कर्नाटक विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में चुनावी बिगुल बजा दिया हैं . भारतीय जनता पार्टी के अलावा सत्ताधारी कांग्रेस और जनता दल सेकुलर के नेता भी प्रचार के दौरान हवा को अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटे हैं. तीनों ही दल 224 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत हासिल करने का दावा कर रहे हैं. कई राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों से सिर्फ़ राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों की ही नहीं बल्कि इसी साल 2023 में होने वाले आम चुनावों की दिशा भी तय हो सकती है. बीते तीन दशकों में कर्नाटक की राजनीति एक ही पैटर्न पर चली आ रही है.
जहां राज्य की तीनों प्रमुख पार्टियां इसी कशमकश में दिखती है कि वे अपने जातिगत आधार पर ध्यान दें या फिर नए सामाजिक समूहों को लुभाएं. ऐसे में भाजपा कांग्रेस और जेडीएस तीनों ही अपनी अपनी जुगत में लगी हैं कि किस तरह से राज्य की सत्ता पर अपना कब्जा जमाया जाए. साल 2013 को अगर नजरअंदाज किया जाए तो कांग्रेस को छोड़कर कोई भी पार्टी अपने बलबूते राज्य में सरकार बनाने में नाकाम रही है. मौजूदा सरकार में यूं तो सीएम भाजपा के हैं लेकिन पार्टी येदिरुप्पा वाले लिंगायत प्रभाव से आगे बढ़ना चाहती है. जिसको लेकर हाल ही में पार्टी ने आरक्षण का कार्ड भी खेला है. दूसरी ओर कांग्रेस इस तरह से चुनावों को सुनहरे मौके के रूप में देख रही है कि किसी तरह जनता की नाराजगी को अपनी जीत में तब्दील कर लिया जाए. कर्नाटक के पूर्व सीएम रहे एचडी कुमारस्वामी की पार्टी जनता दल सेक्युलर भी चुनाव को लेकर खुद को किंगमेकर की भूमिका में देख रही है.
कर्नाटक राज्य में अगर चुनावी समीकरणों...
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में चुनावी बिगुल बजा दिया हैं . भारतीय जनता पार्टी के अलावा सत्ताधारी कांग्रेस और जनता दल सेकुलर के नेता भी प्रचार के दौरान हवा को अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटे हैं. तीनों ही दल 224 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत हासिल करने का दावा कर रहे हैं. कई राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों से सिर्फ़ राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों की ही नहीं बल्कि इसी साल 2023 में होने वाले आम चुनावों की दिशा भी तय हो सकती है. बीते तीन दशकों में कर्नाटक की राजनीति एक ही पैटर्न पर चली आ रही है.
जहां राज्य की तीनों प्रमुख पार्टियां इसी कशमकश में दिखती है कि वे अपने जातिगत आधार पर ध्यान दें या फिर नए सामाजिक समूहों को लुभाएं. ऐसे में भाजपा कांग्रेस और जेडीएस तीनों ही अपनी अपनी जुगत में लगी हैं कि किस तरह से राज्य की सत्ता पर अपना कब्जा जमाया जाए. साल 2013 को अगर नजरअंदाज किया जाए तो कांग्रेस को छोड़कर कोई भी पार्टी अपने बलबूते राज्य में सरकार बनाने में नाकाम रही है. मौजूदा सरकार में यूं तो सीएम भाजपा के हैं लेकिन पार्टी येदिरुप्पा वाले लिंगायत प्रभाव से आगे बढ़ना चाहती है. जिसको लेकर हाल ही में पार्टी ने आरक्षण का कार्ड भी खेला है. दूसरी ओर कांग्रेस इस तरह से चुनावों को सुनहरे मौके के रूप में देख रही है कि किसी तरह जनता की नाराजगी को अपनी जीत में तब्दील कर लिया जाए. कर्नाटक के पूर्व सीएम रहे एचडी कुमारस्वामी की पार्टी जनता दल सेक्युलर भी चुनाव को लेकर खुद को किंगमेकर की भूमिका में देख रही है.
