'अखिलेश आ रहे हैं' के चुनावी नारे का असर 10 मार्च को आए यूपी चुनाव नतीजे में भले ही न दिखा हो. लेकिन, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दिल्ली से लखनऊ आने का फैसला कर लिया है. अखिलेश यादव अब सांसद पद छोड़कर विधायक बनने जा रहे है. और, उन्होंने ये फैसला लेने के लिए समाजवादी पार्टी के कई धुरंधर नेताओं से आजमगढ़ में मुलाकात भी की थी. उनके साथ ही समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खान ने भी लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर विधायक बनना चुना है. लोकसभा में केवल 5 सांसद होने के बावजूद अखिलेश यादव ने अपने साथ आजम खान को इस्तीफा देने के लिए तैयार किया है. क्योंकि, आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट समाजवादी पार्टी का गढ़ हैं. और, अखिलेश यादव को भरोसा है कि इन दोनों सीटों पर होने वाले उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को ही जीत मिलेगी. तो, आंकड़ों में अखिलेश यादव कमजोर नजर नही आएंगे. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर अखिलेश यादव ने विधायक बनना क्यों चुना? तो, आइए जानते हैं इसकी 3 वजहें...
'चाचा' शिवपाल पर लगाम लगाना जरूरी
यूपी चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ भी अपने तमाम गिले-शिकवे दूर कर गठबंधन किया था. चाचा शिवपाल सिंह यादव ने भी अखिलेश यादव को जीत का आशीर्वाद दिया था. लेकिन, ये फलीभूत नहीं हो सका. वहीं, यूपी चुनाव में अखिलेश ने शिवपाल को केवल एक सीट दी थी. जिसे लेकर चाचा का दर्द भी छलक गया था. इतना ही नहीं, यूपी चुनाव नतीजे के बाद शिवपाल सिंह यादव ने अखिलेश यादव की 'ईवीएम थ्योरी' पर सवाल खड़े करते हुए इसे समाजवादी पार्टी के संगठन की कमी और जनता का जनादेश बता दिया...
'अखिलेश आ रहे हैं' के चुनावी नारे का असर 10 मार्च को आए यूपी चुनाव नतीजे में भले ही न दिखा हो. लेकिन, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दिल्ली से लखनऊ आने का फैसला कर लिया है. अखिलेश यादव अब सांसद पद छोड़कर विधायक बनने जा रहे है. और, उन्होंने ये फैसला लेने के लिए समाजवादी पार्टी के कई धुरंधर नेताओं से आजमगढ़ में मुलाकात भी की थी. उनके साथ ही समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खान ने भी लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर विधायक बनना चुना है. लोकसभा में केवल 5 सांसद होने के बावजूद अखिलेश यादव ने अपने साथ आजम खान को इस्तीफा देने के लिए तैयार किया है. क्योंकि, आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट समाजवादी पार्टी का गढ़ हैं. और, अखिलेश यादव को भरोसा है कि इन दोनों सीटों पर होने वाले उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को ही जीत मिलेगी. तो, आंकड़ों में अखिलेश यादव कमजोर नजर नही आएंगे. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर अखिलेश यादव ने विधायक बनना क्यों चुना? तो, आइए जानते हैं इसकी 3 वजहें...
'चाचा' शिवपाल पर लगाम लगाना जरूरी
यूपी चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ भी अपने तमाम गिले-शिकवे दूर कर गठबंधन किया था. चाचा शिवपाल सिंह यादव ने भी अखिलेश यादव को जीत का आशीर्वाद दिया था. लेकिन, ये फलीभूत नहीं हो सका. वहीं, यूपी चुनाव में अखिलेश ने शिवपाल को केवल एक सीट दी थी. जिसे लेकर चाचा का दर्द भी छलक गया था. इतना ही नहीं, यूपी चुनाव नतीजे के बाद शिवपाल सिंह यादव ने अखिलेश यादव की 'ईवीएम थ्योरी' पर सवाल खड़े करते हुए इसे समाजवादी पार्टी के संगठन की कमी और जनता का जनादेश बता दिया था. शिवपाल ने कहा था कि 'सपा का संगठन इस चुनाव में काम नहीं कर पाया. अगर 5 साल पहले बूथ कमेटी बना दी गई होती और समय से टिकट बांट दिए होते, तो बीजेपी 100 पर और हम 300 पर होते. प्रदेश में हुई सपा गठबंधन की हार जनता का जनादेश है, जिसका हम स्वागत करते हैं.' इस बयान को सीधे तौर पर अखिलेश यादव के नेतृत्व को चुनौती के तौर पर देखा जा सकता है.
समाजवादी पार्टी से बाहर होने के बावजूद सपा संगठन में शिवपाल सिंह यादव के करीबियों की संख्या प्रचुर मात्रा में है. भले ही शिवपाल यादव ने यूपी चुनाव से पहले अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी का नया 'नेताजी' मान लिया था. लेकिन, मुलायम सिंह यादव की विरासत को संभालने के लिए यादव कुनबे में हुआ संघर्ष किसी से छिपा नहीं है. और, यूपी चुनाव नतीजे आने के बाद इस बात की संभावना बढ़ गई है कि शिवपाल सिंह यादव एक बार फिर से समाजवादी पार्टी की इस विरासत को कब्जाने के लिए आगे आ सकते हैं. क्योंकि, विधायक बनने के बाद अखिलेश यादव का नेता प्रतिपक्ष बनना तय माना जा रहा है. और, इसके चलते वरिष्ठता के नाते शिवपाल यादव में असंतोष उपजना बड़ी बात नहीं है. हालांकि, कयास लगाए जा रहे हैं कि शिवपाल को नेता प्रतिपक्ष न बनाए जाने पर समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का पद दिया जा सकता है. लेकिन, अखिलेश यादव के इस कदम से समाजवादी पार्टी के संगठन पर उनकी पकड़ कमजोर होगी. तो, फिलहाल ये दोनों ही विकल्प शिवपाल सिंह यादव के लिए बंद ही नजर आ रहे हैं.
