कर्नाटक में अब तक जो कुछ भी हुआ है या अगले 24 से 72 घंटों में हो सकता है, उसे लेकर तकरीबन सभी एक राय हैं. मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी को भी मालूम है नतीजे. अपनी सरकार को लेकर तो वो कुर्सी पर बैठते वक्त ही सशंकित थे, लेकिन अब कोई उम्मीद नहीं बची है. बस आखिरी सांस की लड़ाई जैसी रस्में निभाई जा रही हैं. अब कोई चमत्कार की गुंजाइश हो तो बात अलग है.
कर्नाटक में अब तक जो कुछ भी होता आया है उसमें स्पष्ट तौर पर एक ही बात है कि हर कोई अपने अधिकार का पूरी तरह इस्तेमाल कर रहा है. ये मामला इतना इसीलिए खिंचता चला आ रहा है क्योंकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में हर किसी को अधिकार भी हासिल है और अधिकार की सीमाएं भी तय कर दी गयी हैं - ताकि लोकतंत्र निर्बाध और अनवरत चलता रहे.
विधानसभा में विश्वासमत की प्रक्रिया और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बीच अब राज्यपाल वजूभाई वाला की भी एंट्री हो ही गयी है - देखा जाये तो कर्नाटक का राजनीतिक संकट अब तेजी से संवैधानिक संकट की ओर बढ़ता जा रहा है.
ये तो साफ है कि ये सब सिर्फ राजनीतिक वजहों से हो रहा है क्योंकि कर्नाटक और केंद्र में अलग अलग दलों की सरकार है. देखा जाये तो बिलकुल ऐसी ही स्थिति राजस्थान, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी समझी जानी चाहिये - आखिर कोई कब तक खैर मनाएगा. जो शिकार में बैठा है उसे तो बस एक मौके की तलाश है. लोहा गर्म हुआ नहीं कि हथौड़ा चलते देर नहीं होने वाली है. बीजेपी नेतृत्व सिर्फ कांग्रेस मुक्त या विपक्ष मुक्त भारत ही नहीं बीजेपी के स्वर्णिम काल के मिशन में जुटा हुआ है, जो बकौल बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 'पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक बीजेपी का शासन' है - और इस मिशन में राजनीतिक विरोधी सरकारें सबसे बड़ी बाधा हैं.
फिर तो ये कहना मुश्किल है कि कुमारस्वामी के बाद अगला नंबर किसका है - ममता बनर्जी, अशोक गहलोत या कमलनाथ का? वैसे तीनों ही मुख्यमंत्रियों के पास पूरा वक्त है. अगर वे चाहें तो स्थिति से मुकाबले के लिए कुछ जरूरी इंतजाम कर लें तो तूफान से लड़ सकते हैं और जीत भी...
कर्नाटक में अब तक जो कुछ भी हुआ है या अगले 24 से 72 घंटों में हो सकता है, उसे लेकर तकरीबन सभी एक राय हैं. मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी को भी मालूम है नतीजे. अपनी सरकार को लेकर तो वो कुर्सी पर बैठते वक्त ही सशंकित थे, लेकिन अब कोई उम्मीद नहीं बची है. बस आखिरी सांस की लड़ाई जैसी रस्में निभाई जा रही हैं. अब कोई चमत्कार की गुंजाइश हो तो बात अलग है.
कर्नाटक में अब तक जो कुछ भी होता आया है उसमें स्पष्ट तौर पर एक ही बात है कि हर कोई अपने अधिकार का पूरी तरह इस्तेमाल कर रहा है. ये मामला इतना इसीलिए खिंचता चला आ रहा है क्योंकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में हर किसी को अधिकार भी हासिल है और अधिकार की सीमाएं भी तय कर दी गयी हैं - ताकि लोकतंत्र निर्बाध और अनवरत चलता रहे.
विधानसभा में विश्वासमत की प्रक्रिया और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बीच अब राज्यपाल वजूभाई वाला की भी एंट्री हो ही गयी है - देखा जाये तो कर्नाटक का राजनीतिक संकट अब तेजी से संवैधानिक संकट की ओर बढ़ता जा रहा है.
ये तो साफ है कि ये सब सिर्फ राजनीतिक वजहों से हो रहा है क्योंकि कर्नाटक और केंद्र में अलग अलग दलों की सरकार है. देखा जाये तो बिलकुल ऐसी ही स्थिति राजस्थान, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी समझी जानी चाहिये - आखिर कोई कब तक खैर मनाएगा. जो शिकार में बैठा है उसे तो बस एक मौके की तलाश है. लोहा गर्म हुआ नहीं कि हथौड़ा चलते देर नहीं होने वाली है. बीजेपी नेतृत्व सिर्फ कांग्रेस मुक्त या विपक्ष मुक्त भारत ही नहीं बीजेपी के स्वर्णिम काल के मिशन में जुटा हुआ है, जो बकौल बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 'पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक बीजेपी का शासन' है - और इस मिशन में राजनीतिक विरोधी सरकारें सबसे बड़ी बाधा हैं.
