पंजाब में मनप्रीत बादल का बीजेपी ज्वाइन करना कांग्रेस के लिए एक छोटा सा झटका है, लेकिन के. चंद्रशेखर राव (KCR Opposition Rally) ने विपक्ष के कुछ ही नेताओं को जुटा कर राहुल गांधी के लिए कहीं ज्यादा बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी है - और बीजेपी को 2024 में सत्ता से बेदखल करने के कांग्रेस के सपने के पूरे न होने का मजबूत संकेत है.
कांग्रेस नेता मनप्रीत बादल के बीजेपी ज्वाइन करने को डाउनप्ले कर रहे हैं. जयराम रमेश इसे पंजाब से संकट के बादल छंटने जैसा बता रहे हैं. अगर केसीआर की खम्मम रैली की तुलना में देखें तो वाकई मनप्रीत बादल का कांग्रेस छोड़ना निश्चित तौर पर मामूली घटना है.
भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और उनके करीबियों को जो भी उम्मीद हो, लेकिन मनप्रीत बादल का पार्टी छोड़ने का फैसला बता रहा है कि पार्टी को अपनी रणनीतियों पर नये सिरे से फैसला लेने की जरूरत है. मनप्रीत बादल का कदम बता रहा है कि कांग्रेस के बाकी नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है.
मनप्रीत बादल के बारे में कहा जाता है कि वो अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने से नाराज थे. ये भी एक वजह हो सकती है, लेकिन बस इतनी सी बात से कोई पार्टी नहीं छोड़ देता, जब तक कि उसकी कोई बड़ी मजबूरी न हो. शशि थरूर को सामने रख कर इसे समझा जा सकता है.
पंजाब में जिस तरीके से कांग्रेस ने अपने लिए गड्ढे खोद लिये और आम आदमी पार्टी के लिए रास्ता साफ कर दिया, भला कौन नेता कांग्रेस में टिकना चाहेगा. अगर उसके लिए कहीं कोई रास्ता न बन पा रहा हो. कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीजेपी में चले जाने के बाद मनप्रीत बादल के लिए पाला बदलना आसान हो गया था.
भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को फायदा तो मिला है, लेकिन राहुल गांधी के लिए निजी तौर पर ज्यादा लगता है. यात्रा से...
पंजाब में मनप्रीत बादल का बीजेपी ज्वाइन करना कांग्रेस के लिए एक छोटा सा झटका है, लेकिन के. चंद्रशेखर राव (KCR Opposition Rally) ने विपक्ष के कुछ ही नेताओं को जुटा कर राहुल गांधी के लिए कहीं ज्यादा बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी है - और बीजेपी को 2024 में सत्ता से बेदखल करने के कांग्रेस के सपने के पूरे न होने का मजबूत संकेत है.
कांग्रेस नेता मनप्रीत बादल के बीजेपी ज्वाइन करने को डाउनप्ले कर रहे हैं. जयराम रमेश इसे पंजाब से संकट के बादल छंटने जैसा बता रहे हैं. अगर केसीआर की खम्मम रैली की तुलना में देखें तो वाकई मनप्रीत बादल का कांग्रेस छोड़ना निश्चित तौर पर मामूली घटना है.
भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और उनके करीबियों को जो भी उम्मीद हो, लेकिन मनप्रीत बादल का पार्टी छोड़ने का फैसला बता रहा है कि पार्टी को अपनी रणनीतियों पर नये सिरे से फैसला लेने की जरूरत है. मनप्रीत बादल का कदम बता रहा है कि कांग्रेस के बाकी नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है.
मनप्रीत बादल के बारे में कहा जाता है कि वो अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने से नाराज थे. ये भी एक वजह हो सकती है, लेकिन बस इतनी सी बात से कोई पार्टी नहीं छोड़ देता, जब तक कि उसकी कोई बड़ी मजबूरी न हो. शशि थरूर को सामने रख कर इसे समझा जा सकता है.
