पिछले सप्ताह मोदी ने शिवमोगा एयरपोर्ट के उद्घाटन की तारीख भी येदियुरप्पा के 80वें जन्मदिन की ही चुनी थी. यह बात बताती है कि राजनीति में हर बात कोई ना कोई संदेश देती है. बड़े नेता अक्सर बहुत सोचकर कुछ करते हैं जिसका कुछ ना कुछ मायने होता है. प्रधानमंत्री मोदी येदियुरप्पा का हाथ पकड़कर नवनिर्मित शिवमोगा एयरपोर्ट तक गए. फिर मंच पर ऐसा नजारा दिखा जो कर्नाटक में भाजपा का हाल बहुत हद तक बयां कर रहा है. प्रधानमंत्री मोदी ने येदियुरप्पा से गर्मजोशी के साथ मेल-मिलाप के जरिए कर्नाटक की जनता को बड़ा संदेश दिया, खासकर लिंगायत समुदाय के मतदाताओं को. प्रदेश में इसी वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. पार्टी ने येदियुरप्पा को जुलाई 2021 में मुख्यमंत्री पद से हटाकर बासवराज बोम्मई को गद्दी सौंप दी है. लेकिन उसका आत्मविश्वास डगमगा रहा था.
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने वंशवादी राजनीति का ठप्पा लगने से बचने के लिए येदियुरप्पा को हटा तो दिया, लेकिन अब उसे लिंगायत समुदाय के वोट बैंक की चिंता सता रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने येदियुरप्पा के साथ गलबहियां करके पार्टी को इसी चिंता से उबारने की कोशिश की है. गौतलब है कि कर्नाटक में लिंगायत की बड़ी आबादी है. मुख्यमंत्री बसावराज बोम्मई लिंगायत हैं, लेकिन अभी तक भाजपा के पास पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा जैसा जमीनी पकड़ वाला लिंगायत नेता नहीं है. मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद येदियुरप्पा कुछ नाराज से चल रहे थे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 80 साल के पार्टी के नेता बीएस येदियुरप्पा से रिश्ते की एक अलग केमिस्ट्री बनाते हैं.
इसी केमिस्ट्री ने बीएस येदियुरप्पा को 26 जुलाई 2019 को येदियुरप्पा को चौथी बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर दिया था. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी प्रधानमंत्री ने कर्नाटक से लेकर दिल्ली तक येदियुरप्पा का रुतबा कम नहीं होने दिया. वह हाल में उनके 80 वें जन्मदिन में शामिल हुए और येदियुरप्पा ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 224 विधानसभा सीटों में 130-140 सीटें जीतने का लक्ष्य रख दिया है. पार्टी को बहुमत के लिए 113 सीटें चाहिए और 2018 के विधानसभा चुनाव में येदियुरप्पा के चेहरे पर चुनाव लड़कर 106 सीटें ही ला सकी थी. येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने और उन्हें अल्पमत में होने के कारण हटना पड़ा. इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से जद(एस) ने सरकार बनाई. एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने, लेकिन कुछ महीनों के बाद आपरेशन लोटस-2 के बाद वह फिर राज्य सरकार के मुखिया बन गए थे.
यही नहीं पिछले हफ्ते केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी पहली बार कर्नाटक सरकार की विकास योजनाएं गिनाने की जगह मोदी और येदियुरप्पा के चेहरे पर वोट मांगा था. उन्होंने बेल्लारी की चुनावी रैली में कहा था, 'मेरी आपसे अपील है कि प्रधानमंत्री मोदी और येदियुरप्पा में अपना भरोसा बनाए रखें और भाजपा को फिर से सत्ता में लौटाएं.' उसके बावजूद ऐसे कई कारण है जिसके कारण भाजपा को कर्णाटक चुनाव की लड़ाई कठिन लग रही है हालाँकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले 48 दिन के भीतर पांच बार कर्नाटक राज्य का दौरा कर चुके है. केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी लगातार कर्नाटक को अहमियत दे रहे हैं. यह पूरी कवायद मुख्यमंत्री बसावराज बोम्मई, पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा और अन्य भाजपा नेताओं में तालमेल बनाकर दो महीने के भीतर प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में सफलता पाने की है. प्रधानमंत्री और अमित शाह दोनों को पता है कि कर्नाटक विधानसभा का चुनाव हिमाचल विधानसभा की तरह खासा मुश्किल है.
