जम्मू कश्मीर में जबसे पीडीपी और भाजपा गठबंधन सत्ता में आया तबसे घाटी का युवा और अलगाववादी ऐसी समस्या बनकर सामने खड़े दिखे जिनसे अब तक निबटने का तरीका ना तो केंद्र में बैठी नरेंद्र मोदी सरकार तलाश सकी और ना ही राज्य सरकार. हालत हर दूसरे दिन और ज्यादा बिगड़ती रही और इस बार उपचुनाव के बाद से फिर तनाव काबू से बाहर है. भाजपा के नेता इसका ठीकरा महबूबा मुफ़्ती के सिर रखकर फोड़ने में कतई पीछे नहीं. खासकर तब जबकि अपने भाई को राजनीति में स्थापित करने के मंसूबे लिए बैठी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती चुनाव नहीं जिता सकीं. और इस हार को ही उनके सहयोगी मौजूदा फसाद को नियंत्रण में ना कर पाने से जोड़कर देख रहे हैं.
भाजपा नाराज है और राज्य में बार बार हो रही हिंसा से खराब होती दिल्ली की मोदी सरकार की छवि को लेकर परेशान भी है. इसीलिए इस बार राज्य के नेताओं ने केंद्र से अपील की है कि महबूबा से सख्ती से बात की जाए.
महबूबा मुफ़्ती अपने पिता के निधन के बाद, जब जम्मू और कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं तो इसे एक सकारात्मक कदम के रूप में देखा गया. लेकिन साथ ही एक बड़ा चैलेंज भी. महबूबा के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पहले ही दिन से कांटों का ताज सबित हुई है. उन्हें एक तरफ तो बीजेपी जैसे आक्रामक सहयोगी दल से निपटना पड़ा है जो कश्मीर, आतंवाद और कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर कोई नरमी दिखने को तैयार नहीं है वहीँ दूसरी तरफ उन्हें घाटी में बढ़ रही हिंसा से जूझना पड़ रहा है जो पीडीपी के बेस को लगातार कमजोर कर रहा है. ये बात किसी से छुपी नहीं है की पीडीपी और बीजेपी का साथ आना एक राजनितिक समझौता ज्यादा था क्योंकि दोनों पार्टियों की विचारधारा और राज्य का विज़न किसी नदी के दो छोर की तरह है जो कभी मिल नहीं सकते.
महबूबा कोई मुफ़्ती नहीं हैं
महबूबा की राजनीती हमेशा से...
जम्मू कश्मीर में जबसे पीडीपी और भाजपा गठबंधन सत्ता में आया तबसे घाटी का युवा और अलगाववादी ऐसी समस्या बनकर सामने खड़े दिखे जिनसे अब तक निबटने का तरीका ना तो केंद्र में बैठी नरेंद्र मोदी सरकार तलाश सकी और ना ही राज्य सरकार. हालत हर दूसरे दिन और ज्यादा बिगड़ती रही और इस बार उपचुनाव के बाद से फिर तनाव काबू से बाहर है. भाजपा के नेता इसका ठीकरा महबूबा मुफ़्ती के सिर रखकर फोड़ने में कतई पीछे नहीं. खासकर तब जबकि अपने भाई को राजनीति में स्थापित करने के मंसूबे लिए बैठी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती चुनाव नहीं जिता सकीं. और इस हार को ही उनके सहयोगी मौजूदा फसाद को नियंत्रण में ना कर पाने से जोड़कर देख रहे हैं.
भाजपा नाराज है और राज्य में बार बार हो रही हिंसा से खराब होती दिल्ली की मोदी सरकार की छवि को लेकर परेशान भी है. इसीलिए इस बार राज्य के नेताओं ने केंद्र से अपील की है कि महबूबा से सख्ती से बात की जाए.
महबूबा मुफ़्ती अपने पिता के निधन के बाद, जब जम्मू और कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं तो इसे एक सकारात्मक कदम के रूप में देखा गया. लेकिन साथ ही एक बड़ा चैलेंज भी. महबूबा के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पहले ही दिन से कांटों का ताज सबित हुई है. उन्हें एक तरफ तो बीजेपी जैसे आक्रामक सहयोगी दल से निपटना पड़ा है जो कश्मीर, आतंवाद और कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर कोई नरमी दिखने को तैयार नहीं है वहीँ दूसरी तरफ उन्हें घाटी में बढ़ रही हिंसा से जूझना पड़ रहा है जो पीडीपी के बेस को लगातार कमजोर कर रहा है. ये बात किसी से छुपी नहीं है की पीडीपी और बीजेपी का साथ आना एक राजनितिक समझौता ज्यादा था क्योंकि दोनों पार्टियों की विचारधारा और राज्य का विज़न किसी नदी के दो छोर की तरह है जो कभी मिल नहीं सकते.
