सांसद जामयांग शेरिंग नामग्याल के लोकसभा में दिये गये भाषण से पहले लद्दाख की भावना पर मेरी अवधारणा स्पष्ट नहीं थी. धारा 370 ने आधे राज्य को किस तरह उपेक्षित रखा, शोषित किया अथवा जानबूझ कर वहां के जन-समीकरण को बदला गया, इसका लम्बा चौडा खाका सदन में प्रस्तुत किया गया. नामग्याल दिल से बोल रहे थे. उनका सबसे महत्वपूर्ण वाक्यांश जो उन्होंने घाटी के सांसद को इंगित करते हुए कहा, उसे रेखांकित किया जाना चाहिये, वह था – “अब तक आप लोग ही बोलते रहे, अब हमारी बारी है”. लद्दाख ने अनेक बार स्वयं को जम्मू एवं कश्मीर से पृथक किये जाने और केंद्र शासित प्रदेश बनाये जाने की मांग रखी परंतु एक देश में दो निशान और दो संविधान के रहते यह सम्भव नहीं था. नामग्याल ने विंदुवार स्पष्ट किया कि कैसे घाटी के कुछ परिवारों ने लद्दाख और जम्मू की आकांक्षाओं का दमन किया था. कश्मीर का अलग संविधान न होता, वहां भी भारतीय संविधान पूर्णरूपेण लागू रहता, तब क्या इस तरह का शोषण सात दशकों तक बे-आवाज रह पाता?
आप कहेंगे कि बात कश्मीर की है तो फिर उग्रवादियों की होनी चाहिये, हाशिये पर धकेली जा चुके वामपंथी इस बीच बहस में कहां खड़े हैं? टेलीग्राफ की हैडलाईन “पार्टीशन” सहेज कर रखने योग्य है कि कैसे हमारे देश मे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कालिख पोत दी जाती है. कुछ बयानों ने मेरा ध्यानाकर्षण किया. समानता यह है कि इन सभी के बयानवीर वामपंथी हैं. यहां उद्धरित करना अनावश्यक अलेख का विस्तार करना होता मेरा सुझाव है कि स्वतंत्र विवेचना के लिये रामचंद्र गुहा, कविता कृष्णन, अरुण माहेश्वरी, रवीश कुमार आदि आदि स्वयं घोषित वामपंथियों के ट्वीट, फेसबुक पोस्ट अथवा ब्लॉग अवश्य पढें.
इसी कडी में “दि वायर बेव पोर्टल” के एक आलेख का उपसंहार है– “फौज के द्वारा यदि जम्मू-कश्मीर के विवाद का हल होना था तो आज तक हो चुका होता. हम सभी देशवासियों को आज जम्मू-कश्मीर के वाशिंदों का मजबूती से साथ देना...
सांसद जामयांग शेरिंग नामग्याल के लोकसभा में दिये गये भाषण से पहले लद्दाख की भावना पर मेरी अवधारणा स्पष्ट नहीं थी. धारा 370 ने आधे राज्य को किस तरह उपेक्षित रखा, शोषित किया अथवा जानबूझ कर वहां के जन-समीकरण को बदला गया, इसका लम्बा चौडा खाका सदन में प्रस्तुत किया गया. नामग्याल दिल से बोल रहे थे. उनका सबसे महत्वपूर्ण वाक्यांश जो उन्होंने घाटी के सांसद को इंगित करते हुए कहा, उसे रेखांकित किया जाना चाहिये, वह था – “अब तक आप लोग ही बोलते रहे, अब हमारी बारी है”. लद्दाख ने अनेक बार स्वयं को जम्मू एवं कश्मीर से पृथक किये जाने और केंद्र शासित प्रदेश बनाये जाने की मांग रखी परंतु एक देश में दो निशान और दो संविधान के रहते यह सम्भव नहीं था. नामग्याल ने विंदुवार स्पष्ट किया कि कैसे घाटी के कुछ परिवारों ने लद्दाख और जम्मू की आकांक्षाओं का दमन किया था. कश्मीर का अलग संविधान न होता, वहां भी भारतीय संविधान पूर्णरूपेण लागू रहता, तब क्या इस तरह का शोषण सात दशकों तक बे-आवाज रह पाता?
आप कहेंगे कि बात कश्मीर की है तो फिर उग्रवादियों की होनी चाहिये, हाशिये पर धकेली जा चुके वामपंथी इस बीच बहस में कहां खड़े हैं? टेलीग्राफ की हैडलाईन “पार्टीशन” सहेज कर रखने योग्य है कि कैसे हमारे देश मे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कालिख पोत दी जाती है. कुछ बयानों ने मेरा ध्यानाकर्षण किया. समानता यह है कि इन सभी के बयानवीर वामपंथी हैं. यहां उद्धरित करना अनावश्यक अलेख का विस्तार करना होता मेरा सुझाव है कि स्वतंत्र विवेचना के लिये रामचंद्र गुहा, कविता कृष्णन, अरुण माहेश्वरी, रवीश कुमार आदि आदि स्वयं घोषित वामपंथियों के ट्वीट, फेसबुक पोस्ट अथवा ब्लॉग अवश्य पढें.