फिर तो ये कहना मुश्किल है कि कुमारस्वामी के बाद अगला नंबर किसका है - ममता बनर्जी, अशोक गहलोत या कमलनाथ का? वैसे तीनों ही मुख्यमंत्रियों के पास पूरा वक्त है. अगर वे चाहें तो स्थिति से मुकाबले के लिए कुछ जरूरी इंतजाम कर लें तो तूफान से लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं. अब किसकी किस्मत कैसी है ये बात अलग है.
1. गवर्नर की सरप्राइज एंट्री के लिए तैयार रहें
जब तक सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है, तब तक तो कोई बात नहीं. जैसे ही राज्यपाल को लगेगा कि मुख्यमंत्री विश्वासमत खो चुके हैं वो अकस्मात वैसे ही प्रकट होंगे जैसे भगवान भक्तों के बीच आ जाते हैं. लोकतंत्र को खतरे से बचाने का यही एकमात्र जरिया होता है.
कर्नाटक के हालिया घटनाक्रम को देखें तो विधायकों का इस्तीफा होने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राज्यपाल वजूभाई वाला बहुत देर तक खामोश बैठे टीवी पर सब कुछ लाइव देखते रहे. जब विश्वासमत का मामला लंबा होने लगा तो राजभवन से चिट्ठियां भेजी जाने लगीं. जेडीएस नेता और सीएम कुमारस्वामी ने राजभवन से प्राप्त पत्रों को लव-लेटर बताया है.
राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को विश्वासमत हासिल करने के लिए दो-दो समय सीमाएं दी थीं, लेकिन स्पीकर ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए नजरअंदाज कर दिया. सवाल ये है कि आखिर ये कब तक टाला जा सकता है? वो घड़ी तो आनी ही है.
अब बहस इस बात पर छिड़ी है कि क्या राज्यपाल को विधायिका के कामकाज में दखल देने का अधिकार है? वो भी तब जब मुख्यमंत्री ने खुद ही विश्वासमत हासिल करने का फैसला किया हो? विशेषज्ञ इस पर एक राय नहीं हैं, लेकिन ये आशंका तो है कि राज्यपाल संवैधानिक व्यवस्था की विफलता का हवाला देकर विधानसभा भंग कर दें और केंद्र को राष्ट्रपति शासन की संस्तुति कर दें.
अब किसी को शक नहीं है कि जिसके हाथ में केंद्र की लाठी होगी, राज्यों में भी भैंस उसी की होगी - आज नहीं तो कल. हां, 2018 के आखिर में हुए विधानसभा चुनाव और उसके नतीजे अपवाद भी हो सकते हैं.
सवाल ये है कि अगर राज्यों में केंद्र के राजनीतिक विरोधियों की सरकारें हैं तो वे क्या करें?
जैसे भी हो वो हालत तो कतई न आने दें कि केंद्र के प्रतिनिधि राज्यपाल को हस्तक्षेप का मौका मिल सके - बेहतर है इसके लिए काउंटर स्ट्रैटेजी पहले से ही तैयार रखें.
2. ये विधायक नहीं छोटे छोटे बच्चे हैं
हर राज्य के मुख्यमंत्री को अच्छी तरह मालूम होना चाहिये कि जिन विधायकों ने उन्हें अपना नेता चुना है वो बिलकुल बेबस मां-बाप की तरह ही हैं - ये सारे विधायक छोटे बच्चों की तरह होते हैं. कर्नाटक के बच्चे थोड़े अलग हो सकते हैं क्योंकि वहां का वातावरण दूसरे राज्यों से अलग है.
बतौर गार्जियन मुख्यमंत्रियों के मन में ये डर हर वक्त बना रहना चाहिये कि विधायकों की बालसुलभ हरकतें कभी भी मुसीबत में डाल सकती हैं. कोई भी बहेलिया या बदमाश घूमते फिरते आ सकता है और टॉफी देने के बहाने बहला फुसला कर फरार हो सकता है.
ऐसे में बहुत जरूरी है कि मुख्यमंत्री हमेशा इस बात का ख्याल रखें कि कोई भी विधायक कभी नाराज न हो. अगर कहीं कोई कमी लगे तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह सबको संसदीय सचिव ही बना डालें - बाद में कोर्ट कचहरी का चक्कर हुआ तो देखी जाएगी.
