कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) और नवजोत सिंह सिद्धू में कुछ बुनियादी फर्क तो हैं, लेकिन नेशनलिज्म के नैरेटिव में दोनों एक ही छोर पर नजर आते हैं - और ये बात दोनों को ही खास मिजाज वाले इलाकों में फासले से चलने को मजबूर भी करती है.
कन्हैया कुमार भी बिहार में कांग्रेस के लिए करीब करीब वैसे ही मोर्चे पर डट चुके हैं, जैसे नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब में - और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को दोनों ही बराबर मात्रा में प्रिय लगते हैं क्योंकि दोनों ही मोदी विरोध का बिगुल हाई फ्रीक्वेंसी में ही बजाया करते हैं.
कन्हैया कुमार की जो छवि उनके खिलाफ चल रहे देशद्रोह के मुकदमे के चलते बन गयी है, नवजोत सिंह सिद्धू के पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा से गले मिलने के बाद से बनी हुई है - और ये इमेज ही चुनाव के वक्त कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए परहेज की बड़ी वजह बन रही है.
कन्हैया कुमार और नवजोत सिंह सिद्धू दोनों ही हिमाचल प्रदेश में होने जा रहे उपचुनावों के लिए बनी स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल हैं, लेकिन मंडी संसदीय सीट सहित जुब्बल-कोटखाई, फतेहपुर और अर्की विधानसभा उपचुनाव में किस्मत आजमा रहे उम्मीदवार दोनों ही नेताओं को प्रचार के लिए बुलाने से कतराने लगे हैं. हुआ ये कि कांग्रेस के हिमाचल प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला मंडी और फतेहपुर में जब चुनाव प्रचार के सिलसिले में पहुंचे थे तो उनके साथ कन्हैया कुमार भी गये हुए थे. तभी बीजेपी नेता कन्हैया के पुराने बयानों को लेकर बीजेपी नेता उनको निशाना बनाने लगे. कांग्रेस का सोशल मीडिया सेल तो कन्हैया कुमार के साथ साथ कांग्रेस को भी घेरने लगा - उसके बाद से कांग्रेस प्रत्याशी कन्हैया को लेकर कोई जोखिम लेने के पक्ष में नहीं हैं.
कन्हैया कुमार की ही तरह कांग्रेस प्रत्याशी नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर भी नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं - आम चुनाव के बाद हुए 2019 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान सिद्धू के खिलाफ ऐसी ही राय कांग्रेस प्रत्याशियों की बन गयी थी और वे सिद्धू को चुनाव प्रचार...
कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) और नवजोत सिंह सिद्धू में कुछ बुनियादी फर्क तो हैं, लेकिन नेशनलिज्म के नैरेटिव में दोनों एक ही छोर पर नजर आते हैं - और ये बात दोनों को ही खास मिजाज वाले इलाकों में फासले से चलने को मजबूर भी करती है.
कन्हैया कुमार भी बिहार में कांग्रेस के लिए करीब करीब वैसे ही मोर्चे पर डट चुके हैं, जैसे नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब में - और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को दोनों ही बराबर मात्रा में प्रिय लगते हैं क्योंकि दोनों ही मोदी विरोध का बिगुल हाई फ्रीक्वेंसी में ही बजाया करते हैं.
कन्हैया कुमार की जो छवि उनके खिलाफ चल रहे देशद्रोह के मुकदमे के चलते बन गयी है, नवजोत सिंह सिद्धू के पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा से गले मिलने के बाद से बनी हुई है - और ये इमेज ही चुनाव के वक्त कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए परहेज की बड़ी वजह बन रही है.
