कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) को कांग्रेस विधानसभा चुनावों में वैसे ही बच-बचाकर इस्तेमाल करती रही, जैसे बीजेपी केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा को. बीजेपी को लखीमपुर खीरी हिंसा के चलते अजय मिश्रा को मंचों पर उतारने से बचती रही, जबकि कांग्रेस (Congress) कन्हैया कुमार पर लगे देशद्रोह के आरोपों के चलते.
जब उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए स्टार प्रचारकों की लिस्ट बनी तो हार्दिक पटेल को तो शामिल कर लिया गया, लेकिन कन्हैया कुमार को जगह नहीं दी गयी. बिहार में तारापुर और कुशेश्वर स्थान में हुए उपचुनाव के लिए कन्हैया कुमार और हार्दिक पटेल के साथ साथ जिग्नेश मेवाणी को भी भेजा गया था.
कांग्रेस की कौन कहे, दोनों में से एक भी सीट तो लालू प्रसाद के चुनाव प्रचार के बावजूद आरजेडी को भी नहीं मिली - लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को इतनी उम्मीद तो रही होगी कि वो कांग्रेस की जमानत तो बचा ही लेंगे. वैसे जमानत तो बोचहां उपचुनाव में भी नहीं बची है. कांग्रेस को तो वहां नोटा से भी कम वोट मिला है.
बिहार कांग्रेस प्रभारी भक्तचरण दास के आरजेडी से गठबंधन तोड़ने की बातों के बीच कन्हैया कुमार पटना पहुंचे थे और पार्टी दफ्तर सदाकत आश्रम से लालू परिवार को भी खूब सुनाया था. तालियां तो कन्हैया कुमार के भाषण में बजती ही हैं, वहां भी खूब बजी.
कन्हैया कुमार को बिहार कांग्रेस की कमान सौंपे जाने की काफी चर्चा है. रेस में तो सीनियर नेता मीरा कुमार भी बतायी जा रही हैं, लेकिन राहुल गांधी के पसंदीदा युवा नेता होने के कारण कन्हैया कुमार को रेस में काफी आगे माना जा रहा है.
लेकिन क्या राहुल गांधी ने ये सोचा है कि कन्हैया कुमार को बिहार की कमान सौंप देने से कितना फायदा हो सकता है? निश्चित रूप से हाल के उपचुनावों में कांग्रेस की हार को कन्हैया कुमार से नहीं जोड़ा जा सकता, लेकिन बिहार में कन्हैया कुमार कर भी क्या सकते हैं?
कन्हैया कुमार भाषण अच्छा देते हैं. मुद्दे उठाते हैं और उन पर बहस भी अच्छी करते हैं. जो राहुल गांधी को सबसे ज्यादा पसंद आता होगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, बीजेपी और संघ के खिलाफ हरदम ही बेहद आक्रामक देखे जाते हैं - लेकिन ये सारी खूबियां बिहार में कांग्रेस के लिए वोट बटोरने में बिलकुल भी काम नहीं आने वाली हैं.
बिहार में कन्हैया कुमार के लिए संभावनाएं
चूंकि बिहार विधानसभा के चुनाव में काफी वक्त है, इसलिए कांग्रेस को मदन मोहन झा की जगह नये अध्यक्ष की 2024 के लिए भी जरूरत महसूस हो रही होगी. नये अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी यही होगी कि लोक सभा की कुछ सीटें पार्टी की झोली में पहुंच जायें - लेकिन इस बात पर निर्भर करेगा कि तब तक राजनीतिक समीकरण कैसे रहते हैं.
अव्वल तो बीजेपी नीतीश कुमार को छेड़ने का जोखिम नहीं उठाना चाहेगी, लेकिन अगर कुछ ऐसा वैसा हुआ तो परिस्थितियां काफी अलग होंगी. बोचहां उपचुनाव के बाद जो राजनीतिक माहौल नजर आ रहा है वो 2019 से तो काफी अलग है.