वैसे कर्नाटक को साधने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यहां काफी कुछ अपने स्तर से ठीक किया है. केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पार्टी नेताओं को चुनाव जीतने के मंत्र दिए. बूथ स्तर पर तैयारियों को तेज करने के सूत्र बताने के साथ आपसी गुटबाजी को शांत करने की कोशिश में लगे हैं. भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा लगातार पार्टी के पदाधिकारियों से फीडबैक ले रहे हैं. दिलचस्प है कि भाजपा ने कर्नाटक में अजमाए हुए चेहरों को विधानसभा चुनाव में सफलता पाने की जिम्मेदारी सौंपी है. उ.प्र. विधानसभा चुनाव में शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने कड़ी मेहनत की थी. प्रधान को कर्नाटक में जिम्मेदारी मिली है और वह बेहद संवेदनशील हैं. केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया, के.अन्नामलाई ने भी जीत का समीकरण बनाने में जोर लगाया है. केन्द्रीय मंत्री शोभा करंदले, राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि और भाजपा के संगठन मंत्री बीएल संतोष की भी निगाह कर्नाटक पर टिकी है.
भाजपा ने 2023 के प्रस्तावित विधानसभा चुनाव के लिए जिन सीटों पर 2018 में हारे थे, उसे इस बार जीतने की रणनीति बनाई है. भाजपा मुख्यालय के एक नेता का दावा है कि 2023 में पुराना मैसूर क्षेत्र से भाजपा को 20 सीटें अधिक मिलने वाली हैं. हालांकि पुराना मैसूर का इलाका वोक्कालिगा बहुल है. भाजपा नेता डा. सीएन अश्वथनारायण भी वोक्कालिगा हैं. वोक्कालिगा को साधने के लिए भाजपा ने अश्वथनारायण को काफी अहमियत दी है. कांग्रेस के नेता डीके शिवकुमार भी वोक्का लिगा हैं. पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और उनका परिवार वोक्कालिगा है. पुराने मैसूर में जबरदस्त पकड़ रखता है. डीके शिवकुमार भी कांग्रेस के बेहद प्रभावी नेता हैं.
2018 के विधानसभा चुनाव में पुराने मैसूर की 64 सीटों में भाजपा को केवल 11 मिली थीं. 17 कांग्रेस ने जीती थी. 37 जद (एस) के पाले में गई थी. जद (एस) कुल 37 सीटें जीतने में सफल रहा था. भाजपा की कोशिश इसी क्षेत्र में विपक्ष को पटखनी देखकर कम से कम 30-35 सीटें जीतने की है. वैसे भाजपा के नेता बातचीत में मानते हैं कि इस बार कर्नाटक में मुकाबला दिलचस्प होगा. हालांकि उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस की अंदरुनी कलह का बड़ा फायदा मिलेगा. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलने एक मीडिया हाऊस के संपादक गए थे. प्रधानमंत्री ने उनसे बातचीत के दौरान कहा था कि कर्नाटक में भी सरकार और भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं है. माना जा रहा है कि चुनाव से पहले भाजपा अपनी सभी कमियों को दूर कर लेना चाहती है.
