कन्हैया का भाषण सुना, ओजस्वी था. इन परिस्थितियों में इससे बेहतर भाषण हो भी नहीं सकता था. इन दिनों देश भाषणों पर जी रहा है. पिछले एक सप्ताह के दौरान ज्योतिरादित्य सिन्धिया, अनुराग ठाकुर, स्मृति इरानी, सीताराम येचुरी, मायावाती, राहुलगाँधी, नरेन्द्र मोदी आदि के भाषण नितांत चर्चा में रहे. वामपंथ को तिनके का सहारा और विशुद्ध राजनीतिक भूल की उपज कन्हैया का भाषण बहुत कुछ सोचने समझने को बाध्य कर गया.
मैं नहीं जानता कि माननीय अदालत की अपेक्षायें पूरी होंगी अथवा नहीं, मैं यह भी नहीं जानता कि देशद्रोह काण्ड अपनी परिणति तक पहुँचेगा अथवा नहीं, लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि छात्र राजनीति के वामपंथी खेमे को इतना पानी और खाद प्राप्त हुआ है कि यह अमराबेल लच्छा बन कर वास्तविक घटना के उपर लद जायेगी.
बंगाल से विदा होने के बाद त्रिपुरा की आईसीयू में पड़े वामपंथ को कन्हैया ने ऑक्सीजन दिया है और इसे छोटी मोटी घटना नहीं कहा जा सकता, तय है कि इस विश्वविद्यालय से एक नये केजरीवाल युग का ही उदय हो रहा है. जेएनयू के नारों में छिपी लच्छेदार आजादी वैसा ही लेमनचूस है जिसे देश ने लोकपाल के नाम पर हाल ही में चखा है, इस जबरदस्त शो और बेहतरीन मीडिया मैनेजमेंट के बीच जो कुछ दबाया जाना था वह बहुत बेहतर तरीके से किया जा चुका है. यकीन मानिये कोर्ट का फैसला कुछ भी हो अपकी स्क्रीन को ब्लैक कर देने वाले चैनल एक दो दिन में ही सिद्ध कर देंगे कि “भारत तेरे टुकडे होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह”, “भारत की बरबादी तक जंग रहेगी” जैसे नारे कम्पस में लगे ही नहीं वह तो आकाशवाणी थी.
भारत के संविधान पर और अभिव्यक्ति की आजादी पर विश्वास अधिक गहरा हुआ है. जेएनयू का कोई विद्यार्थी ठसके से पूरी मीडिया के सामने और अदालत की “सुधर जाने” की हिदायतों के बाद भी प्रधानमंत्री को हिटलर कह सकता है तो क्या यह हमारे ही संविधान प्रदत्त बोलने की आजादी पर गर्व करने की बात नहीं? माओ के दौर में चीन में चिल्ला कर दिखा देते यही सबकुछ वहाँ की किसी...
कन्हैया का भाषण सुना, ओजस्वी था. इन परिस्थितियों में इससे बेहतर भाषण हो भी नहीं सकता था. इन दिनों देश भाषणों पर जी रहा है. पिछले एक सप्ताह के दौरान ज्योतिरादित्य सिन्धिया, अनुराग ठाकुर, स्मृति इरानी, सीताराम येचुरी, मायावाती, राहुलगाँधी, नरेन्द्र मोदी आदि के भाषण नितांत चर्चा में रहे. वामपंथ को तिनके का सहारा और विशुद्ध राजनीतिक भूल की उपज कन्हैया का भाषण बहुत कुछ सोचने समझने को बाध्य कर गया.
मैं नहीं जानता कि माननीय अदालत की अपेक्षायें पूरी होंगी अथवा नहीं, मैं यह भी नहीं जानता कि देशद्रोह काण्ड अपनी परिणति तक पहुँचेगा अथवा नहीं, लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि छात्र राजनीति के वामपंथी खेमे को इतना पानी और खाद प्राप्त हुआ है कि यह अमराबेल लच्छा बन कर वास्तविक घटना के उपर लद जायेगी.
