इंटरनेट सर्विस बंद कर दिया जाना अगर अलोकतांत्रिक है, फिर तो 4G चालू (4G Services in JK) किये जाने को लोकतंत्र की बहाली के रूप में भी देखा जाना चाहिये! है कि नहीं? 26 जनवरी की दिल्ली हिंसा के बाद किसानों के प्रदर्शन स्थलों के इर्द-गिर्द सरकारी आदेश पर इंटरनेट कई बार बंद किये जा चुके हैं. किसानों के चक्का जाम आंदोलन के पहले भी ऐसा ही किया गया - और सरकार के इस फरमान को लेकर सोशल मीडिया पर खूब रिएक्शन हुए.
इंटरनेट बंद किये जाने को लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी से वंचित करने जैसे आरोप लग रहे हैं. किसान नेताओं का आरोप है कि सरकार ऐसा इसलिए कर रही है ताकि लोगों में किसानों के प्रति गुस्सा बढ़े. बार बार इंटरनेट बंद होने पर दिल्ली की सीमाओं पर बसे उन इलाकों के लोगों की मुश्किलें बढ़ेंगी जहां किसान कृषि कानूनों को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली की सीमा से लगे कुछ इलाकों में इंटरनेट पर अस्थायी पाबंदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी अपील दायर की गयी है. याचिका में इंटरनेट निलबंन खत्म करने की मांग के साथ कहा गया है कि इंटरनेट बंद करना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. एक PIL में कहा गया है कि किसानों के आंदोलन वाली जगहों पर इंटरनेट सस्पेंड किया जाना सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है, जिसमें इंटरनेट को मौलिक अधिकार बताया गया है. दरअसल, जनवरी, 2020 में जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट पर पाबंदी को लेकर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इंटरनेट का इस्तेमाल मौलिक अधिकारों का हिस्सा बता चुका है. तब कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन से अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों जैसी जरूरी सेवाएं मुहैया कराने वाली सभी संस्थाओं में हफ्ते भर के अंदर समीक्षा कर इंटरनेट सेवाएं बहाल करने का आदेश दिया था.
बहरहाल, कम से कम जम्मू-कश्मीर में 4जी सेवाएं पहले की तरह चालू किये जाने को 'अंत भला तो सब भला' की तर्ज पर राहत महसूस तो की ही जा सकती है - और घाटी में सब...
इंटरनेट सर्विस बंद कर दिया जाना अगर अलोकतांत्रिक है, फिर तो 4G चालू (4G Services in JK) किये जाने को लोकतंत्र की बहाली के रूप में भी देखा जाना चाहिये! है कि नहीं? 26 जनवरी की दिल्ली हिंसा के बाद किसानों के प्रदर्शन स्थलों के इर्द-गिर्द सरकारी आदेश पर इंटरनेट कई बार बंद किये जा चुके हैं. किसानों के चक्का जाम आंदोलन के पहले भी ऐसा ही किया गया - और सरकार के इस फरमान को लेकर सोशल मीडिया पर खूब रिएक्शन हुए.
इंटरनेट बंद किये जाने को लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी से वंचित करने जैसे आरोप लग रहे हैं. किसान नेताओं का आरोप है कि सरकार ऐसा इसलिए कर रही है ताकि लोगों में किसानों के प्रति गुस्सा बढ़े. बार बार इंटरनेट बंद होने पर दिल्ली की सीमाओं पर बसे उन इलाकों के लोगों की मुश्किलें बढ़ेंगी जहां किसान कृषि कानूनों को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली की सीमा से लगे कुछ इलाकों में इंटरनेट पर अस्थायी पाबंदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी अपील दायर की गयी है. याचिका में इंटरनेट निलबंन खत्म करने की मांग के साथ कहा गया है कि इंटरनेट बंद करना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. एक PIL में कहा गया है कि किसानों के आंदोलन वाली जगहों पर इंटरनेट सस्पेंड किया जाना सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है, जिसमें इंटरनेट को मौलिक अधिकार बताया गया है. दरअसल, जनवरी, 2020 में जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट पर पाबंदी को लेकर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इंटरनेट का इस्तेमाल मौलिक अधिकारों का हिस्सा बता चुका है. तब कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन से अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों जैसी जरूरी सेवाएं मुहैया कराने वाली सभी संस्थाओं में हफ्ते भर के अंदर समीक्षा कर इंटरनेट सेवाएं बहाल करने का आदेश दिया था.
