हालांकि अभी तक चुनाव आयोग ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं किया है लेकिन सियासी रण जीतने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं. जहां कांग्रेस अपनी सत्ता बचाए रखने की जद्दोजहद में लगी हुई है, तो वहीं भाजपा कांग्रेस का सुपड़ा साफ करने की दिशा में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है. एक तरफ कर्नाटक के वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया राज्य में अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए एक के बाद एक सियासी बिसात बिछाने में जुटे हैं तो वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी उनका बखूबी साथ भी दे रहे है. जब से सिद्धारमैया ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्ज़ा देने का ऐलान किया तब से राहुल गांधी लिंगायत बहुल्य इलाकों का दौरा कर रहे हैं ताकि उनका सौ फीसदी वोट चुनावों में मिल सके. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस के 'लिंगायत कार्ड' का तोड़ ढूंढने के लिए लगातार कर्नाटक और वहां के मठों का दौरा कर रहे हैं.
लेकिन इन सबके बीच हम आज कर्नाटक के राजनीतिक इतिहास के बारे में जानने कि कोशिश करते हैं जो स्पष्ट रूप से दिखाता है कि वर्ष 1978 से कर्नाटक और दिल्ली की सत्ता एक साथ किसी भी दल को नहीं मिली है. हां वर्ष 2013 में कर्नाटक में कांग्रेस की वापसी तब हुई जब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी, लेकिन ठीक एक साल बाद ही यूपीए सरकार की विदाई भी हो गई.
कर्नाटक और दिल्ली सरकार का यह उल्टा रिश्ता 1978 से प्रारम्भ हुआ. 1977 की लहर में जनता पार्टी ने दिल्ली पर कब्ज़ा जमाया था लेकिन इसके उलट जब कर्नाटक में 1978 में विधानसभा चुनाव हुए तो वहां कांग्रेस ने 149 सीटें जीतकर सरकार बना ली थी. यानी...
हालांकि अभी तक चुनाव आयोग ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं किया है लेकिन सियासी रण जीतने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं. जहां कांग्रेस अपनी सत्ता बचाए रखने की जद्दोजहद में लगी हुई है, तो वहीं भाजपा कांग्रेस का सुपड़ा साफ करने की दिशा में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है. एक तरफ कर्नाटक के वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया राज्य में अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए एक के बाद एक सियासी बिसात बिछाने में जुटे हैं तो वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी उनका बखूबी साथ भी दे रहे है. जब से सिद्धारमैया ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्ज़ा देने का ऐलान किया तब से राहुल गांधी लिंगायत बहुल्य इलाकों का दौरा कर रहे हैं ताकि उनका सौ फीसदी वोट चुनावों में मिल सके. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस के 'लिंगायत कार्ड' का तोड़ ढूंढने के लिए लगातार कर्नाटक और वहां के मठों का दौरा कर रहे हैं.
लेकिन इन सबके बीच हम आज कर्नाटक के राजनीतिक इतिहास के बारे में जानने कि कोशिश करते हैं जो स्पष्ट रूप से दिखाता है कि वर्ष 1978 से कर्नाटक और दिल्ली की सत्ता एक साथ किसी भी दल को नहीं मिली है. हां वर्ष 2013 में कर्नाटक में कांग्रेस की वापसी तब हुई जब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी, लेकिन ठीक एक साल बाद ही यूपीए सरकार की विदाई भी हो गई.
कर्नाटक और दिल्ली सरकार का यह उल्टा रिश्ता 1978 से प्रारम्भ हुआ. 1977 की लहर में जनता पार्टी ने दिल्ली पर कब्ज़ा जमाया था लेकिन इसके उलट जब कर्नाटक में 1978 में विधानसभा चुनाव हुए तो वहां कांग्रेस ने 149 सीटें जीतकर सरकार बना ली थी. यानी कर्नाटक की जनता पर जनता पार्टी के लहर का असर नहीं रहा.
जब कर्नाटक में 1983 में विधानसभा चुनाव हुआ तब जनता पार्टी सबसे ज़्यादा सीटें जीती और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई. उस वक़्त केंद्र में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. इस बार फिर से कर्नाटक ने उल्टी चाल चली.
अब बात 1985 कर्नाटक विधानसभा चुनाव की. इस चुनाव में जनता पार्टी ने 139 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में राज्य में सरकार का गठन किया. इससे पहले इंदिरा गांधी के हत्या के बाद हुए 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने सहानुभूति लहर के सहारे 404 सीटें जीतीं. यहां तक कि कर्नाटक की 28 सीटों में से 24 सीटें जीती थीं लेकिन कर्नाटक की जनता ने अपना ट्रेंड कायम रखते हुए इंदिरा लहर को भी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया.
जब कर्नाटक में 1989 में विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 178 सीटें जीतते हुए यहां सरकार बनाई लेकिन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई और जनता दल की सरकार बनी. इस तरह कर्नाटक का उल्टा व्यवहार बरकरार रहा.
इसके बाद 1994 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जनता दल ने 178 सीटें जीतकर सरकार बनाई. उस समय दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी. ठीक उसी प्रकार 1999 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 132 सीटें जीतते हुए कांग्रेस सत्ता पर विराजमान हुई उस वक्त केंद्र में एनडीए की सरकार थी. 2004 के कर्नाटक विधानसभा परिणाम के बाद भाजपा और जेडीएस ने मिलकर सरकार का गठन किया तब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी. 2008 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा की सरकार बनी तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी. वर्ष 2013 में कर्नाटक में कांग्रेस की वापसी तब हुई जब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी लेकिन ठीक एक साल बाद ही यूपीए सरकार की विदाई भी हो गई. यानी हर बार कर्नाटक ने अपना फैसला केंद्र के विपरीत ही दिया है.
अब बारी है 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव की. प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और केंद्र में भाजपा की. अब ऐसे में सवाल ये कि क्या कर्नाटक अपनी उल्टी चाल इस बार भी बरकरार रख पाएगी? अगर हां, तो अंदाज़ा लगाना आसान है. लेकिन तब तक इंतज़ार मई तक, जब इसका फ़ाइनल परिणाम आएगा.
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