शिवपाल सिंह यादव ने अपने राजनीतिक दल प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का सपा में विलय नहीं किया था. बल्कि, वह गठबंधन में सहयोगी दल के तौर पर शामिल हुए थे. अगर शिवपाल सिंह यादव को समाजवादी पार्टी की ओर से 'उचित सम्मान' नहीं मिलता है. तो, उनका बगावत करना लाजिमी है. लेकिन, ये बगावत 2024 के आम चुनाव से ठीक पहले ही होगी. क्योंकि, तब तक शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी में अपने करीबियों की संख्या को बढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे. आसान शब्दों में कहा जाए, तो समाजवादी पार्टी के यादव कुनबे में फिर से संघर्ष छिड़ने की संभावना बनने लगी है. क्योंकि, मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव पहले ही भाजपा में शामिल हो चुकी हैं. और, अगर चाचा शिवपाल को अखिलेश यादव उचित सम्मान दे पाने में नाकाम रहते हैं. तो, वह भी 2024 से पहले फैसला लेने के लिए स्वतंत्र माने जाएंगे. आसान शब्दों में कहा जाए, तो अखिलेश विधायक बन शिवपाल की ओर से किए जा सकने वाले संभावित नुकसान को कम करने की कोशिश करेंगे.
गठबंधन के सहयोगियों को एकजुट रखने की चुनौती
समाजवादी पार्टी के गठबंधन को मजबूत करने के लिए अखिलेश यादव ने छोटे दलों को साथ लाने का दांव खेला था. यूपी चुनाव नतीजे में इसका असर दिखा और समाजवादी पार्टी की सीटों से लेकर वोट शेयर में अच्छा-खासा उछाल दर्ज किया गया. लेकिन, अखिलेश यादव को आरएलडी नेता जयंत चौधरी के साथ हुए जिस गठबंधन पर सबसे अधिक भरोसा था. वही, सबसे कमजोर निकला. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और आरएलडी बहुत बड़ा करिश्मा नहीं दिखा पाईं. हालांकि, पूर्वांचल की सीटों पर सुभासपा नेता ओमप्रकाश राजभर, महान दल के केशव देव मौर्य, जनवादी सोशलिस्ट पार्टी के संजय चौहान जैसे नेताओं के सहारे समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा. लेकिन, अखिलेश यादव के सामने अपने सहयोगी दलों को साथ बनाए रखने की चुनौती होगी. क्योंकि, अखिलेश यादव फिलहाल 5 सालों तक यूपी की सत्ता से बाहर ही रहेंगे. और, 2024 के लोकसभा चुनाव में सूबे की 80 सीटों में से समाजवादी पार्टी के सहयोगी दलों की भी नजर अपने हिस्से पर होगी.
विधानसभा सीटों की संख्या के अनुसार समाजवादी पार्टी को तकरीबन 23 लोकसभा सीटों पर बढ़त मिलती नजर आती है. जबकि, अभी समाजवादी पार्टी के खाते में केवल 5 लोकसभा सीटें ही हैं. बहुत हद तक संभावना है कि अगर समाजवादी पार्टी की ओर से इन सहयोगी दलों को उनकी मांग के मुताबिक लोकसभा सीटें नही दी जाती हैं. तो, अखिलेश यादव के लिए अपने विधानसभा चुनाव में किए गए प्रदर्शन को लोकसभा चुनाव में दोहराना नामुमकिन होगा. वहीं, इसके चलते अखिलेश यादव के लिए 2027 के विधानसभा चुनाव के समीकरण भी बिगड़ जाएंगे. क्योंकि, यूपी चुनाव 2022 को लेकर समाजवादी पार्टी के सियासी समीकरण का झुकाव जाति केंद्रित ही रहा था. अगर समाजवादी पार्टी 2024 के आम चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो अखिलेश यादव को इन गठबंधन सहयोगियों को साथ बनाए रखना होगा. आसान शब्दों में कहा जाए, तो अखिलेश यादव पूरी तरह से उत्तर प्रदेश को समय देकर इन जटिल समीकरणों को सुलझाने की कोशिश करेंगे.
वोट बैंक से लेकर संगठन को बचाए रखने की कवायद
यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में भले ही समाजवादी पार्टी की सीटों की संख्या में दोगुने से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई हो. लेकिन, बीते कुछ सालों में लोकसभा, राज्यसभा और विधान परिषद में समाजवादी पार्टी लगातार सिकुड़ती जा रही है. अगर समाजवादी पार्टी 2024 के आम चुनाव में कोई करिश्मा नहीं कर पाती है. तो, उसका वोट बैंक भी बसपा सुप्रीमो मायावती के वोट बैंक की तरह छिटकने की संभावना बढ़ जाएगी. हो सकता है कि मुस्लिम वोट बैंक भाजपा के खिलाफ समाजवादी पार्टी के पक्ष में बना रहे. लेकिन, काडर वोट बैंक नए विकल्प तलाशने की कोशिश कर सकता है. अखिलेश यादव यूपी में अपनी सक्रियता के जरिये समाजवादी पार्टी को मजबूत विकल्प के तौर पर पेश कर वोट बैंक से लेकर संगठन को बचाए रखने की कोशिश करेंगे. अखिलेश जानते हैं कि समाजवादी पार्टी का राजनीतिक प्रभाव सिर्फ यूपी में ही है. तो, विधायक बन कर उनका प्रयास यही होगा कि सूबे में समाजवादी पार्टी को कमजोर न पड़ने दिया जाए.
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