बीते दिनों यूपी के लखीमपुर खीरी में जो कुछ भी हुआ वह विभत्स है. और किसी भी कारणवश उसका बचाव नहीं किया जा सकता. लेकिन राहुल-प्रियंका के वहां पहुंचने से पहले और बाद में भी भूपेश बघेल और अन्य मंत्रियों का अपना कामकाज छोड़कर वहां जमे रहना कदापि उचित नहीं लगता. एक राज्य में बड़ी घटना घटी जो निंदनीय है तो क्या आप अपना कार्यभार छोड़कर पार्टी के मुखिया के साथ बैठने की होड़ में शामिल हो जाएंगे? राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव का प्रदर्शन करना समझ आता है क्योंकि अपने दल को मज़बूत करना, उनकी ब्राण्डिंग करना उनके काम का हिस्सा है, कार्यकर्ताओं का उनके समर्थन में एकत्रित होना वाज़िब है लेकिन मुख्यमंत्री का अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में आसन जमा लेना शीर्ष की ख़ुशामद के लिए उठाये गये कदम के अतिरिक्त कुछ नहीं लगता.
छत्तीसगढ़ में बघेल और टी एस सहदेव में ठनी है. ऐसा कहा जा रहा है कि राज्य में ढाई-ढाई वर्ष के सरकार की बात हुई थी, ऐसे में बघेल अपनी पैठ मज़बूत करने में लगे हैं. लेकिन क्या कांग्रेस को याद दिलाना होगा कि राजस्थान व छत्तीसगढ़ में कैसे हालात हैं? राहुल वहां की सुध न भी लें तो क्या मुख्यमंत्री को भी नहीं लेना चाहिए?
क्या कोई भी राज्य ऐसा मुख्यमंत्री डिज़र्व करता है जो अपनी ज़िम्मेदारियों को वरीयता न देकर दूसरे राज्य की अधिक चिंता करे, आलाकमान का पिछलग्गू बना रहे? छत्तीसगढ़ में आदिवासियों, किसानों, महिलाओं के साथ आये दिन क्या हो रहा है इसपर चिंतन करने का जिम्मा बघेल पर है या सहदेव पर?
राजस्थान के हालात पर कौन ग़ौर करेगा? वहां की ख़बरें कुछ भी नहीं? एक पीड़ा को दूसरी पीड़ा से श्रेयस्कर कैसे कहा जा सकता...
बीते दिनों यूपी के लखीमपुर खीरी में जो कुछ भी हुआ वह विभत्स है. और किसी भी कारणवश उसका बचाव नहीं किया जा सकता. लेकिन राहुल-प्रियंका के वहां पहुंचने से पहले और बाद में भी भूपेश बघेल और अन्य मंत्रियों का अपना कामकाज छोड़कर वहां जमे रहना कदापि उचित नहीं लगता. एक राज्य में बड़ी घटना घटी जो निंदनीय है तो क्या आप अपना कार्यभार छोड़कर पार्टी के मुखिया के साथ बैठने की होड़ में शामिल हो जाएंगे? राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव का प्रदर्शन करना समझ आता है क्योंकि अपने दल को मज़बूत करना, उनकी ब्राण्डिंग करना उनके काम का हिस्सा है, कार्यकर्ताओं का उनके समर्थन में एकत्रित होना वाज़िब है लेकिन मुख्यमंत्री का अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में आसन जमा लेना शीर्ष की ख़ुशामद के लिए उठाये गये कदम के अतिरिक्त कुछ नहीं लगता.
छत्तीसगढ़ में बघेल और टी एस सहदेव में ठनी है. ऐसा कहा जा रहा है कि राज्य में ढाई-ढाई वर्ष के सरकार की बात हुई थी, ऐसे में बघेल अपनी पैठ मज़बूत करने में लगे हैं. लेकिन क्या कांग्रेस को याद दिलाना होगा कि राजस्थान व छत्तीसगढ़ में कैसे हालात हैं? राहुल वहां की सुध न भी लें तो क्या मुख्यमंत्री को भी नहीं लेना चाहिए?