कर्नाटक राज्य में अगर चुनावी समीकरणों को खंगाला जाए तो मालूम पड़ता है कि बीते तीन दशकों में त्रिध्रुवीय प्रतियोगिता का पैमाना है. एक ओर जहां भाजपा के लिए ऊंची जातियां और लिंगायत समुदाय मायने रखता है तो वहीं जेडीएस के लिए वोक्कालिगा और कांग्रेस के लिए दलित और मुस्लिम (ओबीसी के एक गुट के साथ) वोट खासा मायने रखते हैं. ऐसे में आने वाले विधानसभा चुनावों मे तीनों पार्टियों के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं. वहीं राजनीतिकारों का कहना है कि कर्नाटक राज्य में इस बार एक अलग तरह की राजनीतिक उठापटक देखने को मिल सकती है. येदियुरप्पा और कुछ अर्थों में देवेगौड़ा के प्रभाव के बाद क्या राज्य में होने वाला यह विधानसभा चुनाव नए परिणामों के रीमेक का संकेत दे सकता है? इसको लेकर सभी की निगाहें टिकी हुई हैं.
भाजपा कर्नाटक राज्य में लिंगायत बाहुबली येदियुरप्पा के प्रभाव से आगे बढ़ना चाहती है. वह वोक्कालिगाओं, दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के बीच नई पैठ बनाना चाहती है. जो कि लंबे समय से लिंगायत प्रभुत्व से दूर हैं. हाल की सरकार ने दलितों और आदिवासियों के लिए अधिक आरक्षण प्रदान करने की दिशा में कदम उठाए हैं. साथ ही वोक्कालिगाओं के लिए आरक्षण की सीमा को उसी अनुपात में बढ़ाया है जिस अनुपात में उसने लिंगायतों के लिए किया. हालांकि यह एक नई सामाजिक इंजीनियरिंग की दिशा में ठोस पहल का प्रतिनिधित्व है. फिर भी भाजपा को सावधान रहना होगा. भाजपा के लिए लिंगायत समर्थन, गुजरात में पटेलों के समर्थन के विपरीत है. इसके लिए यह समझना होगा कि यह हिंदुत्व विचारधारा के माध्यम से नहीं बल्कि नेता/गुट वफादारी के माध्यम से तैयार किया गया है. यह याद रखना जरूरी है कि साल 2013 मे जब येदियुरप्पा ने एक बिखरी हुई पार्टी से चुनाव लड़ा तो उन्होंने भाजपा के लिंगायत वोट को आधे से ज्यादा काटने में कामयाबी हासिल की और करीब 10 फीसद वोट शेयर हासिल किया.
भाजपा ने येदियुरप्पा के बाद भी कर्नाटक राज्य में लिंगायत सीएम को बनाए रखना ही सुनिश्चित किया. जब पहली बसवराज बोम्मई कैबिनेट का विस्तार किया गया तो सात वोक्कालिगा मंत्रियों को शामिल किया गया था. उस वक्त भी लिंगायतों को नौ मंत्रियों के रूप में प्रमुख स्थान दिया गया था. बेशक तौर पर भाजपा के लिए परस्पर विरोधी हितों को संतुलित करने का यह बेहतरीन प्रयास माना जाता है. लेकिन कर्नाटक की राजनीति की एक अलग ही विशेषता है. यहां पर बहुत छोटे स्तर पर सोशल इंजीनियरिंग व्यापक वैचारिक आख्यानों पर अभी भी हावी है. क्योंकि राज्य की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा विकेंद्रीकृत है. जो कि पक्षपातपूर्ण लगाव के बजाय जाति-आधारित नेटवर्क पर ज्यादा निर्भर है.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी जनता की भाजपा को लेकर नाराजगी और पार्टी की गुटबाजी का फायदा उठाना चाहती है. पार्टी को लगता है कि वर्तमान मुख्यमंत्री की पारी लड़खड़ा रही है ऐसे में यह उसके लिए राज्य की सत्ता पर काबिज होने का सुनहरा मौका है. कांग्रेस पार्टी के पास सिद्धारमैया से लेकर डीके शिवकुमार जैसे नेताओं का भरोसा भी है. जो कि राजनैतिक उठापटक के लिए माहिर माने जाते हैं. सिद्धारमैया मध्य और उत्तरी कर्नाटक में कांग्रेस के मूल सामाजिक आधार को लामबंद करने के लिए बेहतरीन नेता हैं. तो वहीं वोक्कालिगा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले डीके शिवकुमार दक्षिणी कर्नाटक में कांग्रेस की किस्मत चमका सकते हैं. क्योंकि उनकी पकड़ वोक्कालिगा मतदाताओं के बीच खासकर ज्यादा है. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वोक्कालिगा मतदाताओं में से आधे ने पिछले तीन राज्यों के चुनावों में से हर बार कांग्रेस और भाजपा में से ही चुना है. वहीं जेडीएस ने अपने मूल आधार के एक तिहाई और आधे के बीच कब्जा कर लिया.