बंगाल से विदा होने के बाद त्रिपुरा की आईसीयू में पड़े वामपंथ को कन्हैया ने ऑक्सीजन दिया है और इसे छोटी मोटी घटना नहीं कहा जा सकता, तय है कि इस विश्वविद्यालय से एक नये केजरीवाल युग का ही उदय हो रहा है. जेएनयू के नारों में छिपी लच्छेदार आजादी वैसा ही लेमनचूस है जिसे देश ने लोकपाल के नाम पर हाल ही में चखा है, इस जबरदस्त शो और बेहतरीन मीडिया मैनेजमेंट के बीच जो कुछ दबाया जाना था वह बहुत बेहतर तरीके से किया जा चुका है. यकीन मानिये कोर्ट का फैसला कुछ भी हो अपकी स्क्रीन को ब्लैक कर देने वाले चैनल एक दो दिन में ही सिद्ध कर देंगे कि “भारत तेरे टुकडे होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह”, “भारत की बरबादी तक जंग रहेगी” जैसे नारे कम्पस में लगे ही नहीं वह तो आकाशवाणी थी.
भारत के संविधान पर और अभिव्यक्ति की आजादी पर विश्वास अधिक गहरा हुआ है. जेएनयू का कोई विद्यार्थी ठसके से पूरी मीडिया के सामने और अदालत की “सुधर जाने” की हिदायतों के बाद भी प्रधानमंत्री को हिटलर कह सकता है तो क्या यह हमारे ही संविधान प्रदत्त बोलने की आजादी पर गर्व करने की बात नहीं? माओ के दौर में चीन में चिल्ला कर दिखा देते यही सबकुछ वहाँ की किसी युनिवर्सिटी में, वह अब तक टैंक चढा कर नेस्तनबूद कर चुका होता और कहीं से चूं भी न होती. कम्युनिष्टों को तो संविधान पर आरम्भ से ही अनास्था रही है वह तो कानूनी कार्रवाई का डर किसी से कुछ भी बुलवा ले.
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर कहते हैं – “कम्युनिष्ट चाहते हैं कि संविधान सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिये. वे संविधान की आलोचना इस लिये करते हैं क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है (डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर: राईटिंग एण्ड स्पीचेज़, भाग – 13, पृ – 1210). मुझे अच्छा लगा नीले और लाल बाउल की कहानी सुनकर क्योंकि यह मजबूरन युति है, अस्वाभाविक युति है लेकिन संविधान अपनी गोंद से जितनी असहमतियों को चिपका ले, “भारत तेरे टुकडे होंते” की अवधारणा से तो अच्छा है.
भारतीय संविधान हिटलर पैदा कर ही नहीं सकता. भारत में एकेडेमिक्स के तथाकथित सबसे बडे केन्द्र जेएनयू से घोषित वामपंथियों ने बात उठाई है तो आज हिटलर पर भी और लेनिन-स्टालिन पर भी बात की जानी चाहिये. शंकर शरण लिखते हैं कि “हिटलरी नाजीवाद ने जितने भयानक कुकर्म किये वह लगभग सबकेसब सोवियत कम्युनिज्म की नकल थे. लेनिन और स्टालिन ने जिन क्रूरताओं का आविष्कार व प्रयोग किये, वह हिटलरी जुल्मों से बढ कर और व्यापक थे. महान लेखक और इतिहासकार सोल्झेनित्सिन ने अपने अपूर्व ग्रंथ गुलाग आर्किपेलाग में प्रामाणिक रूप से यह दिखाया है. केवल संख्याओं को ही लें तो नाजियों के ढाई करोड की तुलना में कम्युनिष्टों ने दस करोड इंसानों को मारा.
दमन, क्रूरता और यातना के स्थूल और सूक्ष्म रूपों का अध्ययन करें तो जर्मनी और इटली के फासिस्ट, रूसी और चीनी कम्युनिष्टों से बहुत पीछे थे (साम्यवाद के सौ अपराध, शंकर शरण, पृ – 5). भारत में वाम नृशंसताओं को समझना में तो वहाँ देखिये जहाँ उन्हें सत्ता मिली है. त्रिपुरा में नोटों के बिस्तर पर सोने वाला विधायक भी वामपंथी था, बंगाल को मध्ययुग तक पहुँचाने वाला शासन भी वामपंथी था.