इसी कडी में “दि वायर बेव पोर्टल” के एक आलेख का उपसंहार है– “फौज के द्वारा यदि जम्मू-कश्मीर के विवाद का हल होना था तो आज तक हो चुका होता. हम सभी देशवासियों को आज जम्मू-कश्मीर के वाशिंदों का मजबूती से साथ देना चाहिए तथा देश की सरकार से कहना चाहिए कि सरकार अपना वादा पूरा करे और जम्मू-कश्मीर के आवाम को आत्मनिर्णय का अधिकार दे तथा जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा बहाल करे”. इतना ही नहीं अरुंधति राय ने कुछ समय पहले कहा था कि “कश्मीर भारत का अभिन्नज अंग नहीं है”. इस वाक्यांश को तस्वीर सहित पाकिस्तान सरकार ने अपने प्रोपागेंडा सहित जारी किया है. ध्यान दीजिये कि देश के भीतर जिस भाषा में वामपंथी जहर उगल रहे हैं ठीक वही भाषा और उदाहरण अपने आतंकवाद पोषक एजेंडा के तहत पाकिस्तान ने दिये हैं.
ये केवल कुछ उदाहरण भर हैं. वामपंथियों ने जिस तरह लोकतंत्र बचाने के जुमले के साथ बुक्का फाडा है वह उनकी तर्कशीलता का नहीं मध्ययुग की सोच को बचाये रखने का परिणाम है. लद्दाख के सांसद जामयांग शेरिंग नामग्याल का पूरा भाषण जम्मू और कश्मीर की सच्चाई का असाधारण दस्तावेज है. कैसे राज्य का केवल 19% परिक्षेत्र 81% भूभाग पर अपनी तानाशाही चलाता रह सका? धारा 370 तो नब्बे के दशक में ही अप्रासंगिक हो गयी थी जब घाटी को मुस्लिम बाहुल्य बनाने के हिंसापूर्ण प्रयास में वहां की निवासी हिंदू जनसंख्या को मार डाला गया अथवा भगा दिया गया. भगाया भी कितने अपमान के साथ जब पोस्टर लगाये गये हिंदू पंडितों अपनी औरतों को छोड़ जाओ और बाकी दफा हो घाटी से. कैसे लद्दाख को मुस्लिम बाहुल्य बनाने के प्रयास किये गये जिसका खामियाजा वहां की भाषा, संस्कृति यहां तक कि पहनावे को भी उठाना पड़ा.
इस त्रासदी को भारतीय संविधान समाधान की दिशा नहीं दे सका, आखिर क्या विवशता थी? पाकिस्तानी किसी कश्मीरी लडकी से शादी कर ले तो वह कश्मीर का नागरिक और ऐसा कोई भारतीय कर ले तो लडकी के भी सब अधिकार समाप्त. क्या यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये ठीक प्रावधान था? क्या धारा 370 यह तय कर सकता था कि पाकिस्तान की आईएसआई इस लचर व्यवस्था का लाभ उठा कर भारतीय परिधि के भीतर लाशों की संख्या नहीं बढाती है? भारत के अन्य राज्यों से कश्मीर गये और पीढियों से वहीं रह रहे सफाई मजदूरों के अधिकारों पर ये वामपंथी मौन थे और रहेंगे. बटवारे के समय ही पाकिस्तान से आ कर कश्मीर में बसे शरणार्थियों को नागरिकता का नैसर्गिक अधिकार क्यों प्राप्त नहीं हुआ? इस सब के लिये घाटी के कुछ परिवारों और गिनती के नेताओं की वर्चस्ववादी सोच जिम्मेदार नहीं है? क्या यह सब करने के लिये धारा 370 का खुल कर इस्तेमाल नहीं किया गया?
वामपंथी अपने नैरेटिव के भीतर धारा 370 की बहस को ले जाना चाहते हैं. वे भ्रम का ऐसा माहौल इस देश में पैदा करना चाहते हैं जिससे कानूनी प्रक्रिया को दबाव में लाया जा सके. इस तरह के ‘विषय भटकाऊ’ बयान शहरी माओवादियों के लिये खाद-पानी भी बनते हैं. अब यह दबी-छुपी बात नहीं रही कि नक्सल-हिजबुल गठजोड बनने लगा है, इस मामले में वामपंथी एक्टिविस्ट गौतम नौलखा और उसके साथियों पर जांच जारी है. समझना होगा कि कश्मीर से आतंकवाद का विस्तार करने के लिये वह गलियारा जिसे चीन के रास्ते लाने में विफलता मिली उसे पाकिस्तान के रास्ते प्रवेश दिलाने की वाम-उग्रवादियों की कोशिशें निरंतर हो रही हैं. इतना सब लिखने के पीछे दि-वायर और बीबीसी की एजेंडा पत्रकारिता ने बाध्य किया है. बीबीसी के कैमरे को घाटी के कुछ पत्थरबाज मिल गये लद्दाख में खुशी से नाचते रहवासी नहीं मिले. महबूबा मुफ्ती की बेटी का ट्वीट विमर्श योग्य लगा लेकिन कश्मीरी पण्डितों द्वारा ली जा रही राहत की स्वांसों के लिये कहने को कुछ नहीं था? कुछ कथित प्रगतिशील पोस्टर माथे पर चिपका कर फिरने वाले पत्रकारों द्वारा अत्यधिक नाजुक समय में निरंतर प्रयास किया जा रहा है कि असंतोष को हवा दी जाये, प्रतीत होता है कि वे घाटी में हिंसा चाहते हैं. लद्दाख जश्न मना रहा है, जम्मू में भी कमोबेश मिठाईयां बट रही हैं रही घाटी की बात तो वहां भी परिस्थितियां धीरे-धीरे सामान्य होंगी. हमारा देसी वामपंथ यही सब नहीं चाहता चूंकि इससे उनकी रही सही राजनीति और संसथानों में उनके दखल-एकाधिकार पर खतरा हो सकता है. इसीलिये बुक्का फाड रही हैं लाल रुदालियां.
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