पंजाब में जिस तरीके से कांग्रेस ने अपने लिए गड्ढे खोद लिये और आम आदमी पार्टी के लिए रास्ता साफ कर दिया, भला कौन नेता कांग्रेस में टिकना चाहेगा. अगर उसके लिए कहीं कोई रास्ता न बन पा रहा हो. कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीजेपी में चले जाने के बाद मनप्रीत बादल के लिए पाला बदलना आसान हो गया था.
भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को फायदा तो मिला है, लेकिन राहुल गांधी के लिए निजी तौर पर ज्यादा लगता है. यात्रा से राहुल गांधी का आत्मविश्वास बढ़ा है, और उनके प्रति लोगों की धारणा भी बदली है. हो सकता है, दूसरे राज्यों के कांग्रेस नेताओं की राय और हो, लेकिन पंजाब में मनप्रीत बादल को अगर उम्मीदों की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी तो उसकी वजह तो है ही.
भारत जोड़ो यात्रा के जरिये कांग्रेस विपक्ष के नेताओं को भी अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसमें भी वो सबको साथ नहीं ले रही है. अव्वल तो सब साथ भी आना नहीं चाहते, लेकिन साथ न आने वालों को समझाने बुझाने के बजाय वो दूरी बना ले रही है. भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से विपक्षी दलों के नेताओं को भेजी गयी चिट्ठी से ये पूरी तरह साफ हो जाता है.
मल्लिकार्जुन खड़गे ने 23 विपक्षी दलों के नेताओं को समापन समारोह का न्योता दिया था, लेकिन उस सूची में दो नेताओं को जगह नहीं मिली - दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव. अब यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी खम्मम की रैली में पहुंच कर दोनों नेताओं से हाथ मिला चुके हैं.
आखिरकार केसीआर अपने मिशन में काफी हद तक कामयाब लग रहे हैं. केसीआर शुरू से ही ऐसे नेताओं को एकजुट करने की कोशिश में जुटे हुए थे दो बीजेपी के साथ साथ कांग्रेस के भी खिलाफ हों - देखा जाये तो राहुल गांधी ही नहीं बल्कि नीतीश कुमार के लिए भी केसीआर का नया मोर्चा 2024 के चुनाव नतीजों को लेकर पहले से ही निराश करने वाला है.
केसीआर अभी से कांग्रेस का खेल खराब करने लगे
2018 में जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री के रूप में शपथग्रहण के बाद विपक्षी नेताओं की बड़ी जमघट दिखी थी. फिर 2019 में आम चुनाव से पहले कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्रांउड में ममता बनर्जी की रैली में भी विपक्ष के ज्यादातर नेताओं ने ताकत और एकजुटता दिखाने का प्रयास किया था.
बेंगलुरू में तो सोनिया गांधी भी पहुंची थीं, लेकिन कोलकाता में कांग्रेस ने अपने दो नेताओं को प्रतिनिधि बना कर भेज दिया था. एक बार लालू यादव ने पटना में रैली की तो भी कांग्रेस का रवैया करीब करीब वैसा ही रहा. हाल ही में हरियाणा के नेता ओम प्रकाश चौटाला ने भी विपक्ष एक रैली की थी, जिसमें शरद पवार से लेकर नीतीश कुमार तक पहुंचे थे, लेकिन ज्यादातर निगाहें ममता बनर्जी को ही खोजती रहीं.
केसीआर की रैली की बड़ी खासियत ये भी है कि केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन भी पहुंचे थे. पी. विजयन को केरल से बाहर कम ही सक्रियता दिखाते हैं. खम्मम पहुंचने वालों में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और सीपीआई नेता डी. राजा भी शामिल हैं.
अब ये सब चाहे जैसे भी मुमकिन हुआ हो, ये तो मानना ही पड़ेगा कि केसीआर ने कट्टर कांग्रेस विरोधी नेताओं को एक मंच पर ला दिया है - और हाल फिलहाल विपक्षी खेमे में सभी दलों को एकजुट करने के जो भी प्रयास हो रहे हैं, केसीआर की पहल सभी के खिलाफ है. सभी के खिलाफ इसलिए भी क्योंकि ऐसी कोशिशों का सीधा फायदा बीजेपी को ही मिलेगा.