जनता दल (सेक्युलर) कर्नाटक विधानसभा चुनाव में खुद को किंगमेकर की भूमिका से कम नहीं आंक रही है. पार्टी अपने अस्तित्व की आवश्यकता और विस्तार के आकर्षक राजनीतिक तर्क के बीच चुनाव का सामना कर रही है. हालांकि पार्टी प्रमुख एचडी कुमारस्वामी का कहना है कि हम राज्य में अकेले दम पर सरकार बनाने का माद्दा रखते हैं. खासकर भाजपा को लेकर वे खासा हमलावर रहे हैं. बीते दिनों कुमारस्वामी का यह बयान कि 'शाह या मोदी कर्नाटक का 100 बार भी दौरा कर लें, फिर भी भाजपा की सरकार नहीं बनने वाली है. फिलहाल इस बयान से कुमारस्वामी ने इतना तो साफ कर दिया है कि भाजपा को लेकर उनके तेवर कितने तल्ख हैं. हालांकि इस बात को लेकर दो राय नहीं है कि जेडी(एस) का कर्नाटक राज्य में अपना प्रभुत्व अलग है. जो कि चुनाव में किसी भी वक्त उलटफेर कर सकती है. पार्टी ने अन्य सामाजिक समूहों तक पहुंचने के लिए सत्ता में आने पर दलित या मुस्लिम मुख्यमंत्री के वादे को टाल दिया है. के चंद्रशेखर राव की नई राष्ट्रीय पार्टी बीआरएस के साथ जेडी(एस) गठबंधन हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में पार्टी की पहुंच का विस्तार करने के लिए है.
कोई भी पार्टी कुछ भी कहे पर वह लिंगायत समुदाय के महत्त्व को नहीं झुठला सकती क्यों कि लिंगायत समुदाय कर्नाटक में सबसे बड़ा जाति समूह है. वहीं, वोक्कालिगा राज्य का दूसरा सबसे प्रभावशाली जाति समूह है. कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई एक लिंगायत हैं. एक आंकड़े के अनुसार राज्य में लिंगायत (14 प्रतिशत) और वोक्कालिगा (11 प्रतिशत), दलित (19.5 प्रतिशत), ओबीसी(16 प्रतिशत) और मुस्लिमों की संख्या (16 प्रतिशत) है.देश के अन्य राज्यों की तरह ही कर्नाटक की राजनीति में भी जातीय आधार पर ही मतदान होते हैं. सभी राजनीतिक दल जातियों को अपनी तरफ करने की चाल भी चलते हैं. 2013 से 2018 के बीच सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने लिंगायतों के अलग धर्म की मांग का समर्थन किया था. ऐसा इसलिए ताकि इस समुदाय का समर्थन हासिल किया जा सके, जो परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थन करता रहा है.
यह भी गौरतलब है कि कर्नाटक की राजनीति में लिंगायत के साथ ही वोकालिगा का अहम स्थान है. दोनों जातियां एक दूसरे की प्रतिद्वद्वंदी मानी जाती है. लेकिन 1 जून, 1996 वोक्कालिगा समुदाय के लिए ऐतिहासिक दिन था. जब कर्नाटक की दूसरी सबसे शक्तिशाली जाति वोक्कालिगा समाज के नेता एचडी देवेगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. उस दिन, देवेगौड़ा उनके निर्विवाद नेता बन गए जो अभी भी कर्नाटक में वोक्कालिगा वोट बैंक को नियंत्रित करते हैं. यह अलग बात है कि तीन साल बाद उसी जाति ने एक और वोक्कालिगा एसएम कृष्णा को मुख्यमंत्री बनाने के लिए गौड़ा दल को हरा दिया. लेकिन गौड़ा लगभग 30 वर्षों तक उनके शीर्ष नेता बने रहे.
