डीएमके अध्यक्ष और द्रविण राजनीति के पुरोधा एम करुणानिधि बुधवार शाम मरीना बीच पर दफनाए जाएंगे. तमिलनाडु की राजनीति में जीते-जी उन्होंने जो संघर्ष किया, वह उनके निधन के बाद भी जारी रहा. करुणानिधि की समाधि का विवाद मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा, और नतीजे में शाम तक करुणानिधि की पार्थिव देह शाम तक मरीना बीच पहुंचेगी.
तमिलनाडु के पांच बार मुख्यमंत्री रहे एम करुणानिधि ने मंगलवार शाम चेन्नई के एक निजी अस्पताल में 94 साल की उम्र में अंतिम सांसे लीं. उनके बेटे और राजनीतिक वारिस एमके स्टालिन ने साल 2017 में डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष के तौर पर काम संभाला था.
उन्होंने 14 साल की कम उम्र में राजनीति में प्रवेश किया था. और फिर अपना राजनीतिक परचम ऊंचा करते गए. वैसे राजनीतिक पंडितों के अनुसार भारतीय और तमिलनाडु की राजनीति में उनकी मैराथन उपस्थिति द्रविड़ आंदोलन के कारण ही रही है. मुख्यमंत्री के बतौर उनकी उपलब्धियों को एमजीआर और जयललिता ने बौना करने की कोशिश की, लेकिन 'पराशक्ति' में उनकी कलम से बहने वाले द्रविड़ आदर्श विचार ने उन्हें अंतिम समय तक प्रासंगिक नेता बनाए रखा.
करूणानिधि के साहसपूर्ण नेतृत्व की कई मिसालें हैं. आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का विरोध इसमें प्रमुख है. मतदाताओं की भरोसेमंद फौज तैयार करने में करुणानिधि माहिर थे. गरीबों के उत्थान की ललक और प्रयासों ने उन्हें पीढ़ी-दर पीढ़ी सफलता की सीढ़ियों पर कायम किया था. यही कारण था जिससे वो भारतीय राजनीति में 60 साल तक राज करने में सफल रहे.
वह द्रविड़ आंदोलन ही था जिसके हिंदी-विरोध ने यह सुनिश्चित किया कि बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषी जातीयता भारतीयता की पहचान बनेगी. करुणानिधि के...
डीएमके अध्यक्ष और द्रविण राजनीति के पुरोधा एम करुणानिधि बुधवार शाम मरीना बीच पर दफनाए जाएंगे. तमिलनाडु की राजनीति में जीते-जी उन्होंने जो संघर्ष किया, वह उनके निधन के बाद भी जारी रहा. करुणानिधि की समाधि का विवाद मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा, और नतीजे में शाम तक करुणानिधि की पार्थिव देह शाम तक मरीना बीच पहुंचेगी.
तमिलनाडु के पांच बार मुख्यमंत्री रहे एम करुणानिधि ने मंगलवार शाम चेन्नई के एक निजी अस्पताल में 94 साल की उम्र में अंतिम सांसे लीं. उनके बेटे और राजनीतिक वारिस एमके स्टालिन ने साल 2017 में डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष के तौर पर काम संभाला था.
उन्होंने 14 साल की कम उम्र में राजनीति में प्रवेश किया था. और फिर अपना राजनीतिक परचम ऊंचा करते गए. वैसे राजनीतिक पंडितों के अनुसार भारतीय और तमिलनाडु की राजनीति में उनकी मैराथन उपस्थिति द्रविड़ आंदोलन के कारण ही रही है. मुख्यमंत्री के बतौर उनकी उपलब्धियों को एमजीआर और जयललिता ने बौना करने की कोशिश की, लेकिन 'पराशक्ति' में उनकी कलम से बहने वाले द्रविड़ आदर्श विचार ने उन्हें अंतिम समय तक प्रासंगिक नेता बनाए रखा.
करूणानिधि के साहसपूर्ण नेतृत्व की कई मिसालें हैं. आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का विरोध इसमें प्रमुख है. मतदाताओं की भरोसेमंद फौज तैयार करने में करुणानिधि माहिर थे. गरीबों के उत्थान की ललक और प्रयासों ने उन्हें पीढ़ी-दर पीढ़ी सफलता की सीढ़ियों पर कायम किया था. यही कारण था जिससे वो भारतीय राजनीति में 60 साल तक राज करने में सफल रहे.
वह द्रविड़ आंदोलन ही था जिसके हिंदी-विरोध ने यह सुनिश्चित किया कि बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषी जातीयता भारतीयता की पहचान बनेगी. करुणानिधि के नेतृत्व में ही द्रमुक ने अपनी स्थिति मज़बूत की थी.
1987 में एमजीआर की मृत्यु के बाद करुणानिधि के नेतृत्व में द्रमुक 1989 में फिर सत्ता में लौट आई. लेकिन 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद इस सरकार को बर्खास्त कर दिया गया, और एआईएडीएमके वापसी कर ली. जयललिता मुख्यमंत्री बनीं. तब से दोनों दल बारी-बारी से सत्ता पर कब्ज़ा करते आये. लेकिन जयललिता ने 2011 और 2016 में लगातार जीत हासिल कर इस तिस्लिम को तोड़ दिया. इस दशक में करुणा को एक सफल मुख्यमंत्री के रूप में देखा गया था जब उन्होंने आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया था. लेकिन अम्मा ने अपने 'पॉपुलिस्ट योजनाओं' के कारण से सत्ता को दोबारा हासिल करने में कामयाबी हासिल की थी.
अब चूंकि करुणानिधि और जयललिता दोनों का अंत हो चुका है, ऐसे में आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि तमिलनाडु की राजनीति किस दिशा में जाती है. क्या यह कमल-रजनी जोड़ी होगी? क्या एमके स्टालिन इस संकट से द्रमुक को उठाने में सफल होंगे? या क्या एआईएडीएमके को और भी तमिल राजनीति पर हावी होने का मौका मिलेगा? या फिर आने वाले समय में हमें तमिलनाडु में हिंदू राष्ट्रवादियों का उदय देखने को मिलेगा? लगता है अब तमिल राजनीति में दिलचस्प समय आ गया है. आगे क्या होगा इसके लिए प्रतीक्षा करनी होगी.
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