केसीआर के नाम से मशहूर कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव (K Chandrashekhar Rao) ने बाकायदा दिल्ली में अब नया ठिकाना बना लिया है. ये ठिकाना सरदार पटेल मार्ग पर है, लेकिन अस्थायी है. तेलंगाना से भारत राष्ट्र समिति में पार्टी को तब्दील कर चुके केसीआर वसंद विहार में स्थायी दफ्तर बनवा रहे हैं - और समझा जाता है कि वो मार्च, 2023 तक बन कर तैयार हो जाएगा. यानी, अगले आम चुनाव से करीब साल भर पहले.
केसीआर की कोशिशें तो 2019 से ही जारी हैं, लेकिन अब वो नेताओं की उस जमात में शामिल हो चुके हैं जो 2024 के लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आमने-सामने भिड़ने को बेताब हैं. ताजा गतिविधियों से तो यही लगता है कि केसीआर भी विपक्ष (Opposition nity) के नेतृत्व का सपना वैसे ही संजोये हुए हैं जैसे बाकी क्षेत्रीय नेता.
अव्वल तो विपक्षी दलों के नेतृत्व की दावेदारी कांग्रेस के पास रहती है, लेकिन ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता कुछ समय से ऐसी किसी भी व्यवस्था को नकारने की कोशिश कर रहे हैं. कहने को तो कतार में नीतीश कुमार जैसे नेता भी हैं, और वे न तो कांग्रेस के महत्व को नकारते हैं, न ही खुद के प्रधानमंत्री पद के दावेदार बताते हैं. नीतीश कुमार ने तो बिहार के कांग्रेस विधायकों के माध्यम से आलाकमान के ये संदेश भी विशेष रूप से भिजवाया है. ये बात अलग है कि नीतीश कुमार के बयान को भी उसी पैमाने पर परखने का प्रयास हो रहा है जिस पर उनकी तरफ से तेजस्वी यादव को 2025 में महागठबंधन का नेता बनाने के ऐलान को.
वैसे लोक सभा के शीतकालीन सत्र के शुरुआत वाले दिन अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी दोनों की तरफ से सरप्राइज भी देखने को मिला था - और अब वैसा ही नजारा केसीआर भी अपनी तरफ से दिखा चुके हैं.
हुआ ये कि राज्य सभा में विपक्ष का नेता होने के नाते कांग्रेस...
केसीआर के नाम से मशहूर कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव (K Chandrashekhar Rao) ने बाकायदा दिल्ली में अब नया ठिकाना बना लिया है. ये ठिकाना सरदार पटेल मार्ग पर है, लेकिन अस्थायी है. तेलंगाना से भारत राष्ट्र समिति में पार्टी को तब्दील कर चुके केसीआर वसंद विहार में स्थायी दफ्तर बनवा रहे हैं - और समझा जाता है कि वो मार्च, 2023 तक बन कर तैयार हो जाएगा. यानी, अगले आम चुनाव से करीब साल भर पहले.
केसीआर की कोशिशें तो 2019 से ही जारी हैं, लेकिन अब वो नेताओं की उस जमात में शामिल हो चुके हैं जो 2024 के लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आमने-सामने भिड़ने को बेताब हैं. ताजा गतिविधियों से तो यही लगता है कि केसीआर भी विपक्ष (Opposition nity) के नेतृत्व का सपना वैसे ही संजोये हुए हैं जैसे बाकी क्षेत्रीय नेता.
अव्वल तो विपक्षी दलों के नेतृत्व की दावेदारी कांग्रेस के पास रहती है, लेकिन ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता कुछ समय से ऐसी किसी भी व्यवस्था को नकारने की कोशिश कर रहे हैं. कहने को तो कतार में नीतीश कुमार जैसे नेता भी हैं, और वे न तो कांग्रेस के महत्व को नकारते हैं, न ही खुद के प्रधानमंत्री पद के दावेदार बताते हैं. नीतीश कुमार ने तो बिहार के कांग्रेस विधायकों के माध्यम से आलाकमान के ये संदेश भी विशेष रूप से भिजवाया है. ये बात अलग है कि नीतीश कुमार के बयान को भी उसी पैमाने पर परखने का प्रयास हो रहा है जिस पर उनकी तरफ से तेजस्वी यादव को 2025 में महागठबंधन का नेता बनाने के ऐलान को.
