. शिवराज पर सीधा हमला : जैसे राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर डायरेक्ट अटैक करते रहे, कमलनाथ ने उसी अंदाज में शिवराज सिंह को टारगेट किया. राहुल गांधी जहां प्रधानमंत्री मोदी के लिए 'चौकीदार चोर है' नारे लगवाते रहे, वहीं शिवराज सिंह चौहान के बारे में कमलनाथ कहते फिरते - 'दोस्त हैं लेकिन नालायक हैं.'
7. कार्यकर्ताओं में पैठ का फायदा: लंबे अरसे से राजनीति के चलते कमलनाथ के निजी रिश्ते बहुत हैं. मध्य प्रदेश की राजनीति को करीब से जानने वाले तो कहते हैं कि जिस तरह गांधी परिवार से करीब होकर कमलनाथ ने राजनीति की, उनके करीबी भी उनके नाम पर मध्य प्रदेश की राजनीति में अरसे तक बने रहे. दिग्विजय की विरासत से अलग होकर देखें तो कमलनाथ के सभी अच्छे रिश्ते हैं जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया युवाओं के लिए रोल मॉडल हैं.
गुजरात चुनावों के बाद जब राहुल गांधी ने सचिन पायलट को राजस्थान प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया तो मध्य प्रदेश के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम तय मान लिया गया. उसी बीच कमलनाथ ने राहुल गांधी के सामने एक डिटेल प्रजेंटेशन दिया - और उसी के बाद राहुल गांधी ने मंजूरी और हरी झंडी दे दी थी. अब समझ में आ रहा है कमलनाथ ने कैसे सारी रणनीति पहले से ही तैयार कर ली थी - बाकी था तो बस अच्छे से अमल करना और शिद्दत से अंजाम तक पहुंचाना.
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