कन्हैया कुमार और नवजोत सिंह सिद्धू दोनों ही हिमाचल प्रदेश में होने जा रहे उपचुनावों के लिए बनी स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल हैं, लेकिन मंडी संसदीय सीट सहित जुब्बल-कोटखाई, फतेहपुर और अर्की विधानसभा उपचुनाव में किस्मत आजमा रहे उम्मीदवार दोनों ही नेताओं को प्रचार के लिए बुलाने से कतराने लगे हैं. हुआ ये कि कांग्रेस के हिमाचल प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला मंडी और फतेहपुर में जब चुनाव प्रचार के सिलसिले में पहुंचे थे तो उनके साथ कन्हैया कुमार भी गये हुए थे. तभी बीजेपी नेता कन्हैया के पुराने बयानों को लेकर बीजेपी नेता उनको निशाना बनाने लगे. कांग्रेस का सोशल मीडिया सेल तो कन्हैया कुमार के साथ साथ कांग्रेस को भी घेरने लगा - उसके बाद से कांग्रेस प्रत्याशी कन्हैया को लेकर कोई जोखिम लेने के पक्ष में नहीं हैं.
कन्हैया कुमार की ही तरह कांग्रेस प्रत्याशी नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर भी नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं - आम चुनाव के बाद हुए 2019 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान सिद्धू के खिलाफ ऐसी ही राय कांग्रेस प्रत्याशियों की बन गयी थी और वे सिद्धू को चुनाव प्रचार के लिए बुलाने से मना कर दिये थे. ऐसा इसलिए भी हुआ था क्योंकि रोहतक में सिद्धू की सभा में पाकिस्तान विरोधी नारेबाजी के साथ साथ एक महिला ने सिद्धू की तरफ चप्पल भी फेंक दिया था.
बिहार में कोई मजबूत नेता होने के नाते कन्हैया कुमार को नवजोत सिंह सिद्धू जैसी कोई चुनौती तो नहीं आ रही है, लेकिन वहां अलग तरीके की मुश्किलों से जूझना पड़ रहा है - बिहार से बदलाव की बात करने वाले कन्हैया कुमार के सामने मुश्किल टास्क ये है कि जिस बात को लेकर वो तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) पर हमला बोल रहे हैं, ऐन उसी वक्त उसी मुद्दे पर उनको राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का बचाव भी करना पड़ रहा है - और हाल फिलहाल कन्हैया कुमार के लिए ये बहुत बड़ा चैलेंज साबित हो रहा है.
काफी कुछ बदल गया, लेकिन...
चैरिटी बिगिन्स ऐट होम - ये सोच कर कन्हैया कुमार देश में बदलाव का नारा बुलंद करने के लिए कह रहे हैं कि ये काम बिहार से ही होने जा रहा है. वैसे भी चुनावी माहौल में ऐसी बातें हमेशा ही सुनायी देती रही हैं. बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं लगती, पश्चिम बंगाल चुनाव में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बंगाल में परिवर्तन के लिए बंगाल से बदलाव की बातें कई बार समझाते देखे गये - और ममता बनर्जी तो परिवर्तन के नारे के साथ ही बरसों के लेफ्ट शासन को बेदखल कर सत्ता तक पहुंचीं भी.
अपने होम स्टेट से बदलाव की बात कर रहे कन्हैया कुमार में भी काफी बदलाव देखने को मिला है - कन्हैया कुमार ने ये महज लिखने भर के लिए नहीं रहने दिया है कि वो लेफ्ट से सेंटर में पहुंच चुके हैं - ये चीज कन्हैया कुमार के हाव-भाव और बात-व्यवहार से झलकने लगी है.
जो कन्हैया कुमार जेएनयू कैंपस से लेकर बेगूसराय तक लोगों के बीच हवाई चप्पल में नजर आ रहे थे - वही कन्हैया कुमार इन्स्टाग्राम पर एक तस्वीर शेयर करते हैं जो उनकी लाइफस्टाइल अपग्रेड को रुपायित करती है.
तस्वीर में कन्हैया कुमार एक कुर्सी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं. किताब का ले आउट बता रहा है कि कोई पोएट्री की किताब हो सकती है - लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि सोफा पर पैर फैलाकर तो बैठे ही हैं - पैरों में मोजे भी हैं. सही मायने में ये तस्वीर ही कन्हैया कुमार के लेफ्ट से सेंटर में पहुंचने की गवाही दे रही है.
जाहिर है वेश-भूषा और भाषा बदल जाने के बाद ही वैचारिक बदलाव भी एक सूत्र में पिरोया जा सकेगा, वरना सब मिसफिट होकर कदम कदम पर हिलता डुलता रहेगा - और जब तक व्यक्ति में सांगोपांग परिवर्तन न आये तब तक वो किसी नये विचारधारा का मजबूत वाहक भी नहीं बन सकता.