वैसे लोक सभा के शीतकालीन सत्र के शुरुआत वाले दिन अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी दोनों की तरफ से सरप्राइज भी देखने को मिला था - और अब वैसा ही नजारा केसीआर भी अपनी तरफ से दिखा चुके हैं.
हुआ ये कि राज्य सभा में विपक्ष का नेता होने के नाते कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलायी थी और तभी आम आदमी पार्टी के संजय सिंह और तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंदोपाध्याय जा धमके. जाहिर है, मल्लिकार्जुन खड़गे को खुशी के साथ साथ आश्चर्य का भी ठिकाना नहीं रहा होगा.
और करीब करीब उसी अंदाज में 14 दिसंबर की विपक्षी दलों की मीटिंग में बीआरएस के. केशव राव ने भी आखिरी वक्त में धावा बोल दिया. कोई रुखसत तो नहीं नहीं हुआ था, लेकिन सारे नेता विदा लेने के मूड में नजर आ रहे थे - फर्क ये रहा कि जो असर टीएमसी और आप नेताओं की मौजूदगी को लेकर महसूस किया गया, बीआरएस नेता को लेकर उलटा रिएक्शन होने लगा.
ऐसा होना भी स्वाभाविक था क्योंकि ये हैदराबाद में कांग्रेस के एक दफ्तर पर पुलिस के छापे के ठीक एक दिन बाद का मामला है - और तभी से कांग्रेस नेता केसीआर और उनकी पार्टी के खिलाफ हमलावर हो गये हैं.
असल में तेलंगाना में कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार सुनील कानुगोलू ने मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और उनकी पार्टी को लेकर टिप्पणी कर दी थी, जिसके बाद हैदराबाद पुलिस की साइबर क्राइम विंग ने उनके दफ्तर पर छापेमारी की. कंप्यूटर और कुछ दस्तावेज जब्त करने के साथ ही पुलिस ने तीन लोगों को आपत्तिजनक कमेंट करने के लिए गिरफ्तार भी कर लिया.
कांग्रेस के मीडिया और प्रचार प्रमुख पवन खेड़ा कहने लगे हैं, 'मोदी जी और केसीआर में कोई फर्क नहीं है.' केसीआर के पार्टी का नाम बदलने पर कांग्रेस का कहना है कि प्लास्टिक सर्जरी से कोई फायदा नहीं होगा, केसीआर का डीएनए सबको मालूम है.
कांग्रेस के खिलाफ हैदराबाद में पुलिस एक्शन के बाद दिल्ली में केसीआर का विपक्षी दलों की मीटिंग में अपना प्रतिनिधि भेजना थोड़ा अजीब भी लग रहा है. वैसे भी, पहले भी कभी केसीआर कांग्रेस के पक्ष में नहीं देखे गये हैं. जितना विरोध उनका बीजेपी (BJP) से रहा है, कांग्रेस से भी करीब करीब वैसा ही लगता है.
केसीआर बोल, 'अबकी बार किसान सरकार'
केसीआर की गाड़ी से ही समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का बीआरएस दफ्तर के उद्घाटन के मौके पर पहुंचना भी एक अलग पॉलिटिकल मैसेज लिये हुए लगता है. जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी का वहां पहुंचना तो सामान्य तौर पर ही लिया जाना चाहिये - क्योंकि 2023 का कर्नाटक विधानसभा चुनाव दोनों मिल कर लड़ने जा रहे हैं.