बहरहाल, कम से कम जम्मू-कश्मीर में 4जी सेवाएं पहले की तरह चालू किये जाने को 'अंत भला तो सब भला' की तर्ज पर राहत महसूस तो की ही जा सकती है - और घाटी में सब कुछ ठीक ठाक होने की उम्मीद भी. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म किये जाने से लेकर अब तक 18 महीने इंटरनेट सेवाएं ज्यादातर इलाकों में ठप रहीं.
जम्मू-कश्मीर में 4 जी सेवाओं की शुरुआत के साथ ही उम्मीद की जानी चाहिये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जो सोच कर मनोज सिन्हा (Manoj Sinha) को गाजीपुर से सीधे श्रीनगर भेजा था, अपने एसाइंमेंट को लेकर उनकी तत्परता का नतीजा देखने को तो मिला ही है. अब कम से कम ये तो कहा ही जा सकता है - उप राज्यपाल मनोज सिन्हा ने जैसे 6 महीने में '4G मुबारक' का मौका दिया है, डीडीसी चुनाव (Elections) की तरह ही विधानसभा चुनाव भी करा ही देंगे!
मुबारक मौका तो है ही!
मुमकिन है उमर अब्दुल्ला के ट्वीट के पीछे कटाक्ष ही हो, लेकिन नेशनल कांफ्रेंस नेता का '4G मुबारक' अंदाज तो ईद की बधाई देने वाला ही लगता है. तंज ही सही, बेमन से ही सही है तो ये खुशी का इजहार ही. अगर ऐसा न सही तो सुकून का एहसास तो साझा किया ही है - अपना न सही घाटी के बाकी लोगों के लिए तो ये बिलकुल ऐसा ही है.
पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती को छोड़ दें तो राजनीति छोड़ कर भारतीय प्रशासनिक सेवा में लौटे शाह फैसल के ट्वीट में भी ऐसा ही इजहार है - कौन असली है और कौन नकली, नेताओं के लिए निजी तौर बहुत फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर अवाम के लिए कुछ मायने रखता है तो वो महत्वपूर्ण तो है ही. बताते हैं कि छात्रों की ऑनलाइन पढ़ाई के मद्देनजर जम्मू कश्मीर प्रशासन की तरफ से ये कदम उठाया गया है.
संसद की मंजूरी के साथ धारा 370 हटाये जाने के बाद 5 अगस्त, 2019 से जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई थी. हालांकि, 25 जनवरी, 2020 को केंद्र शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में 2जी सेवा बहाल कर दी गई. जम्मू कश्मीर के कम संवेदनशील इलाकों में एहतियाती उपायों के बीच आजमाने के हिसाब से 4जी सेवा बहाल जरूर की गई थी, लेकिन 6 मई, 2020 को पुलवामा एनकाउंटर में हिजबुल के कमांडर रियाज नाइकू के मारे जाने के बाद हफ्ते भर के लिए 2G सेवा भी बंद कर दी गई थी.
कोरोना वायरस के प्रकोप के बाद जब देश में संपूर्ण लॉकडाउन लागू हुआ तब भी उमर अब्दुल्ला ने लोगों से कुछ ऐसे ही अंदाज में कहा था कि उनके पास लॉकडाउन जैसे हालात में रहने का प्रैक्टिकल और ताजा अनुभव है और वो टिप दे सकते हैं. अपने ट्वीट के अंत में उमर अब्दुल्ला ने लिखा है - 'बेटर लेट दैन नेवर'. वैसे तो सड़कों पर इसका हिंदी अनुवाद 'दुर्घटना से देर भली' लिखा रहता है, लेकिन यहां उमर अब्दुल्ला के भाव को 'देर आये दुरूस्त आये' ही समझा जाना ठीक रहेगा.
