कागजी तौर पर कर्नाटक में जंग तो कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही है. बीच में जेडीएस के एंट्री मार लेने से मामला लड़ाई कई जगह त्रिकोणीय और नतीजा त्रिशंकु विधानसभा के रूप में समझा जा रहा है. बीजेपी और जेडीएस के रिश्ते का स्टेटस भले ही कभी हां कभी ना वाला हो, नुकसान तो कांग्रेस का ही हो रहा है. जेडीएस को चार दलों का सपोर्ट हैं जिनमें एक मायावती की पार्टी बीएसपी भी है, जाहिर है घाटा तो कांग्रेस को ही होगा.
किसी भी जंग में एक पक्ष के खिलाफ हल्का फुल्का भी कुछ होता है तो उसका डबल बेनिफिट विरोधी पक्ष के खाते में ही दर्ज होता है. कर्नाटक चुनाव में ऐसे ही कई फैक्टर हैं जो परोक्ष रूप से ही सही कांग्रेस को कुछ न कुछ नुकसान तो पहुंचा ही रहे हैं - और ऐसा होने पर फायदा आखिरकार बीजेपी को ही मिलेगा, शक की कोई गुंजाइश नहीं बचती.
1. मोदी-देवगौड़ा संवाद के मायने
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा का एक दूसरे के प्रति गजब का सम्मान देखने को मिला. मोदी ने कहा कि वो इस कदर सम्मान भाव रखते हैं कि चाहते हैं जब भी देवगौड़ा उनसे मिलने पहुंचे अपने घर के दरवाजे से लेकर कार का दरवाजा तक उनके सम्मान में वो खुद ही खोलें.
देवगौड़ा ने भी बताया कि अगर वो संसद में बने हुए हैं तो सिर्फ और सिर्फ मोदी की ही बदौलत. फिर उन्होंने किस्सा सुनाया कि किस तरह बीजेपी के जीतने के विरोध में वो संसद से इस्तीफा देना चाहते थे लेकिन मोदी ने उन्हें रोक दिया. मोदी स्मार्ट भी हैं और कर्नाटक में हो रहे राजनीतिक बदलाव से पूरी तरह वाकिफ भी हैं, मोदी के लिए ऐसे कसीदे भी देवगौड़ा की ओर से भी सुनने को मिले.
राम-परशुराम संवाद की ही तरह हुए इस वाया-मीडिया वार्तालाप का सीधा मतलब...
कागजी तौर पर कर्नाटक में जंग तो कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही है. बीच में जेडीएस के एंट्री मार लेने से मामला लड़ाई कई जगह त्रिकोणीय और नतीजा त्रिशंकु विधानसभा के रूप में समझा जा रहा है. बीजेपी और जेडीएस के रिश्ते का स्टेटस भले ही कभी हां कभी ना वाला हो, नुकसान तो कांग्रेस का ही हो रहा है. जेडीएस को चार दलों का सपोर्ट हैं जिनमें एक मायावती की पार्टी बीएसपी भी है, जाहिर है घाटा तो कांग्रेस को ही होगा.
किसी भी जंग में एक पक्ष के खिलाफ हल्का फुल्का भी कुछ होता है तो उसका डबल बेनिफिट विरोधी पक्ष के खाते में ही दर्ज होता है. कर्नाटक चुनाव में ऐसे ही कई फैक्टर हैं जो परोक्ष रूप से ही सही कांग्रेस को कुछ न कुछ नुकसान तो पहुंचा ही रहे हैं - और ऐसा होने पर फायदा आखिरकार बीजेपी को ही मिलेगा, शक की कोई गुंजाइश नहीं बचती.
1. मोदी-देवगौड़ा संवाद के मायने
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा का एक दूसरे के प्रति गजब का सम्मान देखने को मिला. मोदी ने कहा कि वो इस कदर सम्मान भाव रखते हैं कि चाहते हैं जब भी देवगौड़ा उनसे मिलने पहुंचे अपने घर के दरवाजे से लेकर कार का दरवाजा तक उनके सम्मान में वो खुद ही खोलें.