लेकिन ऐसा होने के पीछे कांग्रेस का ही हाथ है. अगर कांग्रेस को परहेज नहीं होती, तो भला अखिलेश यादव को यूपी से तेलंगाना जाने की क्या दरकार थी - लेकिन ऐसा करने के लिए तो राहुल गांधी ने ही अखिलेश यादव को मजबूर भी किया है.
मेन फ्रंट से पहले तीसरा मोर्चा खड़ा हो गया
जब से प्रशांत किशोर ने कह रखा है कि बीजेपी को हराना मुश्किल भी नहीं है, विपक्षी खेमा उत्साह से भरा हुआ है. भारत जोड़ो यात्रा भी तो कांग्रेस नेतृत्व के सामने प्रशांत किशोर के प्रजेंटेशन के बाद ही शुरू हुई है.
लेकिन प्रशांत किशोर ने तभी एक और बात कही थी. वो ये कि कोई तीसरा या चौथा मोर्चा नहीं, सिर्फ एक मोर्चा जो मेन फ्रंट हो वही बीजेपी को शिकस्त दे सकता है - नीतीश कुमार की भी कोशिश वैसी ही लगती है, लेकिन कुछ नेताओं से दूरी बनाकर राहुल गांधी ने पहले ही साफ कर दिया है कि वो सिर्फ कांग्रेस के नेतृत्व में बने गठबंधन में ही यकीन रखते हैं. बाकियों से राहुल गांधी को कोई मतलब नहीं है. भले ही नतीजा कुछ भी हो. या नतीजा कुछ भी न निकले.
थर्ड फ्रंट की एक बड़ी कोशिश समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में भी हुई थी. 2015 में हुई अपने तरह की वो आखिरी कोशिश भी लगती है. कहते तो ये भी हैं कि वो पहल भी प्रशांत किशोर के दिमाग की ही उपज थी - और अब एक बार नये सिरे से नीतीश कुमार उसी चीज को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे हुए हैं.
ये तभी का आइडिया है कि पुराने जनता परिवार को एकजुट किया जाये. जिसमें बिहार से जेडीयू-आरजेडी से शुरू होकर यूपी से समाजवादी पार्टी, झारखंड से JMM होते हुए कर्नाटक से जेडीएस को लेकर ओडिशा तक बीजू जनता दल भी साथ आ जायें - लेकिन ध्यान ये भी रहे कि कांग्रेस को अलग नहीं करना है. वरना, विपक्ष का कोई मतलब नहीं है.
2015 में नीतीश कुमार को महागठबंधन का नेता घोषित करने के बाद ही मुलायम सिंह यादव पलट गये थे. वो तो नीतीश कुमार को हराने तक की मांग करने लगे थे. तब जो कुछ भी हुआ हो, अब अखिलेश यादव उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
अखिलेश यादव ने कई चीजें अपने पिता मुलायम सिंह यादव के रुख के खिलाफ जाकर की थी. मुलायम किसी भी दल से गठबंधन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन अखिलेश यादव ने एक बार कांग्रेस और एक बार मायावती से गठबंधन किया. अब अखिलेश यादव भी कांग्रेस से किसी भी तरह के गठबंधन के पूरी तरह खिलाफ नजर आ रहे हैं. नीतीश कुमार से अखिलेश यादव के अलग लाइन लेने की एक बड़ी वजह ये भी लगती है.
नीतीश कुमार असल में कांग्रेस को भी नहीं छोड़ना चाहते, और कांग्रेस को भी साथ लेकर चलना चाहते हैं. एक बड़ी वजह है कि लालू यादव कांग्रेस के साथ बने रहना चाहते हैं - और शरद पवार सहित विपक्षी दलों के काफी नेता इसी बात के पक्षधर हैं कि कांग्रेस के बगैर विपक्ष के एकजुट होने का कोई मतलब नहीं है.