लेकिन केसीआर के पार्टी ऑफिस के उद्धाटन के मौके पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गैरमौजूदगी सवाल खड़े कर रही थी. अगर मई, 2022 में केसीआर दिल्ली दौरे के बाद पंजाब में अरविंद केजरीवाल के साथ मंच शेयर नहीं किये होते तो ऐसी हैरानी नहीं होती.
चंडीगढ़ में 22 मई, 2022 को किसानों के नाम पर एक समारोह हुआ था. समरोह के लिए केसीआर भी विशेष रूप से पहुंचे थे. और फिर मंच पर केसीआर के साथ अरविंद केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान भी पहुंचे.
मंच से 24 किसान परिवारों को तीन-तीन लाख रुपये के चेक दिये दिये गये. ये उन किसान परिवारों के सदस्य थे जिनकी दिल्ली में चले लंबे किसान आंदोलन के दौरान मौत हो गयी थी - लेकिन हैरानी तो तब हुई जब चेक बाउंस होने की खबरें आने लगीं. बताते हैं कि किसानों के कई परिवारों ने दावा किया कि मुआवजे के रूप में जो चेक मिले थे वे बाउंस हो गये हैं. हालांकि, किसानों की इस शिकायत पर पंजाब सरकार के कृषि मंत्री ने जांच कराने का भरोसा भी दिलाया था.
जिस गर्मजोशी के साथ तब केसीआर और केजरीवाल को मिलते जुलते देखा गया था, बीआरएस दफ्तर के उद्घाटन पर सब कुछ होते हुए भी कुछ न कुछ अधूरा लग रहा था. हां, किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी की मौजूदगी एक नया मैसेज जरूर दे रही थी - और केसीआर ने जो नया नारा दिया है, उससे चीजें और भी साफ हो जाती हैं.
2014 में बीजेपी का एक स्लोगन था, अबकी बार मोदी सरकार. केसीआर ने भी उसी की कॉपी करते हुए अपनी तरफ से नारा दिया है - 'अबकी बार किसान सरकार'
तो क्या ये समझा जाना चाहिये कि मोदी के खिलाफ 2024 के मिशन में केसीआर ने कोई किसान ऐंगल खोज लिया है? लेकिन 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले तीनों कृषि कानूनों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वापल ले लेने के बाद ये कोई मुद्दा रह गया है क्या? और यूपी चुनाव में बीजेपी की सत्ता में वापसी हो जाने के बाद तो इसका कोई मतलब भी नहीं रह जाता. अब बीजेपी ने चुनाव जीतने के लिए क्या रणनीति बनायी, मायावती की मदद से चुनाव जीती या असदुद्दीन ओवैसी के - ऐसी बातें तो अब बिलकुल भी महत्व नहीं रखतीं.
किसानों के वोट पर नजर: उत्तर भारत में किसानों के बीच पैठ बढ़ाने के मकसद से केसीआर ने गुरनाम सिंह चढूनी को साथ ले लिया है. किसान आंदोलन से लेकर पंजाब विधानसभा चुनाव तक गुरनाम सिंह चढूनी अलग अलग वजहों से काफी चर्चा में रहे.
गुरनाम सिंह चढूनी ने दिसंबर, 2021 में अपनी राजनीतिक पार्टी भी बनायी थी - संयुक्त संघर्ष पार्टी. कुरुक्षेत्र के रहने वाले 62 साल के गुरनाम सिंह चढूनी की पत्नी बलविंदर कौर भी राजनीति में काफी सक्रिय रही हैं. कुरुक्षेत्र से ही बलविंदर कौर 2014 में लोक सभा का चुनाव भी लड़ चुकी हैं. और खास बात ये रही कि उनको 79 हजार वोट भी मिले थे.
गुरनाम सिंह चढूनी हरियाणा में भारतीय किसान संघ के प्रमुख भी हैं - और अब मालूम चला है कि केसीआर ने गुरनाम सिंह चढूनी को अपनी पार्टी बीआरएस के किसान मोर्चा का अध्यक्ष भी बना दिया है.