देवगौड़ा ने भी बताया कि अगर वो संसद में बने हुए हैं तो सिर्फ और सिर्फ मोदी की ही बदौलत. फिर उन्होंने किस्सा सुनाया कि किस तरह बीजेपी के जीतने के विरोध में वो संसद से इस्तीफा देना चाहते थे लेकिन मोदी ने उन्हें रोक दिया. मोदी स्मार्ट भी हैं और कर्नाटक में हो रहे राजनीतिक बदलाव से पूरी तरह वाकिफ भी हैं, मोदी के लिए ऐसे कसीदे भी देवगौड़ा की ओर से भी सुनने को मिले.
राम-परशुराम संवाद की ही तरह हुए इस वाया-मीडिया वार्तालाप का सीधा मतलब क्या है? तारीफ तो सबको अच्छी लगती है. शायद ये मानव स्वभाव की फितरत ही है. एक ने तारीफ की और दूसरे ने शुक्रगुजार रुख दिखाया. तो इसमें राजनीतिक मकसद क्या हो सकती है?
देखें तो पूरे प्रकरण में सीधा मकसद कांग्रेस को नुकसान पहुंचाना लगता है. देवगौड़ा का वोट बैंक वोक्कालिगा समुदाय है. मोदी वैसे भी कोई काम बगैर होम वर्क किये नहीं ही करते हैं. मोदी लोगों को समझाना चाहते थे कि कांग्रेस तो बस सभी का अपमान ही करती रहती है. सैनिकों से लेकर आर्मी चीफ तक का - गुंडा और मालूम नहीं क्या क्या. मोदी समझाते हैं, इतना ही नहीं, पूर्व प्रधानमंत्री तक के लिए उनके मन में कोई सम्मान नहीं बचा है. दरअसल, इसमें मैसेज छिपा था वोक्कालिगा लोगों के लिए. मोदी चाहते थे कि वोक्कालिगा ये सुनकर कांग्रेस से नाराज हो जायें. कांग्रेस से खफा होकर अगर वोक्कालिगा लोग उसे नुकसान पहुंचाते हैं तो उसका फायदा तो बीजेपी को ही मिलेगा - भले ही वोट देवगौड़ा के खाते में क्यों न पहुंचे. गठबंधन नहीं भी हो तो भी फायदा तो बीजेपी को ही होगा. सीधा गणित - कांग्रेस का नुकसान, बीजेपी का दोगुणा फायदा.
2. कृष्णा तो न घर के न घाट के, फिर भी...
पूरी उम्र कांग्रेस में गुजारने के बाद बीजेपी का कमल कबूल कर लेने वाले एसएम कृष्णा को भी मोदी के साथ मंच शेयर करते वैसे ही देखा गया जैसे येदियुरप्पा चामराजनगर में मोदी के साथ एक रैली का कोटा पूरा करने पहुंचे थे. ये येदियुरप्पा ही थे जो कृष्णा को बड़े ही उम्मीदों के साथ बीजेपी में लाये थे - और पिछले साल विधानसभा की दो सीटों पर उपचुनाव से पहले बड़े ही शानदार तरीके से कृष्णा को भगवा चोला पहनाया गया. लेकिन उपचुनावों में बीजेपी को कृष्णा से उम्मीदों के मुताबिक फायदा नहीं मिल पाया. तब से लेकर हाल तक कृष्णा कहां और कैसे रहे किसी और को शायद ही कोई खबर हो. पूर्व मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के बाद येदियुरप्पा ही लिंगायतों के सबसे बड़े नेता बन कर उभरे थे - और एसएम कृष्णा को लाकर बीजेपी को लगा कि वोक्कालिगा वोट बैंक भी उसे आसानी से हासिल हो जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ बिलकुल नहीं.
और तो और, इंडियन एक्सप्रेस में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, जिन समर्थकों के साथ कृष्णा बीजेपी में आये थे लगभग सभी कांग्रेस में लौट चुके हैं. बीजेपी ने कृष्णा के गृह जनपद मद्दूर का जिलाध्यक्ष लक्ष्मण कुमार को तो बना दिया, लेकिन टिकट देने की बारी आयी तो मुकर गयी. करीब साल भर तक कृष्णा के समर्थक यूं ही आस लगाये झूलते रहे, तभी कर्नाटक में मुख्यमंत्री की ओर से घर वापसी की पहल हुई और सब के सब कांग्रेस में लौट गये.