ऐसे में अखिलेश यादव जहां थर्ड फ्रंट की ओर बढ़ चले हैं, नीतीश कुमार का जोर अब भी मेन फ्रंट पर ही है. मतलब, विपक्ष बिखरे नहीं और एकजुट होकर बीजेपी से लड़े. अखिलेश यादव को जो समस्या नजर आ रही है, वो है कांग्रेस की जिद.
क्षेत्रीय दलों की विचारधारा पर तो कांग्रेस और बीजेपी की राय एक है ही, राहुल गांधी समाजवादी पार्टी का नाम लेकर कह चुके हैं कि उनकी विचारधार केरल में नहीं चल सकती - और ऐसा लगता है ये बात अखिलेश यादव ने दिल पर ले ली है. खम्मम जाकर केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन के साथ मंच शेयर करते हुए अखिलेश यादव अपनी तरफ से मैसेज तो राहुल गांधी को ही दे रहे होंगे.
केजरीवाल का केसीआर के करीब जाना
2019 के आम चुनाव से पहले अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के लिए वैसी ही बेसब्री दिखा रहे थे, जैसी 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों से पहले अखिलेश यादव. अखिलेश यादव तो चुनाव नतीजे देख कर गठबंधन तोड़ लिया, लेकिन आम आदमी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं हो सका. हां, 2013 में कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल के हाथों दिल्ली में सत्ता गंवाने के बावजूद सरकार को बाहर से सपोर्ट भी किया था.
दरअसल, अरविंद केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं कि 2024 में कुछ होना जाना तो है नहीं. और ये भी तय कर रखा है कि कांग्रेस के साथ भी नहीं रहना है - वैसे ये मौका भी तो कांग्रेस ने ही दिया है. अरविंद केजरीवाल ने अपनी तरफ से सीजफायर के संकेत तो दिये ही थे, भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह से दूर रख कर कांग्रेस ने अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार ली है.
अब कांग्रेस के खिलाफ नये विपक्षी खेमे में खड़े होकर अरविंद केजरीवाल ने साफ कर दिया है कि वो वास्तव में 2029 की ही तैयारी कर रहे हैं - और भविष्य में कौन साथ देने वाला है, ये भी आजमाने लगे हैं.
उत्तर प्रदेश में भी 2022 के विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन की कोशिश की थी. आप सांसद संजय सिंह काफी दिनों तक समाजवादी पार्टी के संपर्क में भी बने रहे, लेकिन बात नहीं बनी. केसीआर की मदद से अब यूपी में भी अखिलेश यादव के साथ अरविंद केजरीवाल को हाथ मिलाने का मौका मिल सकता है. और कुछ नहीं तो अखिलेश यादव वे सीटें तो अरविंद केजरीवाल के साथ शेयर कर ही सकते हैं, जिन पर कांग्रेस के खिलाफ वो उम्मीदवार नहीं उतारते - अमेठी और रायबरेली. अरविंद केजरीवाल को ऐसी सीटों से भी चुनाव लड़ने में कोई गुरेज नहीं होगी.
जब पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश की थी, तो भी अरविंद केजरीवाल ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखायी. हालांकि, ममता बनर्जी से मिलने से कभी परहेज नहीं किया.
हाल फिलहाल ऐसा पहली बार देखने को मिला है कि अरविंद केजरीवाल ने विपक्षी दलों के किसी मोर्चे की तैयारी के लिए मंच पर हाजिरी लगायी है. हो सकता है, गुजरात चुनाव के नतीजों ने ऐसा सोचने को मजबूर किया हो. हो सकता है, अरविंद केजरीवाल को अकेले सफर काफी मुश्किल लग रहा हो.
केसीआर की रैली में शामिल होकर अरविंद केजरीवाल ने एक तरीके से दक्षिण भारत का भी रुख कर लिया है - जहां बीजेपी घुसपैठ की कोशिश कर रही है, और कांग्रेस को तो उत्तर से ज्यादा दक्षिण भारत के वोटर से ही उम्मीदें लगती हैं.
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