बस्तर में समानांतर सरकार चलाने का दावा करने वाले माओवादियों ने मुखबिरी के शक में ही कितने ग्रामीणों को मारा है उसकी भी संख्या वाम-हत्याओं के साथ गिनिये और ठहरिये यह भी तो सोचिये कि अपने ही माँ-बाप के सामने केरल राज्य में संघ का एक कार्यकर्ता वामपंथियो द्वारा उनकी क्लास-एनिमी एलिमिनेशन थ्योरी के तहत पूरी निर्ममता से क्यों मार डाला जाता है, है न यह सब भी फासीवाद या कि लेनिन-माओ-स्टालिन का भारतीय संस्करण? कन्हैया बहुत शानदार भाषण था तुम्हारा, तालियाँ, शोर में मूल बहस अच्छी तरह हजम कर ली गयी है.
अच्छा लगा कि देश के संविधान पर देशद्रोह के आरोपी कन्हैया कुमार को गहरी आस्था है, इस देश के पूर्व सैनिकों को भी है. हर कोई अच्छा और लच्छा-मलाईदार भाषण नहीं दे पाता इसलिये आसानी होती है इस देश के कथित बुद्धिजीवियों को कि किसी के आँसू को मगरमच्छ का कह दे, विपरीत आवाज़ों को प्रायोजित बता दे, सैनिकों की सेवाओं को तालियों के शोर में नकार दे, उनके बलिदानों को ‘दे रगडा’ कर दे. अगर नि:शर्त जमानत मिल जाती तो देश के लाल-खेमे को कानून व्यवस्था पर गहरा भरोसा हो जाता.
अदालत ने नसीहतें दे दीं तो किसी ने लिखा जज संघी है तो किसी ने लिखा जज फिल्मी है तो किसी ने जजमेंट में उद्धरित गीत पर सवाल उठाये तो किसी ने कहा कि अदालत देशप्रेम न सिखाये. नहीं; बंगाल मांगे आजादी, केरल मांगे आजादी, असाम मांगे आजादी, कश्मीर मांगे आजादी असल में देश के भीतर वेटिकन बन चुके और कुख्यात हो चुके विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय एकता से जुडा गीत थे? वे रोटी और गरीबी की आवाज थे?...छोडो भी. ऐसी बौद्धिकता चतुराई और इस प्रकार की राजनीतियाँ क्या पहले नहीं हुई?
वाह-वाह कन्हैया! क्या भाषण था तुम्हारा के जयघोष के साथ मैं दो संदर्भ उपसंहार में ले रहा हूँ. वापपंथियों को बी टी रणदिवे तो याद ही होंगे शायद सुभाष चन्द्र बोस भी? नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने अपने एक भाषण में कहा था – “साम्यवाद की विश्वव्यापी तथा मानवीय अपील के बाद भी साम्यवाद भारत में कोई स्थान नहीं बना पाया है मुख्यत: क्योंकि उनके द्वारा अपनाये गये तरीके एवं युक्तियाँ ऐसे हैं जो दुश्मन बनाते हैं न कि मित्रों और सहयोगियों को जीतते हैं (5.04.1931, अखिल भारतीय नवयुवक भारत सभा, कराची में दिया गया भाषण अंश). भारत के पूर्व सैनिकों की निष्ठा और उनके स्वाभिमान को ललकारना भी कन्हैया जी वामपंथियों के लिये नयी बात नहीं, वे तो ताजी को भी तेजो का कुत्ता कह चुके हैं.
राष्ट्रीय सहारा के 10.08.2002 में प्रकाशित आलेख “वामपंथियों की चुप्पी का मतलब” में लिखा गया था कि “मार्क्सवादी नेता बी टी रणदिवे ने सुभाष को जापानियों का अनुचर तथा आजाद हिन्द फौज को लुटेरी सेना कहा था. पार्टी के अखबारों के कई कार्टूनों में उन्हें जापानियों की पीठ पर सवार खून के प्यासे शैतान के रूप में दिखाया गया. एक कार्टून में सुभाष चन्द्र बोस को हिटलर के नियंत्रण में गाँधी टोपी पहने एक कुत्ता बना कर दिखाया गया” (साम्यवाद का सच, सतीश मित्तल पृ – 78). ये उदाहरण गड़े मुर्दे उखाडने के लिये नहीं है बल्कि केवल यह बताने के लिये हैं कि रणदिवे इस देश के युवाओं का हीरो नहीं बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हैं. रही तुम्हारी बात तो नया अवतार है भाई, जय कन्हैयाला ‘लाल’ की, मंगाओ हाथी घोड़ा पालकी....
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