कृष्णा भले ही न घर के न घाट के लगते हों. कृष्णा और बीजेपी एक दूसरे को भले ही बहुत फायदा न पहुंचा पाये लेकिन कांग्रेस का नुकसान तो हो ही रहा है. - ये वही कृष्णा हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने पहचाने चेहरे शशि थरूर से सीनियर मंत्री बनाया गया था, जबकि उन्हें ये भी नहीं मालूम होता था कि वो किस देश का भाषण पढ़ रहे हैं.
3. लिंगायतों का कन्फ्यूजन कायम है
वोक्कालिगा वोटर तो जहां तहां अपने उम्मीदवारों को लेकर मन बना भी चुके हैं, लेकिन लिंगायत लगातार कन्फ्यूज नजर आ रहे हैं - और इसकी वजह भी बीजेपी और कांग्रेस की गला काट पॉलिटिक्स है. चुनाव के ऐन पहले लिंगायतों को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस ने उन्हें अलग धर्म की मान्यता देने का अपनी तरफ से इंतजाम तो कर दिया, लेकिन दिल्ली पहुंच कर वो बीजेपी की रणनीतिक चाल का शिकार हो गया. प्रक्रिया पूरी होते होते वक्त इतना गुजर गया कि बीजेपी ने आचार संहिता की दुहाई देकर मामला लटका दिया. अब लिंगायत यही नहीं समझ पाये कि कांग्रेस गंभीर भी रही या फिर सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए रस्मअदायगी दिखा दी. अगर ऐसा कुछ करना ही था तो पहले भी किया जा सकता था जब बीजेपी के पास बहानेबाजी का दूसरा रास्ता खोजना पड़ता. नतीजा जो भी होता, कम से कम बीजेपी और कांग्रेस दोनों का इरादा तो सामने आ जाता.
कर्नाटक में 17 फीसदी लिंगायत और 11 फीसदी वोक्कालिगा समुदाय के लोग हैं और हालत ये है कि करीब आधे सांसद और विधायक इन्हीं कम्युनिटी से आते हैं. आलम ये है कि सूबे की तीन चौथाई सीटों पर इन्हीं दोनों का दबदबा रहता है.
4. मायावती कांग्रेस से कैसा बदला ले रहीं
कर्नाटक में दलित वोटर 19 फीसदी हैं और मायावती के चुनावी मैदान में डटे रहने की यही एक खास वजह है. मायावती की पार्टी बीएसपी 18 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और 7-8 सीटें ऐसी हैं जिन पर दलितों का लिंगायत और वोक्कालिगा जैसा ही प्रभाव है. बावजूद इसके बीएसपी की जीत की कोई गारंटी नहीं है. अगर आंकड़े ही जीत की गारंटी होते तो पंजाब में भी सरकार नहीं तो कम से कम मायावती की पार्टी आप की जगह विपक्ष में बैठी होती. आखिर मायावती कांग्रेस से किस बात का बदला ले रही हैं? देखा जाये तो मायावती ही नहीं समाजवादी पार्टी ने 27 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. ये तो सबको पता है कि अखिलेश यादव के नुमाइंदे भी कर्नाटक में वोटकटवा ही होंगे, लेकिन ऐसा हो क्यों रहा है. ये दोनों मिल कर बीजेपी को फायदा क्यों पहुंचाना चाहते हैं. यहां भी नफा नुकसान का गणित वही है, कांग्रेस का नुकसान मतलब बीजेपी को फायदा.
मायावती का जेडीएस के साथ गठबंधन है, जबकि समाजवादी पार्टी अपने बूते चुनाव मैदान में है. मायावती के चुनाव लड़ने की एक वजह बीएसपी का राष्ट्रीय दर्जा बचाने की कवायद भी समझी जा रही है.
मायावती और अखिलेश के इस फैसले का राजनीतिक संदेश क्या है उसे समझने के जरूरत है. दोनों ही दलों का अस्तित्व यूपी से जुड़ा है. 2019 का चुनाव दोनों के लिए बहुत मायने रखता है. दोनों के गठबंधन में कांग्रेस भी अपनी कुछ न कुछ पोजीशन देखती रही होगी. वैसे फूलपुर और गोरखपुर में कांग्रेस के अलग चुनाव लड़ने से दोनों खफा भी हैं. तो क्या कर्नाटक में ये दोनों इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं कि यूपी के लोगों को मैसज दे सकें कि हम दोनों बीजेपी और कांग्रेस दोनों के खिलाफ हैं या फिर गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस मोर्चे की रणनीति से भी इसका कोई कनेक्शन भी है?
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