भाजपा के रणनीतिकारों का कहना है कि उसे विपक्ष की कमजोरी और विपक्षी दल में अंतर्कलह का भी लाभ मिलेगा. कहते हैं कि कांग्रेस के नेता डीके शिवकुमार और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया में भी प्रतिस्पर्धा चल रही है. सिद्धारमैया कुरुबा समुदाय से आते हैं. डीके शिवकुमार की लोकप्रियता काफी बढ़ रही है. उनकी लोकप्रियता एचडी कुमारस्वामी को भी भीतर से परेशान करती है. डीके शिवकुमार वैसे भी पूर्व मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा परिवार से करीबी संबंधों के लिए जाने जाते हैं. सिद्धारमैया कैम्प डीके शिवकुमार को रोकने के लिए पूर्व मंत्री और लिंगायत नेता एमबी पाटील को आगे कर देते हैं. भाजपा को लग रहा है कि कर्नाटक में उसे इसका फायदा मिलेगा.
कर्नाटक विधानसभा में कुल 224 सीटें है और सत्ता के लिए 113 सीटों की जरुरत होती है. विधानसभा चुनाव के नजरिेए से कर्नाटक को 6 भागों में बांटा जा सकता है. हैदरबाद से सीमाएं जुड़ने वाला क्षेत्र हैदराबाद कर्नाटक में 40 सीटें आती हैं. बॉम्बे कर्नाटक यानी महाराष्ट्र से लगे इलाकों में 50 सीटे, तटीय क्षेत्रों में 19, मैसूर के इलाके में 65 सीटें आती हैं. वहीं सेंट्रल कर्नाटक में 22 और बेंगलुरु में 28 सीटें आती हैं.
पिछली बार 2018 में हुए चुनाव में भाजपा 104 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. भाजपा को 36.35% वोट मिले थे. कांग्रेस सबसे ज्यादा वोट (38.14%) लाने के बावजूद 80 सीट ही ला सकी थी और जेडीएस को 37 सीटों पर जीत मिली थी. 2013 के चुनाव में भाजपा को महज 40 सीटें मिली थी. इस लिहाज से उसे 2018 के चुनाव में 64 सीटों का फायदा मिला था. 2013 के मुकाबले 2018 में भाजपा के वोट बैंक में करीब दोगुना का इजाफा हुआ था. हालांकि त्रिकोणीय समीकरण बनने की वजह से भाजपा बहुमत हासिल करने में नाकाम रही थी. वहीं 2018 के चुनाव में कांग्रेस को 42 सीटों का नुकसान हुआ.
ऐसे तो भाजपा कर्नाटक में अकेले चुनाव लड़ना चाहेगी. लेकिन एक फैक्टर है जिसे भाजपा रोकना चाहेगी. कांग्रेस-जेडीएस का चुनाव पूर्व गठबंधन भाजपा के लिए खतरा पैदा कर सकता है. पिछले चुनाव में कांग्रेस और जेडीएस को मिलाकर 117 सीटें आई थी. भाजपा को 36.53%, कांग्रेस को 38.14% और जेडीएस को 18.3% वोट मिले थे. वोट शेयर के विश्लेषण से साफ है कि पिछली बार कांग्रेस-जेडीएस को मिलाकर 56 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे. अगर इस बार भी ऐसा हुआ तो भाजपा के लिए मुश्किल हो जाएगा. हालांकि कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी ने अक्टूबर 2022 में ही एलान कर दिया था कि वे किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे, लेकिन चुनाव में अभी कुछ महीने बाकी हैं और भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस जेडीएस से गठबंधन का दबाव बना सकती है.