क्या कोई भी राज्य ऐसा मुख्यमंत्री डिज़र्व करता है जो अपनी ज़िम्मेदारियों को वरीयता न देकर दूसरे राज्य की अधिक चिंता करे, आलाकमान का पिछलग्गू बना रहे? छत्तीसगढ़ में आदिवासियों, किसानों, महिलाओं के साथ आये दिन क्या हो रहा है इसपर चिंतन करने का जिम्मा बघेल पर है या सहदेव पर?
राजस्थान के हालात पर कौन ग़ौर करेगा? वहां की ख़बरें कुछ भी नहीं? एक पीड़ा को दूसरी पीड़ा से श्रेयस्कर कैसे कहा जा सकता है.
बीते दिनों नवजोत सिंह सिद्धू भी अपना क़ाफ़िला लेकर लखीमपुर निकल पड़े. यूपी-हरियाणा बॉर्डर पर उन्हें रोका गया क्योंकि धारा 144 लगायी गयी थी. उसके बाद उनके समर्थकों और पुलिसकर्मियों में झड़प हुई. उनके क़ाफ़िले ने पुलिस की बैरिकेडिंग तोड़ दी. क्या यह झड़प ज़रूरी थी? यह झड़प हिंसक हो जाती, किसी की जान चली जाती तो ज़िम्मेदारी कौन लेता?
फिर उसके लिए अलग से प्रदर्शन होता! सिद्धू को इतने दिन बाद लखीमपुर क्यों याद आया, राहुल के गुड बुक्स में रहने का उपाय नहीं तो फिर क्या है?लखीमपुर अभी फ़ोकस में है, अजय मिश्र व आशीष मिश्र के ख़िलाफ़ जो होना चाहिए था उसके अतिरिक्त सब हो रहा है. योगी सरकार को इनपर कार्रवाई करनी चाहिए, नहीं कर रही है.
दूसरे दल के मंत्रियों को विरोध करने के अलावा अपना राज्य भी संभालना चाहिए, वो भी नहीं कर रहे हैं. सबको इसमें इंदिरा गांधी का बेलछी मोमेंट दिख रहा है. ऐसे मौकों पर विपक्ष को मुखर होना भी चाहिए, लेकिन अपना घर छोड़कर? क्या राहुल अपने मंत्रियों से उनके राज्य का हाल पूछेंगे? कहेंगे कि आप यहां हैं तो आपके राज्य का काम बाधित होगा?
वो तमाम कार्यभार कोई देख ही रहा होगा लेकिन एक मुख्यमंत्री की वरीयता उसका स्वयं का राज्य क्यों नहीं होना चाहिए? मैं यह बात दोहरा रही हूं कि लखीमपुर में जो हुआ उसका बचाव ब्रह्माण्ड में व्याप्त किसी भी तर्क से नहीं किया जा सकता है. लेकिन उसी के साथ यह कहने की हिमाक़त कर रही हूं कि वहां पहुंचे सभी नेताओं को न जनकल्याण की सुध है और न ही वे किसानों के हिमायती हैं.
वहां क़ाफ़िला लेकर पहुंचना शक्ति-प्रदर्शन के अलावा कुछ नहीं है और किसानों को फ़िलहाल शक्ति की नहीं, सम्बल की आवश्यकता है. वहां आसन जमाना एकजुटता से कहीं अधिक शीर्ष की नज़रों में बने रहने की कवायद है.
ये भी पढ़ें -
लखीमपुर और आर्यन के बहाने उद्धव का बीजेपी पर हमला - 'बंद करो एसिड अटैक!'
सिंघू बॉर्डर पर हुई जघन्य हत्या ने अराजक किसान आंदोलन के खाते में एक सितारा और जड़ दिया!
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.