पिछले साल मई में जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव का परिणाम आया था तो किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या हासिल नहीं हुई थी. भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी जरूर थी लेकिन सरकार बनाने में नाकाम रही. उसके बाद कांग्रेस और जनता दाल सेक्युलर ने मिलकर सरकार का गठन किया था. तब ये दोनों एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे लेकिन भाजपा को सरकार बनाने से दूर रखने के लिए एक साथ आए थे. और उसी समय से सरकार के कार्यकाल के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगना शुरू हो गया था. इस चौदह साल की गठबंधन सरकार में दोनों पार्टियों में आपसी कलह कई बार सतह पर आई. लेकिन इस महीने के शुरुआत में दोनों दलों के 16 विधायकों ने अपनी-अपनी पार्टियों से इस्तीफा दे दिया और भाजपा को समर्थन देने का वादा किया. और यहीं से शुरू होता है सत्ता को बचाने और हथियाने का खेल.
सत्ता बचाने और हथियाने का ऐसा खेल जो लोकतंत्र को शर्मसार कर दे. सभी दलों के विधायक होटल और रिसॉर्ट का मजा लेते रहे जब तक विधानसभा का सत्र चालू नहीं हो गया. इस बीच इन विधायकों को अपनी जनता और प्रदेश के बारे में सोचने का जरा सा भी मौका नहीं मिला. ऐसा लग रहा है जैसे ये कामकाज के लिए नहीं बल्कि सत्ता के लिए चुन कर भेजे गए हों. खैर, जनता तो बेचारी होती ही है. जब इस बेचारी जनता ने इनको चुनकर भेजा था तो सोचा भी नहीं होगा कि ये इस कदर लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाएंगे.
बात केवल जनता का ही नहीं है. इस सियासी खेल में सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रदेश के राज्यपाल तक को आना पड़ा. लेकिन ये जनता के भाग्यविधाता उन दोनों को भी नज़रअंदाज करते नजर आ रहे हैं. बागी विधायकों के इस्तीफे के बारे में जब सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा स्पीकर के विवेक के ऊपर...
पिछले साल मई में जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव का परिणाम आया था तो किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या हासिल नहीं हुई थी. भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी जरूर थी लेकिन सरकार बनाने में नाकाम रही. उसके बाद कांग्रेस और जनता दाल सेक्युलर ने मिलकर सरकार का गठन किया था. तब ये दोनों एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे लेकिन भाजपा को सरकार बनाने से दूर रखने के लिए एक साथ आए थे. और उसी समय से सरकार के कार्यकाल के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगना शुरू हो गया था. इस चौदह साल की गठबंधन सरकार में दोनों पार्टियों में आपसी कलह कई बार सतह पर आई. लेकिन इस महीने के शुरुआत में दोनों दलों के 16 विधायकों ने अपनी-अपनी पार्टियों से इस्तीफा दे दिया और भाजपा को समर्थन देने का वादा किया. और यहीं से शुरू होता है सत्ता को बचाने और हथियाने का खेल.
सत्ता बचाने और हथियाने का ऐसा खेल जो लोकतंत्र को शर्मसार कर दे. सभी दलों के विधायक होटल और रिसॉर्ट का मजा लेते रहे जब तक विधानसभा का सत्र चालू नहीं हो गया. इस बीच इन विधायकों को अपनी जनता और प्रदेश के बारे में सोचने का जरा सा भी मौका नहीं मिला. ऐसा लग रहा है जैसे ये कामकाज के लिए नहीं बल्कि सत्ता के लिए चुन कर भेजे गए हों. खैर, जनता तो बेचारी होती ही है. जब इस बेचारी जनता ने इनको चुनकर भेजा था तो सोचा भी नहीं होगा कि ये इस कदर लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाएंगे.
बात केवल जनता का ही नहीं है. इस सियासी खेल में सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रदेश के राज्यपाल तक को आना पड़ा. लेकिन ये जनता के भाग्यविधाता उन दोनों को भी नज़रअंदाज करते नजर आ रहे हैं. बागी विधायकों के इस्तीफे के बारे में जब सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा स्पीकर के विवेक के ऊपर छोड़ दिया तो इसका भी भरपूर फायदा उठाया गया. जब राज्यपाल ने सदन में विश्वासमत सिद्ध करने केलिए कहा तो उन्हें भी दरकिनार कर दिया गया. दूसरी बार राज्यपाल ने चिट्ठी लिखकर विश्वासमत सिद्ध करने को कहा तो मुख्यमंत्री ने इसे 'लव लेटर' की संज्ञा दे दी. कांग्रेस पार्टी फिर से सुप्रीम कोर्ट का रूख कर लिया. लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि आखिर यहां हो क्या रहा है और कब तक होता रहेगा. क्योंकि हमारे देश का प्रजातंत्र संविधान की मर्यादा पर टिका होता है लेकिन हमारे ये नेतागण इसे तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
कर्नाटक में तीनों प्रमुख पार्टियां, भाजपा, कांग्रेस और जनतादल सेक्युलर, सत्ता के लोभ में अपना सम्मान और मर्यादा तक भूल चुकी हैं. इनके बारे में जनता के बीच क्या छवि बन रही है उसका भी इन्हें ख्याल नहीं है. किसी तरह अगर यह सरकार बच भी जाती है या फिर भाजपा की सरकार बनती भी है तो यह कितना नैतिक होगा कहना मुश्किल है. या फिर से सत्ता के लिए छीना-झपटी जारी रही तो जनता के काम के लिए इनके पास कितना वक़्त होगा समझना आसान है. लेकिन इन्हें शायद इस बात का ख्याल रखना पड़ेगा कि प्रजातंत्र में जनता ही जनार्दन होता है और इसके आगे भी चुनाव होगा और वो फिर जनता के रोष को कैसे झेल पाएंगे.
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