घर से अच्छी कोई जगह नहीं होती! वो शहर जहां जन्म हुआ है, जहां पले-बढ़े हैं वहां की बात ही कुछ और होती है और अगर वो जगह कश्मीर है तब तो फिर शायद कहीं और जाने का कभी मन ही न करे, लेकिन 1989 और 1990 के वो कुछ महीने कश्मीरी पंडितों के लिए इतने भयानक थे कि उन्हें अपना घर छोड़कर भागना पड़ा. अपना घर अपनी जमीन छिन जाए तो यकीनन दुख होता है, लेकिन कई सालों तक वहां वापस भी न जा पाएं और घर की यादों में सिर्फ हिंसा और तकलीफ हो तो यकीनन हर उम्मीद टूट जाती है.
लेकिन हाल ही में एक ऐसी खबर सामने आई है जिसमें शायद लाखों कश्मीरी पंडितों को ताकत है. श्रीनगर के मश्हूर मसालों का बाज़ार गड कोचा (Gad Kocha) 1 मई को जगमगा उठा. कारण भी बहुत खास था. एक कश्मीरी पंडित ने अपनी दुनिया वापस कश्मीर को बनाने की हिम्मत की थी. ये भरोसा दिखाया था कि दहशत के 30 सालों बाद भी कोई कश्मीरी पंडित अपने घर से प्यार करता है.
हल्की बारिश के बीच लोगों की भीड़ एक दुकान में जा रही थी. ये दुकान थी रौशन लाल मावा की दुकान. एक कश्मीरी पंडित जो 30 साल पहले गोलियों के जख्मों से बच गया था. रौशन लाल मावा कश्मीर से अक्टूबर 1990 में भागे थे जहां उन्हें अपने घर-कारोबार को छोड़कर जाना पड़ा था. उस दिन रौशन लाल अपनी दुकान पर ही थे जब आतंकियों ने उनपर तीन गोलियां चलाईं थी. एक पेट में तो एक पैर में गोली जा लगी थी.
हमले के कुछ ही दिनों बाद जम्मू छोड़कर परिवार दिल्ली आ गया था. इसमें मावा की पत्नी, दो बच्चे और एक बेटी शामिल थे. उनका एक बेटा पहले ही कश्मीर के बाहर था. हमले के बाद रौशन लाल मावा को बहुत चोट आई थी पर वो किसी तरह बच गए थे. वो कुछ दिन रिफ्यूजी कैंप में भी रहे थे जहां उनके साथ हज़ारों और कश्मीरी पंडित रह रहे थे.
रौशन लाल मावा का दिल्ली में भरा पूरा व्यापार था, लेकिन अब वो बस कश्मीर ही बसना चाहते हैं.
इस परिवार को दिल्ली में बसने में बहुत दिन लग गए. उनके बेटे संदीप मावा जो पेशे से डॉक्टर हैं उन्होंने ही अपने पिता को दिल्ली में बसने की सलाह दी थी. हालांकि, संदीप और उनकी मां जम्मू वापस चले गए, लेकिन बाकी दिल्ली में ही बस गए.
दिल्ली की खड़ी बावली में बिजनेस की शुरुआत ही बहुत मुश्किल थी और सालों की मेहनत से मावा परिवार अपने बल पर खड़ा हो पाया. अपनी दुकान का नाम वही रखा 'नंदलाल महाराज कृष्णा'. इसी नाम से दुकान कश्मीर में भी थी. पर 30 साल के बाद अब रौशन लाल मावा कश्मीर में वापस अपनी दुकान लगाने चले गए.
पर क्यों?
इस मामले में मावा का कहना है कि कोई कश्मीरी कभी दिल्ली को पसंद ही नहीं कर सकता. उनके इर्द-गिर्द अभी भी बहुत से ऐसे दुकानवाले रहे जिन्होंने कभी भी उनका साथ नहीं छोड़ा. मावा ने दिल्ली में बहुत सफलता हासिल की. 20 करोड़ से ऊपर का अकेले उनका बंगला है जो सैनिक फार्म्स में है. लेकिन कुछ भी हासिल करने के बाद भी मावा कभी अपनी जड़ें नहीं भूल पाए. उनके हिसाब से दिल्ली में कोई जिंदगी ही नहीं थी. वो कश्मीर की उस हवा के लिए कुछ भी कर सकते थे.
मावा अपनी जिंदगी के अंतिम साल कश्मीर में ही बिताना चाहते हैं और कहते हैं कि उन्हें यहीं मरना है. उनकी अस्थियां कश्मीर में ही रहेंगी. मावा की पुरानी दुकान जर्जर हो चुकी थी और कश्मीर में एक बार फिर से बनाया गया. दो मंजिला बिल्डिंग खड़ी की गई. उसी जगह पर जहां कभी मावा को गोली मारी गई थी.
'कश्मीर के हालात से डर नहीं हिम्मत मिलती है'
इसे एक इंसान का भरोसा कह लीजिए कि पिछले एक दशक में कश्मीर के हालात जिस तरह से खराब हुए हैं उन्हें डर नहीं लगता. उन्हें इसके पहले भी कश्मीर में आते-जाते समय डर नहीं लगा. उन्हें अभी भी लगता है कि उनके लिए ये सुरक्षित जगह है जीने के लिए.
'कश्मीरी पंडितों को वापस आना चाहिए'
मावा कहते हैं कि कश्मीर के लोग अभी भी उतने ही मिलनसार हैं जितने 30 साल पहले थे. वो कश्मीरी पंडितों से गुजारिश करते हैं कि वो घाटी के बाहर न रहकर घाटी में आएं और अपने भाईयों के साथ रहें.
ये एक व्यक्ति के भरोसे की जीत है. ये जीत ही तो है कि इतने सालों के बाद भी मावा से मिलने उनसे बात करने लोग आए और उनका स्वागत उसी तरह से बाजार में किया गया जिस तरह से पहले होता था. जैसे कुछ भी बदला न हो. ये वो घड़ी है जब एक कश्मीरी पंडित ने अपनी जमीन पर वापसी की है. अपने घर को दोबारा घर कहा है. ये जीत है उस भरोसे और प्यार की जो अपने घर अपने इलाके के लिए मावा के मन में था.
उम्मीद है कि मावा वहां सुरक्षित रहेंगे और उनकी ही तरह और कश्मीरी पंडित भी अपने घर वापस लौटेंगे. वापसी करेंगे उसी सुकून के लिए जो उन्हें छोड़कर जाना पड़ा था. वापसी करेंगे उसी कश्मीर में जो उनका घर था. मावा का ये भरोसा कई लोगों को ताकत दे जाएगा.
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