पसंदीदा नेता का खामियाजा राहुल गांधी पंजाब में भुगत चुके हैं, कन्हैया कुमार और बिहार के मामले में राहुल गांधी का बेहतर फैसला कांग्रेस के लिए फायदेमंद होगा
एमएलसी चुनावों में अच्छे प्रदर्शन के बाद तेजस्वी यादव ने बोचहां की सीट बीजेपी से छीन ली है - और ये आरजेडी के बढ़ते कदमों की आहट लगती है. हो सकता है कि इसके पीछे नीतीश कुमार की उदासीनता भी हो, लेकिन बीजेपी के लिए तो ये बड़ा ही झटका है.
बीजेपी बिहार में भले ही वीआईपी विधायकों को पार्टी ज्वाइन कराकर सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन गयी हो, लेकिन बोचहां में तो आरजेडी ने चुनाव जीत कर अपना नंबर बढ़ाया है - और कांग्रेस इन सब में कहां है?
अगर कन्हैया कुमार ने बहुत मेहनत भी की होती तो कांग्रेस उम्मीदवार को बहुत होता तो नोटा से ज्यादा वोट दिला दिये होते. वैसे ये भी उतना आसान नहीं होता. पिछले दो चुनावों में कांग्रेस को बिहार में जो भी हासिल हुआ है वो या तो नीतीश कुमार की बदौलत या फिर तेजस्वी यादव की बदौलत. अकेले उसकी जो हैसियत है, बीते तीन उपचुनावों के आंकड़े सबूत हैं.
कन्हैया कुमार के साथ साथ बिहार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए जिन दावेदारों के नाम चल रहे हैं, मीरा कुमार ज्यादा ठीक लगती हैं. अभी काम ही क्या है, टाइमपास ही तो करना है. जैसे 2019 के लिए दिल्ली में शीला दीक्षित को कमान सौंपी गयी थी और मदद के लिए कार्यकारी अध्यक्ष साथ में दे दिये गये थे, मीरा कुमार के साथ भी वैसा ही किया जा सकता है.
भविष्य की बात और है, लेकिन मौजूदा हालात में कन्हैया कुमार से बेहतर प्रदर्शन मीरा कुमार का हो सकता है. उनके पास लंबा राजनीतिक अनुभव भी है. लोक सभा अध्यक्ष रह चुकी हैं. ऐसे में एक अच्छी टीम मिले तो बिहार में कांग्रेस को एक आवाज तो दे ही सकती हैं.
अगर कांग्रेस नेतृत्व कन्हैया कुमार में उनकी जाति भूमिहार नजर आ रही है तो ये मृग मरीचिका जैसा ही है. कन्हैया कुमार को जब अपने इलाके बेगूसराय में भूमिहार वोट नहीं मिल सकते तो भला बिहार भर में वो कुछ कर पाएंगे, शक ही होता है.
2019 के चुनाव में कन्हैया कुमार को बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह के मुकाबले आधे वोट भी नहीं मिल पाये थे. जो वोट मिले भी थे उसमें उनकी पार्टी सीपीआई की ही ज्यादा हिस्सेदारी रही. ऐसा भी नहीं कि कन्हैया कुमार के चुनाव प्रचार में कहीं कोई कमी रही. जिग्नेश मेवाणी से लेकर शेहला रशीद तक कन्हैया की पूरी टीम इलाके में डेरा डाले रही. फिल्म स्टार स्वरा भास्कर ने तो अपना जन्म दिन तक बेगूसराय में ही मनाया था.
2024 तक राजनीतिक समीकरण क्या होते हैं अलग बात है, वरना उसी बेगूसराय सीट पर बतौर कांग्रेस उम्मीदवार कन्हैया कुमार पिछली बार जितने वोट जुटा पाएंगे या नहीं, अभी तो भरोसा नहीं ही हो रहा है.
बल्कि, कन्हैया कुमार के मुकाबले मीरा कुमार का दलित चेहरा कांग्रेस के ज्यादा काम आ सकता है. रामविलास पासवान के जाने के बाद दलित वोट का हाल सबके सामने है. अगली बार पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस का क्या हाल होगा, अभी कहना भी मुश्किल है. अगर बीजेपी के टिकट पर उतरते हैं तो बात और है. चिराग पासवान भी लड़खड़ा ही रहे हैं. जीतनराम मांझी जैसे तैसे कुछ सीटें जीत लेते हैं, वरना सब बीजेपी और जेडीयू बांट ले रहे हैं. जो बचेगा वो तेजस्वी यादव के हिस्से जाना पक्का है. हो सकता है तब तक चिराग पासवान भी आरजेडी के साथ हो जायें.