अब विधानसभा चुनावों का इंतजार है
हाल ही में शिवसेना सांसद प्रीति चतुर्वेदी के सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने संसद को बताया था कि जम्मू-कश्मीर में अब भी 183 लोग हिरासत में हैं. फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और अक्टूबर, 2020 में महबूबा मुफ्ती सहित काफी लोगों को पहले ही रिहा किया जा चुका है.
ठीक छह महीने पहले, 7 अगस्त, 2020 को मनोज सिन्हा ने जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल के तौर पर कार्यभार ग्रहण किया था. मनोज सिन्हा जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म किये जाने के बाद से दूसरे उप राज्यपाल हैं. मनोज सिन्हा से पहले जीसी मुर्मु को केंद्र शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर का पहला उप राज्यपाल बनाया गया था.
जीसी मुर्मू का कार्यकाल भी अच्छा माना गया, लेकिन केंद्र सरकार की मंशा के मुताबिक कहीं न कहीं वो जम्मू-कश्मीर के लोगों को सियासी संदेश देने में चूक रहे थे. समझा जा रहा था कि नौकरशाह होने के चलते वो राजनीतिक नेतृत्व की तरह व्यावहारिक माहौल ने बना पा रहे हों क्योंक सूबे की ब्यूरोक्रेसी में भी उनके कामकाज के तौर तरीकों को लेकर असहज महसूस किया जाने लगा था.
मनोज सिन्हा को उत्तर प्रदेश की राजनीति से उठाकर जम्मू कश्मीर के नये राजनीतिक समीकरण में फिट करने की कोशिश भी एक प्रयोग ही रहा, लेकिन अपने छह महीने के कामकाज में मनोज सिन्हा ने घाटी के लोगों को इंटरनेट सेवा चालू करा कर एक संदेश देने की कोशिश तो किये ही हैं.
अभी हार्वर्ड अमेरिकी इंडिया इनिशिएटिव के सालाना सम्मेलन में मनोज सिन्हा ने जो कुछ कहा उसमें वही संदेश रहा जो मोदी-शाह को उनसे अपेक्षा रही होगी - घाटी के लोगों के साथ साथ पाकिस्तान और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को स्पष्ट संदेश देने की कोशिश रही.
सम्मेलन में ऑनलाइन हिस्सा लेते हुए मनोज सिन्हा ने कहा कि अब जम्मू कश्मीर में आतंकवाद की जगह विकास ने ले ली है, जिसे पड़ोसी देश की तरफ से लगातार निर्यात किया जा रहा था. मनोज सिन्हा बोले, 'मेरा लक्ष्य अगले पांच साल के भीतर जम्मू-कश्मीर की युवा आबादी के लगभग 80 फीसदी लोगों तक पहुंचना - और ये संभव बनाना है कि केंद्र शासित प्रदेश के समग्र सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए वे विकास का इंजन बन सकें.'
मनोज सिन्हा का कहना रहा, 'मैं जम्मू-कश्मीर के हर बच्चे को एक परिपक्व, सफल और अच्छे इंसान के रूप में देखना चाहूंगा... युवाओं की क्षमता का इस तरह से इस्तेमाल किया जाये कि हर कोई केंद्र शासित प्रदेश की समृद्धि की दिशा में योगदान दे - हम साथ मिलकर लक्ष्य को प्राप्त करेंगे जैसा हम सोच रहे हैं.' बाकी सब तो ठीक है, मनोज सिन्हा के लिए अभी सबसे बड़ा चैलेंज जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराना है - डीडीसी चुनाव के बाद विधानसभा चुनावों की तरफ 4G स्पीड से बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है क्या?
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