जब एक ‘भूमिहार (सवर्ण) कामरेड' कन्हैया ये कहते हैं कि रोहित वेमुला उनके आदर्श हैं और फिर जिस उदारता से बिहार के दलित बुद्धिजीवि व लालू समर्थक एक युवा भूमिहार पर प्यार उड़ेल रहे हैं तो यह ‘सामाजिक न्याय 'भर का मामला नहीं लगता है. जाति व्यवस्था अभी इतनी भी सहज नहीं हुई है जिसे अन्यथा हो जाना चाहिए.
दरअसल, यह भारत में उस परम्परागत मार्क्सवाद के अवसान का भी सूचक है जो अब तक भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी ‘वर्ग' पर ही टिकी हुई थी और जाति की सच्चाई को नकार रही थी. हालांकि यह कोई वैचारिक परिवर्तन के कारण हुआ नहीं लगता है बल्कि इसके मूल में वर्तमान जातिगत लामबंदी और वामपंथ का लगभग अस्ताचल हो जाना लगता है. वामपंथी पार्टियों का जनाधार लगातार कमजोर हो रहा है जिसे वो जाति के खूंटे में बांधकर स्थिर करना चाह रहे हैं. उनके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है फिलहाल और फिर उनकी 'सहयोगी' पार्टी कांग्रेस भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है. इसलिए लाल अब नीले के साथ मिल कर अपनी उपस्थिति बरकरार रखना चाह रहा है.
दूसरी तरफ बिहार चुनाव के बाद मंडल दौर की वह जाति आधारित विमर्श फिर से पटल पर आ चुकी है जिसे उसी दौर में आए आर्थिक उदारीकरण ने कुछ हद तक दबा दिया था. 'जातिगत अस्मिता ' का सवाल फिर से महत्वपूर्ण हो चला है खासकर ‘धार्मिक अस्मिता ' के जबाब में. दिलचस्प बात ये है कि इस पर चुनाव फिर से जीते जाने लगे हैं इसलिए कोई इसके विरोध में जाकर कुर्सी गंवाना नहीं चाहेगा. साथ ही यह भी सच है कि अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थानों में वामपंथियों का कब्जा है और वर्तमान परिदृश्य में चाहे हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की घटना हो या फिर जेएनयू में नारों वाली घटना दोनों ही उच्च शिक्षण संस्थान से जुड़े मामले हैं. दोनों किसी न किसी रूप में उस अवधारणा के निकट है जो सामाजिक न्याय के ‘दावे' से जुड़ती हैं.
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि अभी जो स्थिति बन रही है उसमें दलित-वामपंथ गठजोड़ से जहां वामपंथियों को आमजन में पैठ बना पाने की...
जब एक ‘भूमिहार (सवर्ण) कामरेड' कन्हैया ये कहते हैं कि रोहित वेमुला उनके आदर्श हैं और फिर जिस उदारता से बिहार के दलित बुद्धिजीवि व लालू समर्थक एक युवा भूमिहार पर प्यार उड़ेल रहे हैं तो यह ‘सामाजिक न्याय 'भर का मामला नहीं लगता है. जाति व्यवस्था अभी इतनी भी सहज नहीं हुई है जिसे अन्यथा हो जाना चाहिए.
दरअसल, यह भारत में उस परम्परागत मार्क्सवाद के अवसान का भी सूचक है जो अब तक भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी ‘वर्ग' पर ही टिकी हुई थी और जाति की सच्चाई को नकार रही थी. हालांकि यह कोई वैचारिक परिवर्तन के कारण हुआ नहीं लगता है बल्कि इसके मूल में वर्तमान जातिगत लामबंदी और वामपंथ का लगभग अस्ताचल हो जाना लगता है. वामपंथी पार्टियों का जनाधार लगातार कमजोर हो रहा है जिसे वो जाति के खूंटे में बांधकर स्थिर करना चाह रहे हैं. उनके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है फिलहाल और फिर उनकी 'सहयोगी' पार्टी कांग्रेस भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है. इसलिए लाल अब नीले के साथ मिल कर अपनी उपस्थिति बरकरार रखना चाह रहा है.
दूसरी तरफ बिहार चुनाव के बाद मंडल दौर की वह जाति आधारित विमर्श फिर से पटल पर आ चुकी है जिसे उसी दौर में आए आर्थिक उदारीकरण ने कुछ हद तक दबा दिया था. 'जातिगत अस्मिता ' का सवाल फिर से महत्वपूर्ण हो चला है खासकर ‘धार्मिक अस्मिता ' के जबाब में. दिलचस्प बात ये है कि इस पर चुनाव फिर से जीते जाने लगे हैं इसलिए कोई इसके विरोध में जाकर कुर्सी गंवाना नहीं चाहेगा. साथ ही यह भी सच है कि अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थानों में वामपंथियों का कब्जा है और वर्तमान परिदृश्य में चाहे हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की घटना हो या फिर जेएनयू में नारों वाली घटना दोनों ही उच्च शिक्षण संस्थान से जुड़े मामले हैं. दोनों किसी न किसी रूप में उस अवधारणा के निकट है जो सामाजिक न्याय के ‘दावे' से जुड़ती हैं.
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि अभी जो स्थिति बन रही है उसमें दलित-वामपंथ गठजोड़ से जहां वामपंथियों को आमजन में पैठ बना पाने की उम्मीद है वहीं दलित बुद्धिजीवियों को ये भरोसा है कि अकादमिक जगत में उनकी पकड़ मजबूत होगी. अब ये तो वक्त ही तय करेगा कि किसको क्या मिलेगा? हां, इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प मोड़ है जिसका नतीजा भी काफी रोचक होगा क्योंकि ये ‘स्वाभाविक गठजोड़ ' नहीं है कम से कम क्लासिकल दृष्टि से तो नहीं ही.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.