दिल्ली में कन्हैया ज्यादा असरदार होंगे
सूत्रों के हवाले से एक मीडिया रिपोर्ट में बताया गया है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ मीटिंग में प्रशांत किशोर ने बिहार में आरजेडी के साथ गठबंधन न करने की सलाह दी है. प्रशांत किशोर ने बाकी कई राज्यों में कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने को कहा है, लेकिन बिहार को लेकर उनका मानना है कि आरजेडी के साथ जाने से गैर-यादव ओबीसी वोट कांग्रेस से दूर हो जाता है.
प्रशांत किशोर का जो भी आकलन हो या फिर ऐसे सुझाव देने के पीछे जो भी मकसद हो, लेकिन उनकी थ्योरी को तो 2020 का बिहार चुनाव और हाल के यूपी चुनाव के नतीजे ही खारिज कर देते हैं. बिहार जैसा ही कंडीशन यूपी में भी रहा, कांग्रेस का इस बार अखिलेश यादव के साथ गठबंधन नहीं हुआ और पार्टी का बंटाधार हो गया. 2017 में जब वो सपा के साथ चुनाव लड़ी थी तो मोदी लहर में बीजेपी की सरकार बन जाने के बावजूद सात सीटें मिली थीं. बिहार चुनाव में भी आरजेडी के साथ जाने से कांग्रेस को फायदा ही हुआ था.
और कांग्रेस के गठबंधन से परहेज करने की नौबत ही कहां आने वाली है, कन्हैया कुमार को कमान सौंपे जाने के तत्काल बाद कांग्रेस से आरजेडी पूरी तरह नाता तोड़ लेगी. आपको याद होगा कन्हैया कुमार के कांग्रेस ज्वाइन कर लेने भर से लालू यादव कितने खफा थे. ये भी खबर आयी थी कि लालू यादव नहीं चाहते थे कि कन्हैया कुमार को बिहार में कोई बड़ा बैनर मिले जिससे तेजस्वी यादव के लिए मुश्किल खड़ी होने लगे. विरासत की राजनीति की बात और है, लेकिन तेजस्वी यादव के मुकाबले कन्हैया कुमार बड़े नेता तो हो ही जाते हैं, अगर जनाधार कोई पैमाना न हो तो.
हो सकता है कन्हैया कुमार में भी राहुल गांधी को नवजोत सिंह सिद्धू, नारा पटोले और रेवंत रेड्डी का ही अक्स नजर आता हो. दरअसल, ये सभी नेता राहुल गांधी के निडर नेताओं के पैमाने पर फिट हो जाते हैं. सिद्धू से तो सोनिया गांधी ने इस्तीफा लेकर पंजाब कांग्रेस की जिम्मेदारी दूसरे नेता को सौंप दी है, लेकिन महाराष्ट्र में नाना पटोले और तेलंगाना में रेवंत रेड्डी अभी बने हुए हैं.
कन्हैया कुमार जेएनयू कैंपस से छात्र राजनीति के जरिये मुख्यधारा की राजनीति में आये हैं - और ये सब दिल्ली में ही हुआ है. अगर राहुल गांधी दिल्ली में ही कन्हैया कुमार का इस्तेमाल करना चाहें तो ये एक बेहतर तरीका हो सकता है.
वैसे भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से चले जाने और G 23 नेताओं के बागी बन जाने के बाद कांग्रेस के लिए दिल्ली में लड़ने वाले नेताओं की बहुत कमी लग रही है. अब न तो कपिल सिब्बल कांग्रेस के पक्ष में खड़े देखे जाते हैं न गुलाम नबी आदाज - भला अकेले रणदीप सिंह सुरजेवाला कांग्रेस के लिए कितनी लड़ाई लड़ेंगे.
जिन कामों के लिए कांग्रेस छत्तीसगढ़ से भूपेश बघेल और राजस्थान से अशोक गहलोत को दिल्ली बुलाती है या देश के दूसरे हिस्सों में ले जाती है, कन्हैया कुमार ही नहीं सचिन पायलट का भी बेहतर इस्तेमाल हो सकता है.
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