किसी समय मैसूर राज्य में वोक्कालिगा राजनीतिक रूप से बहुत प्रभावशाली थे. लेकिन 1947 और 1956 के बीच मैसूर राज्य का सभी कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को मिलाकर बने नए कर्नाटक राज्य में विलय के बाद वोक्कालिगा की स्थिति कमजोर हुई और उन्हें लिंगायतों के राजनीतिक आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा.1950 के दशक की शुरुआत में, कर्नाटक एकीकरण आंदोलन के शीर्ष पर पहुंचने के दौरान, वोक्कालिगा जाति के शीर्ष नेता अपने भविष्य को तय करने के लिए मध्य बेंगलुरु के एक घर में एकत्रित हुए थे. ये सभी कांग्रेसी नेता थे और इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था. अधिकांश नेताओं की व्यक्तिगत साख थी. लेकिन उनमें से अधिकांश नेता एक राज्य के तहत सभी कन्नड़-भाषी क्षेत्रों के एकीकरण को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे. उनके पास इसके कई कारण थे.
कुछ नेताओं ने तर्क दिया कि महाराजा का मैसूर या पुराना मैसूर पहले से ही एक अच्छी तरह से विकसित राज्य था और गरीब मुंबई-कर्नाटक और हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्रों को विलय करना राज्य के खजाने और संसाधनों पर बोझ होगा. कुछ को बड़ा डर था. उन्होंने तर्क दिया कि एक बार जब सभी कन्नड़ भाषी क्षेत्र एकजुट हो जाएंगे, तो वोक्कालिगा लिंगायत आधिपत्य के लिए अपना जातिगत प्रभुत्व खो देंगे. राज्य की दो सबसे ताकतवर जातियां तब भी एक-दूसरे से सावधान थीं.लेकिन पुराने मैसूर राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री केंगल हनुमंथैया राज्य के एकीकरण के पक्ष में थे. एक स्वतंत्रता सेनानी और एक सक्षम प्रशासक, हनुमंथैया वोक्कालिगा के एक बड़े नेता थे. अपने स्वजातीय नेताओं को वीटो करते हुए, हुनुमंथैया ने उनसे कहा कि यदि वे जाति और राजनीतिक कारणों से एकीकरण का विरोध करते हैं तो कन्नड़ों की भावी पीढ़ियां उन्हें कभी माफ नहीं करेंगी.
वोक्कालिगा नेता ने एकीकरण आंदोलन और बंबई प्रेसीडेंसी के कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को मिलाकर नए मैसूर राज्य बनाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी – जिसमें वर्तमान कर्नाटक के कुछ जिले, निजाम का हैदराबाद, कर्नाटक, मद्रास प्रेसीडेंसी और कोडागु का एक स्वतंत्र, छोटा राज्य शामिल है (कूर्ग) का जन्म 1 नवंबर 1956 को हुआ था.अफसोस की बात है कि नया राज्य अस्तित्व में आने बाद केंगल हनुमंथैया ने सत्ता खो दी और एक लिंगायत नेता एस निजलिंगप्पा ने नए मैसूर राज्य के पहले मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला. जिसके बाद वोक्कालिगा समुदाय को मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए 38 साल तक इंतजार करना पड़ा. 1994 में, एचडी देवेगौड़ा संयुक्त कर्नाटक के पहले वोक्कालिगा मुख्यमंत्री बने.