गार्जियन होने के नाते मुख्यमंत्री को हर वक्त अलर्ट पर रहना होगा कहीं बच्चे नाराज होकर खुद ही घर छोड़ कर भाग न जायें. समझने वाली बात ये है कि बच्चों की परवरिश की तरह ही सरकार चलाना बहुत बड़ी चुनौती है. कब कौन सी नयी चुनौती टपक पड़े कहा नहीं जा सकता.
3. हर एक बॉस-DK जरूरी होता है
कर्नाटक तो देश के विरोधी दल के हर मुख्यमंत्री के लिए रोल-मॉडल स्टेट हो सकता है. एक ऐसा स्टेट जहां राजनीतिक के हर रंग एक ही वक्त देखने को मिल जा रहे हैं. कर्नाटक की राजनीति में बड़े ही दिलचस्प किरदार भी हैं - डीके शिवकुमार तो दुर्लभ किरदारों में गिने जा सकते हैं.
याद कीजिये जब गुजरात में राज्य सभा के चुनाव हो रहे थे, कांग्रेस ने सारे विधायकों को बचाने के लिए कर्नाटक भेज दिया और डीके शिवकुमार को लोकल गार्जियन बना दिया. अभी विधायक पहुंचे ही थे कि डीके शिवकुमार के घर आयकर के छापे पड़ने लगे - लेकिन जरा भी विचलित हुए बगैर वो अपनी जिम्मेदारी निभाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दिये. सबसे बड़ी बात तो ये रही कि उस चुनाव में कांग्रेस के अहमद पटेल ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के सारे साम-दाम-दंड-भेद का मुकाबला करते हुए चुनाव भी जीत गये.
हाल का भी मामला देखें तो डीके शिवकुमार ने बगैर खतरे या नाकामी की परवाह किये मुंबई के उस होटल पहुंच गये जहां कांग्रेस विधायकों को रखा गया है. डीके शिवकुमार अकेले आखिर तक वहीं डटे रहे जब तक कि बलपूर्वक हिरासत में लेकर उन्हें वापस नहीं भेजा गया.
जब विधानसभा में विश्वासमत पर चर्चा हो रही थी तो भी डीके शिवकुमार बीजेपी विधायकों से अकेले जूझते रहे - और जैसे ही मौका मिला वो बीजेपी विधायक बी. श्रीरामुलु से मिलने जा पहुंचे. एक रिपोर्ट में तो दावा किया गया कि वो बीजेपी विधायक को डिप्टी सीएम पद का ऑफर दे रहे थे.
लब्बोलुआब यही है कि हर मुख्यमंत्री को ऐसा ही एक संकटमोचक हरदम तैयार रखना चाहिये जो कहीं भी राजनीतिक कमांडो की तरह मोर्चे पर डट जाये और विरोधियों के सारे मंसूबे फेल कर दे. चाहे जब तक मुमकिन हो.
ममता बनर्जी, अशोक गहलोत और कमलनाथ को भी डीके शिवकुमार जैसा एक फाइटर मैनेजर वक्त रहते तलाश लेना चाहिये - मुसीबत का क्या कभी भी टपक पड़ सकती है.
4. वकीलों की फौज भी अलर्ट पर रखी जाये
कर्नाटक की कुमारस्वामी सरकार का तो जन्म ही सुप्रीम कोर्ट के आशीर्वाद से हुआ है. अगर कांग्रेस के सीनियर वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने मई, 2018 में आधी रात को अदालत लगाने के लिए देश के मुख्य न्यायाधीश को राजी नहीं किया होता तो बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा तो कुर्सी नहीं ही छोड़े होते.
जब ये सब हो रहा था तो अभिषेक मनु सिंघवी दिल्ली से बाहर थे, लेकिन अपने छोटे साथियों को ड्राफ्ट कैसे तैयार करना है पहुंचने से पहले ही समझा दिये - और सुप्रीम कोर्ट पहुंच कर आधी रात को अदालत भी लगवाने में कामयाब रहे.
एक बार फिर वही अभिषेक मनु सिंघवी सुप्रीम कोर्ट में गठबंधन पक्ष की ओर से पैरवी कर रहे हैं. पैरवी करने वालों में तो और भी जानेमाने वकील शामिल हैं - लेकिन सबक लेने वाली यही बात है कि जिस भी मुख्यमंत्री के सिर पर तलवार लटकती लग रही हो वो अभी से सारे इंतजामों में जुट जाये.
इन्हें भी पढ़ें :
कर्नाटक में फेंका जा रहा है सियासी सुपरओवर
कर्नाटक के बागी विधायकों को 'इस्तीफे' और 'अयोग्यता' में से पहला विकल्प प्यारा क्यों?
राहुल गांधी के देखते-देखते MP-राजस्थान भी हो जाएंगे कांग्रेस-मुक्त
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.