जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को दी गयी सुरक्षा वापस लिया जाना अच्छा कदम है, लेकिन ये सरकार द्वारा बहुत ही देर से लिया गया फैसला है. ये फैसला तो तभी ले लिया जाना चाहिये था जब मालूम हुआ कि ये अलगाववादी ही पैसे देकर कश्मीरी नौजवानों को पत्थरबाज बनाते हैं - और उसके लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से फंड लेते हैं.
जुलाई, 2016 में हिज्बुल आतंकी बुरहान वानी की मुठभेड़ में हुई मौत के बाद से जम्मू-कश्मीर लगातार हिंसा की चपेट में रहा. सुरक्षा बलों के लिए कोई भी आपरेशन करना मुश्किल हुआ करता रहा. जब भी वो किसी आतंकवादी को घेरते ये पत्थरबाज अड़ंगा डाल कर उन्हें भागने में मदद करते रहे. कहने को तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में ही मुख्यमंत्री रहते महबूबा मुफ्ती ने माना था कि कश्मीर के पत्थरबाजों के पीछे ढाल बन कर कौन खड़ा है - सब जानते हुए भी अलगाववादियों पर सालाना करोड़ों रुपये खर्च किये जाते रहे. और पहले न सही लेकिन उरी हमले के बाद तो अलगाववादियों की सुरक्षा वापसी का फैसला हो ही जाना चाहिये थे.
बहरहाल, संतोष की बात है कि जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज उमर फारूक, शब्बीर शाह, हाशिम कुरैशी, बिलाल लोन, फजल हक कुरैशी और अब्दुल गनी बट को दिया गया सुरक्षा कवर वापस ले लिया है.
क्या ये सरकारी सुरक्षा कवर के हकदार थे?
मार्च, 2017 में आज तक के स्टिंग ऑपरेशन से मालूम हुआ कि किस तरह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई घाटी में पत्थरबाजी की फंडिंग करती है. कैमरे पर कई पत्थरबाजों ने कबूल किया था कि एक दिन के लिए उन्हें पांच सौ से लेकर पांच हजार रुपये तक मिल जाते हैं - और ऐसा वे 2008 से कर रहे हैं.
स्टिंग ऑपरेशन के बाद NIA ने उन लोगों को पकड़ा जिनके खिलाफ पाकिस्तानी फंडिंग के सबूत मिले और फिर अलगावादी नेता शब्बीर शाह की गिरफ्तारी हुई. शब्बीर शाह को 26 जुलाई, 2017 को श्रीनगर से गिरफ्तार किया गया था और तभी से वो हिरासत में रहा है. कुछ ही दिन पहले उसके एक सहयोगी को जमानत...
जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को दी गयी सुरक्षा वापस लिया जाना अच्छा कदम है, लेकिन ये सरकार द्वारा बहुत ही देर से लिया गया फैसला है. ये फैसला तो तभी ले लिया जाना चाहिये था जब मालूम हुआ कि ये अलगाववादी ही पैसे देकर कश्मीरी नौजवानों को पत्थरबाज बनाते हैं - और उसके लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से फंड लेते हैं.
जुलाई, 2016 में हिज्बुल आतंकी बुरहान वानी की मुठभेड़ में हुई मौत के बाद से जम्मू-कश्मीर लगातार हिंसा की चपेट में रहा. सुरक्षा बलों के लिए कोई भी आपरेशन करना मुश्किल हुआ करता रहा. जब भी वो किसी आतंकवादी को घेरते ये पत्थरबाज अड़ंगा डाल कर उन्हें भागने में मदद करते रहे. कहने को तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में ही मुख्यमंत्री रहते महबूबा मुफ्ती ने माना था कि कश्मीर के पत्थरबाजों के पीछे ढाल बन कर कौन खड़ा है - सब जानते हुए भी अलगाववादियों पर सालाना करोड़ों रुपये खर्च किये जाते रहे. और पहले न सही लेकिन उरी हमले के बाद तो अलगाववादियों की सुरक्षा वापसी का फैसला हो ही जाना चाहिये थे.
बहरहाल, संतोष की बात है कि जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज उमर फारूक, शब्बीर शाह, हाशिम कुरैशी, बिलाल लोन, फजल हक कुरैशी और अब्दुल गनी बट को दिया गया सुरक्षा कवर वापस ले लिया है.
क्या ये सरकारी सुरक्षा कवर के हकदार थे?
मार्च, 2017 में आज तक के स्टिंग ऑपरेशन से मालूम हुआ कि किस तरह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई घाटी में पत्थरबाजी की फंडिंग करती है. कैमरे पर कई पत्थरबाजों ने कबूल किया था कि एक दिन के लिए उन्हें पांच सौ से लेकर पांच हजार रुपये तक मिल जाते हैं - और ऐसा वे 2008 से कर रहे हैं.
स्टिंग ऑपरेशन के बाद NIA ने उन लोगों को पकड़ा जिनके खिलाफ पाकिस्तानी फंडिंग के सबूत मिले और फिर अलगावादी नेता शब्बीर शाह की गिरफ्तारी हुई. शब्बीर शाह को 26 जुलाई, 2017 को श्रीनगर से गिरफ्तार किया गया था और तभी से वो हिरासत में रहा है. कुछ ही दिन पहले उसके एक सहयोगी को जमानत मिली है. जिन अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस ली गयी है उनमें एक नाम शब्बीर शाह का भी है.