कर्नाटक में लिंगायत ही नहीं उसके बाद वोक्कालिगा बड़ा समुदाय है. वोक्कलिगा समुदाय के वोटरों का दक्षिण कर्नाटक के जिले जैसे मंड्या, हसन, मैसूर, बेंगलुरु (ग्रामीण), टुमकुर, चिकबल्लापुर, कोलार और चिकमगलूर में दबदबा है. राज्य की आबादी में ये 16 प्रतिशत हैं. ये जेडीएस के परंपरागत समर्थक माने जाते हैं. लिंगायत को ज्यादा तरजीह देने के कारण ये समुदाय भाजपा से खफा रहती है. कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए भाजपा जेडीएस से गठबंधन कर वोक्कालिगा समुदाय के दबदबे वाले पुराने मैसूर क्षेत्र की 89 सीटों के चुनावी समीकरण को साध सकती है. पिछली बार भाजपा को इनमें सिर्फ 22 सीटों पर ही जीत मिली थी. कांग्रेस को 32 और जेडीएस को 31 सीटों पर जीत मिली थी. अगर इन इलाकों में भाजपा का प्रदर्शन कुछ और बेहतर होता तो उसे स्पष्ट बहुमत आसानी से हासिल हो जाता.
दक्षिणी कर्नाटक में इस बार राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को फायदा मिलने की आस है. बोम्मई सरकार को वोक्कालिगा समुदाय के लिए आरक्षण बढ़ाने के मुद्दे से भी निपटना होगा. ये समुदाय अपने लिए 4 से बढ़ाकर 12 फीसदी आरक्षण की मांग कर रहा है. चुनाव से पहले अगर ऐसा नहीं हुआ तो भाजपा को इनके नाराजगी का खामियाजा भगतना पड़ सकता है. पुराने मैसूर के इलाकों में भाजपा अपनी कमजोरी पर ध्यान दे रही है. वो चाहती है कि यहां की 70 से ज्यादा सीटों पर जीत मिले.
कर्नाटक में सबसे बड़ी आबादी दलित मतदाताओं की भी है. कर्नाटक में अनुसूचित जाति की आबादी 23% है. यहां विधानसभा की 35 सीटें इस समुदाय के लिए आरक्षित है. पिछली बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में दलितों का बड़ा योगदान रहा था. भाजपा को इस समुदाय का 40 फीसदी वोट मिला था. जबकि 2013 में कांग्रेस को 65 फीसदी दलित वोट मिले थे. इससे जाहिर है कि इस बार भाजपा को बड़ी जीत हासिल करने के लिए दलितों का सहयोग चाहिए. मल्लिकार्जुन खरगे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से कर्नाटक का दलित वोट बैंक कांग्रेस की ओर लामबंद नहीं हो, इसकी ओर भी भाजपा को ध्यान देना होगा.
सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी फिर से कमल का देंगे साथ? क्योंकि कर्नाटक में अनुसूचित जनजाति की आबादी करीब 7% है. उनके लिए 15 सीटें आरक्षित हैं. ये मुख्य तौर से मध्य और उत्तरी कर्नाटक में केंद्रित हैं. पिछली बार भाजपा को इनका साथ मिला था. इस समुदाय के 44 फीसदी वोट के साथ भाजपा ने 7 सीटों पर जीत हासिल की थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कर्नाटक में एसटी के लिए आरक्षित दोनों सीट पर जीत हासिल की थी. आरक्षित सीटों के अलावा मलनाड और तटीय जिलों में कुछ सीटों पर आदिवासी वोट निर्णायक साबित होते हैं. इस समुदाय में कांग्रेस की भी अच्छी पकड़ है. अगर भाजपा कर्नाटक को अपना मजबूत किला बनाना चाहती है तो उसे आदिवासियों का वोट बंटने से रोकना होगा.
पिछड़े वर्ग को साथ लाने की भी एक चुनौती है जबकि दक्षिण के राज्यों में चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही इस बार जुलाई में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में हुई थी. ये तो तय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को ही आगे रखकर भाजपा हर वर्ग के वोट को साधने की कोशिश करेगी. भाजपा इसके लिए डबल इंजन के मंत्र भी इस्तेमाल करेगी. हालांकि उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती कर्नाटक के पिछड़ी जातियों को अपने साथ लाना है. भाजपा को ये अच्छे से पता है कि बिना जाति समीकरण को साधे कर्नाटक में वो बड़ी जीत हासिल नहीं कर सकती.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.