कांग्रेस पार्टी को इस बात का एहसास भी है कि एचडी कुमारस्वामी के एक बयान कि "मैं कांग्रेस की दया पर हूं." ने 2019 में उनकी छवि और संभावनाओं को कितना नुकसान पहुंचाया है? अगर ऐसा नहीं है, तो उन्हें जागने और कोडागु कॉफी को पीकर तरोताजा होने की जरुरत है.
वो भी जितनी जल्दी हो सके.
कुमारस्वामी और उनके डिप्टी जी परमेश्वर के शपथ ग्रहण को छह दिन हो चुके हैं. इस अवसर पर बैंगलोर में मौजूद विपक्षे बड़े नेताओं ने कांग्रेस और जेडीएस के बीच के असहज संबंधों को ढंकने का काम किया. कर्नाटक चुनाव में दोनों की कड़ी लड़ाई और जेडीएस के अधिकतर नेता जो कांग्रेस में शामिल हो गए थे वो इस असहजता के कारण हैं.
शपथग्रहण के समय का तामझाम अब खत्म हो चुका है और ये भी दिखाया जा चुका है कि 2018 में बैंगलोर से भारत में 2019 के आम चुनावों की तैयारी का बिगुल फूंका जा चुका है. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस के बीच की असली राजनीति शुरु हो चुकी है. दोनों ही पार्टियों के बीच मलाईदार विभागों के लिए खींचतान शुरु हो चुकी है. वित्त, गृह, पीडब्ल्यूडी, ऊर्जा और सिंचाई मंत्रालयों पर सबकी निगाह टिकी है. कांग्रेस अपने लिए ये पांचों विभाग चाहती है जिससे कुमारस्वामी नाराज हो गए हैं. उन्होंने ये बताने में जरा भी देर नहीं लगाई कि स्पीकर का पद पहले ही कांग्रेस के खाते में चला गया है.
जेडीएस इस बात पर अड़ी है कि वित्त मंत्रालय मुख्यमंत्री के ही पास रहे. इसके पीछे एक कारण है. जेडीएस ने हमेशा ही अपने को किसानों की पार्टी के रूप में पेश किया है. और अपनी ब्रांडिंग भी इसी रुप में की है. ऐसे में वो किसानों के लिए ऋण से छूट की घोषणा करना चाहती है और यह सुनिश्चित करना चाहती है कि इसके लिए पैसों को वो...
कांग्रेस पार्टी को इस बात का एहसास भी है कि एचडी कुमारस्वामी के एक बयान कि "मैं कांग्रेस की दया पर हूं." ने 2019 में उनकी छवि और संभावनाओं को कितना नुकसान पहुंचाया है? अगर ऐसा नहीं है, तो उन्हें जागने और कोडागु कॉफी को पीकर तरोताजा होने की जरुरत है.
वो भी जितनी जल्दी हो सके.
कुमारस्वामी और उनके डिप्टी जी परमेश्वर के शपथ ग्रहण को छह दिन हो चुके हैं. इस अवसर पर बैंगलोर में मौजूद विपक्षे बड़े नेताओं ने कांग्रेस और जेडीएस के बीच के असहज संबंधों को ढंकने का काम किया. कर्नाटक चुनाव में दोनों की कड़ी लड़ाई और जेडीएस के अधिकतर नेता जो कांग्रेस में शामिल हो गए थे वो इस असहजता के कारण हैं.
शपथग्रहण के समय का तामझाम अब खत्म हो चुका है और ये भी दिखाया जा चुका है कि 2018 में बैंगलोर से भारत में 2019 के आम चुनावों की तैयारी का बिगुल फूंका जा चुका है. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस के बीच की असली राजनीति शुरु हो चुकी है. दोनों ही पार्टियों के बीच मलाईदार विभागों के लिए खींचतान शुरु हो चुकी है. वित्त, गृह, पीडब्ल्यूडी, ऊर्जा और सिंचाई मंत्रालयों पर सबकी निगाह टिकी है. कांग्रेस अपने लिए ये पांचों विभाग चाहती है जिससे कुमारस्वामी नाराज हो गए हैं. उन्होंने ये बताने में जरा भी देर नहीं लगाई कि स्पीकर का पद पहले ही कांग्रेस के खाते में चला गया है.
जेडीएस इस बात पर अड़ी है कि वित्त मंत्रालय मुख्यमंत्री के ही पास रहे. इसके पीछे एक कारण है. जेडीएस ने हमेशा ही अपने को किसानों की पार्टी के रूप में पेश किया है. और अपनी ब्रांडिंग भी इसी रुप में की है. ऐसे में वो किसानों के लिए ऋण से छूट की घोषणा करना चाहती है और यह सुनिश्चित करना चाहती है कि इसके लिए पैसों को वो मैनेज करे. और राज्य सरकार के वित्त पर कब्जा करके वो ये भी सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके इस घोषणा का श्रेय कांग्रेस न ले जाए.