ताज्जुब होता है कि करीब तीन साल से पत्थरबाज घाटी में उत्पात मचाये हुए हैं और डेढ़ साल से ज्यादा वक्त से शब्बीर शाह उसी काम के लिए सरकारी एजेंसी की गिरफ्त में है - और उसको दिया गया सुरक्षा कवर अब जाकर वापस लिया जा रहा है. दरअसल, शब्बीर शाह को मिले सुरक्षाकर्मी श्रीनगर में उसके घर पर तैनात थे जहां उसका परिवार रहता है.
सुरक्षा कवर वापस लिये जाने वालों में बड़ा नाम है - मीरवाइज उमर फारूक. जो पुलिस मीरवाइज उमर फारूक की सुरक्षा में तैनात थी उसी के डिप्टी एसपी को निर्वस्त्र करके उसके समर्थकों ने पीट पीट कर मार डाला. बताया गया था कि जिस वक्त ये घटना हुई मीरवाइज उमर फारूक नौहट्टा इलाके की मस्जिद के अंदर था और उसके समर्थक ड्यूटी कर रहे एक पुलिस अफसर पर टूट पड़े थे.
ये घटना जून, 2017 की है जब डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित जामिया मस्जिज के बाहर ड्यूटी कर रहे थे. वो मस्जिद से बाहर आ रहे लोगों की तस्वीरें ले रहे थे. इसके बाद ही कुछ लोग आये और अयूब पंडित से उलझ गये जिसके बाद आत्मरक्षा में उन्होंने पिस्टल से गोली चलायी. इसी बात पर भीड़ ने पत्थर मार कर मौत के घाट उतार डाला.
बाद में मीरवाइज ने घटना को अफसोसजनक तो बताया, लेकिन जो कहा वो बहुत अजीब था, 'पुलिस का इस्तेमाल हमारे खिलाफ किया जाता है, जिसके कारण इस तरह की घटना होती है.'
डीएसपी की हत्या की घटना के बाद मीरवाइज उमर फारूक की सुरक्षा में कटौती कर दी गयी थी. जो शख्स ऐसी घटनाओं के बारे ये नजरिया रखता हो, शक के दायरे में हो, भारत के खिलाफ जहर उगलता रहता हो - और हर वक्त पाकिस्तान का माला जपता रहता हो उसके सुरक्षा कवर दिये जाने के पीछे जो भी दलील हो समझना मुश्किल है.
पाकिस्तानी विदेश मंत्री खुर्शीद कुरैशी का फोन जिन दो हुर्रियत नेताओं के पास आया था उनमें से एक मीरवाइज उमर फारूक ही है - ये पुलवामा अटैक के दो हफ्ते पहले की बात है.
अलगाववादियों को सुरक्षा क्यों और कितना खर्चीला?
मीरवाइज उमर फारूक 1990 में तब सुरक्षा कवर दिया गया जब उसके उसके पिता मीरवाइज मौलवी फारूक की आतंकवादियों ने हत्या कर दी. मीरवाइज के पिता तब ऑल जम्मू एंड कश्मीर अवामी एक्शन कमेटी के चेयरमैन थे. तब नेशनल कांप्रेंस नेता फारूक अब्दुल्ला ने आरोप लगाया था कि केंद्र और राज्य की मुफ्ती मोहम्मद सईद सरकार ने मीरवाइज मौलवी की सुरक्षा में कोताही बरती इसलिए उनकी हत्या हो गयी.
बारह साल बाद 21 मई, 2002 को अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन की भी आतंकवादियों ने हत्या कर दी. ये हत्या भी उस वक्त हुई जब अब्दुल गनी लोन मीरवाइज मौलवी फारूक की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे थे.
सिर्फ सैयद अली शाह गिलानी और जेकेएलफे के यासीन मलिक ऐसे अलगाववादी नेता रहे जिन्होंने सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया था. सुरक्षा वापस लेने के सरकार के फैसले पर अलगाववादी नेताओं की ओर से कहा गया कि ऐसा होने से कोई फर्क नहीं आएगा. अव्वल तो उनका कहना है कि सुरक्षा मांगी ही किसने थी और वैसे भी उनका कहना है कि कश्मीरी उनकी सुरक्षा के लिए काफी हैं.
2018 में ऊधमपुर से विधायक पवन गुप्ता के सवाल पर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बताया गया कि अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा पर करीब 11 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं. इसमें करीब 50 लाख रुपये उनकी सुरक्षा में इस्तेमाल किये जाने वाहनों पर खर्च हुआ था.
2016 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दाखिल की गयी थी जिसमें अलगाववादियों की सुरक्षा बंदोबस्त खत्म करने की गुजारिश की गयी थी. याचिका में कहा गया था कि अलगाववादियों की सुरक्षा पर 100 करोड़ से भी ज्यादा खर्च हो चुके हैं - लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे सरकार के अधिकार क्षेत्र का मामला बताते हुए याचिका खारिज कर दी थी.
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