जैसे ममता-केजरीवाल वैसे केसीआर
केसीआर 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इसी साल हुए विधानसभा चुनावों के दौरान ही केसीआर ने मुंबई पहुंच कर एनसीपी नेता शरद पवार और तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से भी मुलाकात की थी - और मीडिया के सामने आकर कहा था कि जल्दी ही विपक्ष की तरफ से 2024 के लिए एजेंडा सार्वजनिक तौर पर घोषित कर दिया जाएगा.
और उसी क्रम में वो ममता बनर्जी और केजरीवाल के साथ साथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन से भी मिल चुके हैं. बताते हैं कि पार्टी दफ्तर के उद्घाटन के मौके पर केसीआर की तरफ से बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव को भी बुलाया गया था, लेकिन वो नहीं पहुंच सके. वैसे भी बिहार में जहरीली शराब से हुई मौतों के बाद बिहार में बवाल मचा हुआ है.
लेकिन केसीआर की ताजा सक्रियता भी काफी हद तक वैसी ही लग रही है, जैसी अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी की. अभी अभी गुजरात चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने जो किया है, करीब करीब वैसा ही रवैया ममता बनर्जी ने भी दिखाया है. जैसे गुजरात में अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को काट कर बीजेपी की जीत का रिकॉर्ड बनवा दिया है, ममता बनर्जी भी त्रिपुरा में कांग्रेस के साथ वैसा ही व्यवहार करके मेघालय के दौरे पर निकल चुकी हैं.
त्रिपुरा के कुछ कांग्रेस नेताओं टीएमसी में लाने के बाद एनसीपी से माजिद मेमन भी ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन कराया है, लेकिन मेघालय में उनके साथ बहुत बुरा हुआ है. मेघालय में जिन तीन विधायकों ने बीजेपी का भगवा धारण कर लिया है, एक विधायक उनमें टीएमसी के भी हैं - एचएम सांगपलियांग. एक ही वाकये ने ममता बनर्जी के मेघालय दौरे को फीका कर दिया है.
असल में अभी ये सब सभी राजनीतिक दलों की चुनावी तैयारियों का ही हिस्सा है. अगले साल फरवरी में ही त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.
मेघालय दौरे से पहले ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ने त्रिपुरा कांग्रेस में सेंध लगा दी थी. 7 दिसंबर को दिल्ली में ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी की मौजूदगी में कांग्रेस नेता पीयूष कांति विश्वास ने तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन कर लिया. पीयूष कांति से कुछ ही दिन पहले उनके बेटे पूजन विश्वास ने भी टीएमसी ज्वाइन किया था.
त्रिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके पीयूष कांति विश्वास को ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस की राज्य इकाई का अध्यक्ष बना दिया है. और उनके बेटे पूजन विश्वास त्रिपुरा में टीएमसी के महासचिव बन गये हैं.
मालूम नहीं ये फैसला अकेले ममता बनर्जी का है या भतीजे अभिषेक बनर्जी का या दोनों का सहमति से लिया गया निर्णय है, लेकिन ये तो चुनावों से पहले ही मुसीबत मोल लेने जैसा है - अब तो बीजेपी नेता उछल उछल कर ममता बनर्जी पर परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए हमला बोलेंगे. हो सकता है, बीजेपी नेता भूल भी जाते लेकिन ऐसा करके ममता बनर्जी ने बीजेपी को ये कहने का मौका दे दिया है कि बुआ-भतीजे की पार्टी में बाप-बेटे ही पदाधिकारी होते हैं.
देखें तो केसीआर भी ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की ही लाइन पर चल रहे हैं. वैसे तो केसीआर को 2023 के आखिर में ही तेलंगाना विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार भी बचानी है, लेकिन जिस तरह से वो विपक्ष में अलग रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं - फायदा तो बीजेपी को ही होने वाला है.
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