कुमारस्वामी ने सोचा होगा कि सिद्धारम्मैया के कैबिनेट के 16 मंत्रियों के हार जाने के बाद बहुत ज्यादा ताकतवर लोग दावेदारी के लिए नहीं होंगे. लेकिन उन्होंने कांग्रेस को हल्के में ले लिया. जिस तरीके से समझौते के लिए कांग्रेस ने कुमारस्वामी को लंबा इंतजार कराया उससे साफ जाहिर था कि वो बड़े भाई की भूमिका निभाने वाली है. पहले कर्नाटक कांग्रेस के नेता ने इंतजार कराया, उसके बाद दिल्ली में कांग्रेस नेताओं के साथ मीटिंग के लिए इंतजार करना पड़ा और फिर अंतत: कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अमेरिका से वापस लौटने का इंतजार करना पड़ा. क्योंकि गठबंधन पर मुहर राहुल गांधी को ही लगानी थी.
विडम्बना ये है कि चुनाव अभियान के दौरान सिद्धारम्मैया ने वोट मांगने के लिए भाजपा पर नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के रुप में "उत्तर भारतीय लोगों का आयात" करने के लिए कटाक्ष किया था. वही कांग्रेस, कर्नाटक में क्षेत्रीय पार्टी को हर कदम पर नई दिल्ली की तरफ देखने के लिए मजबूर कर रही है. आखिर राहुल गांधी ये तय क्यों करें कि कर्नाटक का पशुपालन या उद्योग मंत्री कौन होगा? कन्नडिगा, पहचान और गर्व के बारे में बोली गई अपनी सभी बातों के बाद कांग्रेस इस पर कायम रहने में नाकाम रही है.
कांग्रेस को ये समझना चाहिए कि यहां तो विधानसभा में अपनी 78 सीटों के बदौलत वो जेडीएस को दबा देंगे लेकिन इससे अन्य राज्यों में पार्टी के साथ उनके संभावित गठबंधन को गहरा धक्का लगेगा. कर्नाटक के संदर्भ में कांग्रेस को यह भी समझने की जरूरत है कि जनता ने स्पष्ट रुप से अपना फैसला कांग्रेस के विरोध में दिया था. हालांकि जनादेश न तो भाजपा या जेडीएस के भी पक्ष में था. इसका मतलब ये था कि कर्नाटक के लोगों ने तीनों पक्षों में से दो को एक साथ आने और एक सभ्य सरकार देने की अपेक्षा की थी. इसके बजाए कर्नाटक ये देख रहा है कि इसका खंडित जनादेश एक खंडित शासन के रुप में सामने आ रहा है.
पीसीसी चीफ परमेश्वर ने पहले ही कुमारस्वामी को पांच साल तक के लिए समर्थन नहीं देने की बात कहकर पार्टी का काफी नुकसान कर दिया है. उनके इस बयान से जेडीएस को संदेश गया है कि मुख्यमंत्री को अपने पिता एचडी देवेगौड़ा की तरह ही समय से पहले और कभी भी गद्दी से उतारा जा सकता है. कांग्रेस के नेताओं को ये एहसास नहीं है कि विधानसौदा में सत्ता के लिए उनकी खींचतान, अंतत: 2019 के लिए राज्य में भाजपा की स्थिति को ही मजबूत करेगी.
जेडीएस के पास खोने के लिए बहुत ही कम था. सच्चाई ये है कि कुमारस्वामी एक मंझे हुए और चालाक नेता हैं. वो जानबूझकर शांत बैठे हैं. उन्होंने कहा, "मुझे कांग्रेस नेताओं से अनुमति लेनी होगी. उनकी अनुमति के बिना, मैं कुछ भी नहीं कर सकता. उन्होंने मुझे समर्थन दिया है."
कोई भी इस गठबंधन की सरकार को एक साल से ज्यादा का समय नहीं दे रहा है. लेकिन इससे ज्यादा जरुरी ये है कि अगले 12 महीनों में ये क्या करते हैं. अगर इस दौरान अधिकांश समय गठबंधन के लिए बाधाएं पैदा करने की कोशिश में बीता दिया गया तो फिर 2019 का चुनाव राहुल गांधी को भूल जाना चाहिए.
कर्नाटक, कांग्रेस को या तो बना सकती या फिर तोड़ सकती है. कांग्रेस के पास ये दिखाने का सबसे अच्छा मौका है कि वो एक अच्छी गठबंधन की सहयोगी हो सकता है, न कि वो एक ऐसी पार्टी है जो अभी भी यही सोचती है कि शासन करने पर सिर्फ उसका ही हक है.
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