बचपन से ही वामपंथी विचारधारा से रुझान रखने वाले कन्हैया कुमार ने जेएनयू की छात्र राजनीति में भी वही राह पकड़े रखी और धीरे धीरे खड़े हुए और छात्रसंघ अध्यक्ष तक बन गये. बेगूसराय से 2029 में उनके सीपीआई उम्मीदवार के तौर लोक सभा चुनाव लड़ते वक्त भी उनकी एक तस्वीर का बार बार जिक्र होता रहा जिसमें वो एबी वर्धन से पुरस्कार लेते देखे जा सकते हैं.
बेगूसराय की हार से तो बहुत फर्क नहीं पड़ा होगा, लेकिन बाद के दिनों में लालू यादव का रिजर्वेशन उनको भारी पड़ने लगा. जब 2020 के विधानसभा चुनाव में भी बिहार में उनको मनमाफिक चुनाव प्रचार का मौका नहीं मिल सका. जाहिर है पाला बदलने का फैसला लेने में ये फैक्टर ही निर्णायक साबित हुए होंगे.
30 अक्टूबर को बिहार की तारापुर और कुशेश्वर स्थान सीट पर उपचुनाव होने जा रहे हैं और कन्हैया कुमार राहुल गांधी की तरफ से OSD के रोल में नजर आ रहे हैं. कन्हैया की टीम में उनके ही दो पुराने साथियों हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी को भी शामिल किया गया है.
पटना से सिकंदरा होते तारापुर जाने के रास्ते में मिले कांग्रेस कार्यकर्ताओं कन्हैया कुमार समझा रहे थे कि बदलाव अब बिहार से शुरू होगा - कांग्रेस कुशेश्वर स्थान और तारापुर दोनों उपचुनाव जीतेगी और फिर 2024 संसदीय चुनाव भी.
बीजेपी को देश में संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हुए कन्हैया कुमार ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को कुछ टिप्स भी दिये, मसलन - 'अपनी ऊर्जा इधर-उधर खर्च करने की बजाय हम सभी को अपनी ऊर्जा एक ही स्थान पर केंद्रित करनी चाहिये.'
बिहार में बदलाव की जरूरत कन्हैया कुमार ने कुछ ऐसे समझायी, 'हमारे यहां रोजगार नहीं है, इसलिए हमें बाहर जाना पड़ता है... इलाज के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की अच्छी व्यवस्था नहीं है... पढ़ाई व्यवस्था अच्छी नहीं है... इसीलिए हम बाहर जाते हैं... पलायन करते हैं... बाहर जाकर हम बिहारी मेहनत करते हैं... बदले में आत्मसम्मान मिलना चाहिये, लेकिन गाली मिलती है... बिहार की ये स्थिति पिछले कई दशक से बदली नहीं है - यही बदलाव चाहिये, यही हमारी प्रमुख लड़ाई है.'
28 सितंबर 2021 को शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जयंती के मौके पर जब लेफ्ट का लाल गपछा त्याग कर कांग्रेस का चोला धारण कर लिया तो सबसे पहले यही समझाने की कोशिश की कि वो कांग्रेस को बचाने की लड़ाई में शामिल हो रहे और ये भी समझाया कि कांग्रेस को बचाना जरूरी क्यों है - 'अगर देश की सबसे पुरानी पार्टी बचेगी तो ही भारत बचेगा.'
...और अब तो कन्हैया कुमार को अपने नये नवेले नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को फॉलो करते हुए सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ भी कदम बढ़ाना पड़ा है - वैसे भी जिस तरीके से देश में राजनीतिक माहौल बदल चुका है, अभी तो ऐसे कई संयोग आएंगे और प्रयोग करने पड़ेंगे.
कन्हैया कुमार कांग्रेस को बचाने की लड़ाई पर निकले हैं, लेकिन मुश्किल ये है कि कन्हैया कुमार को कांग्रेस से पहले तो राहुल गांधी को ही बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है.