1956 और 1972 के बीच, चार लिंगायत मुख्यमंत्री (एस निजलिंगप्पा, बीडी जत्ती, एसआर कांथी और वीरेंद्र पाटिल) ने राज्य पर शासन किया. 1972 और 1983 के बीच, एक क्षत्रिय डी देवराज उर्स और एक ब्राह्मण आर गुंडुराव ने लिंगायत समर्थन के बिना राज्य पर शासन किया. 1983 में कर्नाटक के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने रामकृष्ण हेगड़े को ब्राह्मण होने के बावजूद एक बेताज लिंगायत नेता माना जाता था.हेगड़े के वर्चस्व को समाप्त करने के लिए, तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने 1989 में एक लिंगायत नेता वीरेंद्र पाटिल को कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया. उनके नेतृत्व में, कांग्रेस ने 224 सदस्यीय सदन में 181 सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन कांग्रेस ने बाद में दो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के नेताओं- एस बंगरप्पा और एम वीरप्पा मोइली को पाटिल का स्थान लेने के लिए चुना और वोक्कालिगा को 1994 तक इंतजार करना पड़ा.
लिंगायत धर्म का जन्म 12वीं शताब्दी में एक जातिविहीन, समतावादी समाज के लिए एक ब्राह्मण बासवन्ना के नेतृत्व में हुए आंदोलन से हुआ था और उनके अनुयायी अगली शताब्दियों में इसे कन्नड़ भाषी क्षेत्रों के सभी कोनों में ले गए. वे वोक्कालिगा हृदयभूमि पुराने मैसूर भी आए, और कई निचली जातियों और अछूतों ने नए धर्म को अपनाया. लेकिन वोक्कालिगा, जमींदार समुदाय, ज्यादातर इससे दूर रहे, हालांकि दोनों के बीच किसी भी टकराव का कोई रिकॉर्ड नहीं है. सदियों से यह एक सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व था.
1960 के दशक में वोक्कालिगा राजनेताओं के संरक्षण से आदि चूंचनागिरी मठ ने तेजी से विस्तार किया. चुनावों के दौरान, सभी राजनीतिक नेता मठ का समर्थन करने के लिए उसके पास जाते हैं और यह दक्षिणी कर्नाटक की राजनीति और सामाजिक जीवन में एक बड़ी भूमिका निभाता है.लीक हुए जातिगत जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, कर्नाटक की कुल आबादी में वोक्कालिगा 11% हैं. वे एससी, मुस्लिम और लिंगायत के बाद चौथे नंबर पर हैं. हालांकि, यह डेटा वोक्कालिगा और लिंगायत दोनों द्वारा विवादित है. वोक्कालिगा का दावा है कि उनकी संख्या इससे कहीं ज्यादा यानी 16% है. लिंगायत की तरह, वोक्कालिगा की भी कई उपजातियां हैं और वे आम तौर पर एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते हैं. वोक्कालिगा की चार उप-जातियां गंगातकरा, दासा, मरसु और कुंचितिगा हैं.
वोक्कालिगा लगभग 80 विधानसभा सीटों के चुनाव के नतीजे तय करते हैं, और लगभग 50 विधानसभा क्षेत्रों में उनका दबदबा है. 2018 में, लगभग 42 वोक्कालिगा ने विधानसभा चुनाव जीता था. इनमें से 23 जेडीएस के थे. एक वोक्कालिगा, एचडी कुमारस्वामी 14 महीने के लिए कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री भी बने.
वोक्कालिगा समुदाय के कुछ नेताओं का यह भी आरोप है कि हाल के वर्षों में, भाजपा ने उत्तर प्रदेश में गोरखनाथ मठ के साथ उनके मठ आदि चंचनागिरी को जोड़कर वोक्कालिगा को अपने पक्ष में करने की चाल चल रही है. चूंकि वोक्कालिगा मठ एक प्राचीन नाथ पंथ मठ है, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले पांच वर्षों में कुछ अवसरों पर इसका दौरा किया है. मठ के वर्तमान महंथ द्रष्टा निर्मलानंद नाथ स्वामी का योगी के साथ अच्छे व्यक्तिगत संबंध हैं और यहां तक कि वह उनके शपथ ग्रहण समारोह में भी शामिल हुए थे. इस तरह का नया मेलजोल जेडीएस और कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत नहीं है.कांग्रेस देवेगौड़ा के किले को तोड़ने की पूरी कोशिश कर रही है. भाजपा, जिसके पास आधा दर्जन महत्वपूर्ण वोक्कालिगा नेता हैं, का तर्क है कि इस समुदाय पर किसी का एकाधिकार नहीं है, और वोक्कालिगा की एक बड़ी संख्या भगवा पार्टी के पास है.
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