महबूबा कोई मुफ़्ती नहीं हैं
महबूबा की राजनीती हमेशा से अपने पिता मुफ़्ती मोहम्मद सईद से अलग रही है. वो अपने राजनीतक विचारों को बहुत ही साफ ढंग से व्यक्त करती हैं जबकि उनके पिता आक्रामकता से बचते थे और अपने बयानों में भी संयम बरतते थे. मुफ़्ती मोहम्मद सईद बहुत ही चतुर राजनेता माने जाते थे जो समय और परिस्थिति के हिसाब से अपनी राजनीति में बदलाव करते थे. उनके उलट महबूबा का रुख राजनीति को लेकर आक्रामक माना जाता है. जब महबूबा मुख्यमंत्री नहीं थीं तब भी अमरनाथ भूमि विवाद मुद्दे पर उन्होंने कांग्रेस के साथ आनन फानन में तोड़ लिया और गुलाम नबी आजाद की सरकार गिरा दी थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वो आक्रामक रही हैं और कुछ दिन पहले सेनाध्यक्ष के साथ मुलाकत में उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि जो भी स्थिति में सुधार हुआ था वो सेना की ज्यादतियों के वायरल हुए विडियो से खत्म हो गया है.
लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद महबूबा के सामने चुनौती दो धारी तलवार की तरह रही है. उन्हें हमेशा अपने सहयोगी दल बीजेपी और केंद्र सरकार की उम्मीदों के साथ अपने राज्य की जनता की अपेक्षाओं के बीच तालमेल बिठाना पड़ा है जो अभी तक टेढ़ी खीर साबित हुई है. सरकार में भी ये सोच है कि जब महबूबा दिल्ली में होती हैं तो मुख्यमंत्री होती हैं लेकिन कश्मीर लौटते ही वो एक एक्टिविस्ट की तरह काम करने लगती हैं. केंद्र सरकार में ये भी एक सोच है महबूबा स्थिति को वैसे हैंडल नहीं कर पा रही हैं जैसे की उनके पिता किया करते थे. बीजेपी और पीडीपी अलायन्स के बीच जो सबसे बड़ी दिक्कत है वो है आपसी विश्वास की. साफ है कि नई दिल्ली महबूबा की राजनीति को हमेशा संदेह की दृष्टि से देखती है और महबूबा उनका विश्वास अभी तक नहीं जीत पाई हैं. महबूबा की दिक्कत ये भी है कि वो अपने जनाधार का भी विश्वास तेजी से खो रही हैं जो उन्हें अब नई दिल्ली के इशारों पर कम करते हुए देखता है. केंद्र और राज्य के बीच ताल मेल बिठाना और उस कसौटी पर खरा उतरना महबूबा के लिए आसान नहीं होगा.
इतिहास नहीं बल्कि भविष्य की तरफ बढें कदम
1989 में जब बारामुला और अनंतनाग में लोकसभा चुनाव के दौरान पांच प्रतिशत के आसपास वोटिंग हुई थी. श्रीनगर से तो नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए थे. करीब तीस साल बाद हम एक बार फिर वहीं पहुंच गये. 9 अप्रैल को हुए चुनाव में वोट तो सात प्रतिशत पड़े और आठ लोगों की जान हिंसा में चली गयी. हां फर्क बस इतना है कि उन्नीस सौ नवासी में आतंकियों के बन्दूक के डर से वोट कम पड़े थे लेकिन इस बार वजह कश्मीर के युवा थे जिन्होंने वोटर्स को मतदान केंद्र तक पहुंचने ही नहीं दिया. महबूबा हमेशा से हीलिंग टच की बात करती रहीं हैं और इस बात की पक्षधर रही हैं कि बातचीत हो और सबके साथ हो जिसमें अलगाववादी भी शामिल हैं. सच्चाई ये भी है कि पीडीपी को उन्होंने अपने दम पर पार्टी के रूप में खड़ा किया है.
लेकिन सवाल अब ये है की क्या वो एक तरफ हिंसा में शामिल कश्मीर के युवा वर्ग को वो रास्ता छोड़ने के लिए समझा पाएंगी वहीँ दूसरी तरफ क्या केंद्र को बातचीत से समस्या का समाधान ढूंढने के लिए मना पाएंगी.
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