ये तो बुनियाद ही गड़बड़ है
बदलाव की ये बयार ऐसी बहने लगी है कि कन्हैया कुमार खुद फंसते भी जा रहे हैं. ये कन्हैया कुमार ही हैं जो लालू यादव और सोनिया गांधी के बरसों पुराने मजबूत राजनीतिक रिश्ते को भी अंदर तक झकझोर कर रख दिया है.
चूंकि तेजस्वी यादव की बराबरी में किसी भी युवा नेता का बिहार से उभरना लालू यादव को नहीं पसंद रहा, लिहाजा वो कन्हैया को कांग्रेस में लिये जाने के भी खिलाफ थे, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने परवाह तक नहीं की - और कन्हैया को कांग्रेस में शामिल कर लिया गया. बाद में महागठबंधन में साथी आरजेडी की तरफ से जो कुछ हो सकता था किया गया, लेकिन तभी बिहार कांग्रेस प्रभारी भक्तचरण दास ने महागठबंधन छोड़ने की घोषणा कर डाली - फिर लालू यादव ने कांग्रेस नेतृत्व के साथ टूटते रिश्ते को बचाने की कोशिश में सोनिया गांधी से फोन पर बात भी की, लेकिन वो कन्हैया कुमार की जबान पर लगाम नहीं लगा सके.
हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी के साथ पटना पहुंचे कन्हैया कुमार ने न आगे देखा न पीछे तेजस्वी यादव के बहाने सीधे लालू यादव पर ही हमला बोल दिया - कन्हैया कुमार अपने भाषण में तेजस्वी यादव या लालू यादव का नाम तो नहीं ले रहे थे, लेकिन जिन चीजों का जोर देकर जिक्र कर रहे थे वे तो लालू परिवार से ही जुड़ी हैं.
कन्हैया कुमार बिहार कांग्रेस के दफ्तर सदाकत आश्रम में कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे, "जिसके पास बाबूजी की थाती है न... सब अपने छाती में उसको लपेट लिया है - कोई बांटने के लिए उसको तैयार नहीं है."
ये तो सीधे सीधे वंशवाद की राजनीति और लालू परिवार पर हमला था. बिलकुल बीजेपी की तरह, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेजस्वी यादव के लिए बिहार चुनाव के दौरान कहा था - 'जंगलराज के युवराज.'
ये बड़ा दिलचस्प रहा कि बिहार में आरजेडी और यूपी में समाजवादी पार्टी से पहले तो वंशवाद की राजनीति को लेकर कांग्रेस ही बीजेपी नेतृत्व के निशाने पर रही है. बीजेपी का तो हक भी बनता है, लेकिन किसी कांग्रेस नेता का किसी राजनीतिक विरोधी को उसी मुद्दे पर हमला करना जिसके लिए उसकी पार्टी का नेतृत्व ही निशाने पर रहा हो - ये स्टैंड लेना अपनेआप में ही अजीब लगता है.
फिर भी कन्हैया कुमार ये काम कर रहे हैं. ये काम करना भी मजबूरी है. कन्हैया कुमार को लालू परिवार से बदला लेना है और खुद को बिहार में भी स्थापित करना है, देश में तो सभी लोग उनको पहले से ही जानते हैं. अब जानने की वजह तो कोई भी हो सकती है. सही भी और गलत भी.
कन्हैया कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वंशवाद के मुद्दे पर डबल स्टैंडर्ड पॉलिटिक्स करनी पड़ रही है - एक ही पैमाने पर कन्हैया कुमार को तेजस्वी यादव को कठघरे में खड़ा करना है और ऐन उसी वक्त राहुल गांधी का वंशवाद की राजनीति से पूरी तरह बचाव भी करना है.
वाक्पटुता और भाषण का हुनर तो है ही कन्हैया कुमार के पास, इसलिए राहुल गांधी के बचाव का रास्ता भी निकाल ले रहे हैं. कहते हैं, एक मात्र नेता राहुल गांधी... जो हाथ... बांह फैलाकर हम जैसे लोगों को गले लगाता है.'
फिलहाल तो बदलाव की यही बयार कन्हैया कुमार बिहार से बहा रहे हैं - और अच्छी बात ये है कि शुरुआत स्वयं से ही कर रहे हैं!
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