किसी कद्दावर नेता को हाशिये पर भेजना, सिर्फ मोदी और शाह का 'निर्मम चरित्र' है. ऐसा बिल्कुल नहीं. यह असुरक्षा और असहजता का स्वभाव मानव मात्र में व्याप्त है. हर कोई अपने आसपास का माहौल अपने अनुसार संयोजित करना चाहता है. अपने परिवार, पड़ोस, कार्यालय आदि में व्यक्ति जिसे अपने अस्तित्व और प्रभुत्व के लिए चुनौती के रूप में देखता है. उसे कमजोर करने के जुगत में लग जाता है. और कार्य संभवतः मोदी और शाह के द्वारा किया जा रहा है. दलों की आंतरिक राजनीति में इस तरह के उदाहरण हमें हमेशा से देखने को मिलते रहे हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल को साइड किया जाना हो या आजादी के बाद इंदिरा गांधी के द्वारा के कामराज, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम या बाद में सीताराम केसरी के साथ कांग्रेस में जो हुआ वो इसी प्रकार के उदाहरण हैं. अगर बात भाजपा और जनसंघ की करें तो यहां भी कई उदाहरण 2014 से पहले ही मिल जाते हैं.
1967 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पूर्ववर्ती दल जनसंघ का नेतृत्व दिग्गज नेता बलराज मधोक कर रहे थे. जिनका जनसंघ के स्थापना में भी महत्वपूर्ण योगदान था. उस चुनाव में जनसंघ ने अब तक का सबसे शानदार प्रदर्शन किया. पहली बार जनसंघ ने पूरे देश में चुनाव लड़ा और लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपना नाम दर्ज करवाया.
आश्चर्य की बात ये भी है कि 2014 और 2019 चुनाव जिसमें भाजपा दिल्ली की सभी सातों सीटें जीतने में कामयाब रही. उससे 47 वर्ष पहले, 1967 में जनसंघ ने दिल्ली के सात में से छः सीटों को जीत लिया था. परंतु इस शानदार प्रदर्शन के बाद भी बलराज मधोक को पार्टी में दरकिनार कर दिया गया. उसी दौरान पंडित दीनदयाल उपाध्याय की...
किसी कद्दावर नेता को हाशिये पर भेजना, सिर्फ मोदी और शाह का 'निर्मम चरित्र' है. ऐसा बिल्कुल नहीं. यह असुरक्षा और असहजता का स्वभाव मानव मात्र में व्याप्त है. हर कोई अपने आसपास का माहौल अपने अनुसार संयोजित करना चाहता है. अपने परिवार, पड़ोस, कार्यालय आदि में व्यक्ति जिसे अपने अस्तित्व और प्रभुत्व के लिए चुनौती के रूप में देखता है. उसे कमजोर करने के जुगत में लग जाता है. और कार्य संभवतः मोदी और शाह के द्वारा किया जा रहा है. दलों की आंतरिक राजनीति में इस तरह के उदाहरण हमें हमेशा से देखने को मिलते रहे हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल को साइड किया जाना हो या आजादी के बाद इंदिरा गांधी के द्वारा के कामराज, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम या बाद में सीताराम केसरी के साथ कांग्रेस में जो हुआ वो इसी प्रकार के उदाहरण हैं. अगर बात भाजपा और जनसंघ की करें तो यहां भी कई उदाहरण 2014 से पहले ही मिल जाते हैं.
1967 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पूर्ववर्ती दल जनसंघ का नेतृत्व दिग्गज नेता बलराज मधोक कर रहे थे. जिनका जनसंघ के स्थापना में भी महत्वपूर्ण योगदान था. उस चुनाव में जनसंघ ने अब तक का सबसे शानदार प्रदर्शन किया. पहली बार जनसंघ ने पूरे देश में चुनाव लड़ा और लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपना नाम दर्ज करवाया.
आश्चर्य की बात ये भी है कि 2014 और 2019 चुनाव जिसमें भाजपा दिल्ली की सभी सातों सीटें जीतने में कामयाब रही. उससे 47 वर्ष पहले, 1967 में जनसंघ ने दिल्ली के सात में से छः सीटों को जीत लिया था. परंतु इस शानदार प्रदर्शन के बाद भी बलराज मधोक को पार्टी में दरकिनार कर दिया गया. उसी दौरान पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या हुई. जिनके बाद मधोक पार्टी के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक व्यक्तित्व थे लेकिन मधोक को किनारे करते हुए अटल बिहारी बाजपेयी को जनसंघ का अध्यक्ष बना दिया गया.
बलराज मधोक से न सिर्फ अध्यक्षता छीनी गयी. बल्कि दो- तीन साल के बाद उन्हें पार्टी से भी निकाल दिया गया. और उनको निकलने वाले थे वही लालकृष्ण आडवाणी जिनके लिए आज बहुत से लोग दुखी हैं. कमोवेश इसी तरह के आंतरिक बहिष्कार के शिकार उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी हुए थे. जिस तरह से आज मोदी को आडवाणी के कृतघ्न शिष्य के रूप में लोग कोसते हैं कि मोदी ने अपने संरक्षक और गुरु आडवाणी को ही दरकिनार कर के बियाबान में भेज दिया.
इस अनुसार ये भी जानना जरूरी है कि आडवाणी जी को जनसंघ में लाने वाले बलराज मधोक ही थे. परंतु उन्हीं आडवाणी के हाथों मधोक को निष्कासन झेलना पड़ा. 2009 लोकसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा के अध्यक्ष बने नितिन गडकरी के बारे में भी कहा जाता है कि. उन्होंने राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के पर कतरने का भरपूर प्रयास किया था.
गडकरी के द्वारा तब गुजरात में मोदी के धुर विरोधी रहे संजय जोशी को केंद्रीय नेतृत्व में वापसी करायी गयी थी. अपने सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में व्यक्ति इस तरह के व्यवहार में हमेशा ही संलग्न रहता है. यह उसके अपने बेहतर अस्तित्व के लिए संघर्ष का एक हिस्सा मात्र है.
हमें तो किसी संगठन के शीर्ष नेतृत्व में क्या गतिविधियां चल रही होती है उसकी रत्ती भर भी जानकारी नहीं होती. या जिस व्यक्ति के साथ कथित तौर पर अन्याय होने की बात हम तक पहुंचती है. उसके व्यक्तित्व के बारीकियों के बारे में भी हमें पता नहीं होता. फिर एक आम जनता या समर्थक होने के कारण हमें इसपर दुखी होने की क्या आवश्यकता है?
आज जो लोग आडवाणी और गडकरी के चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं वास्तव ये उनकी सहानुभूति नहीं बल्कि मोदी और शाह से वैचारिक और व्यक्तिगत वैमनस्यता का प्रतिफल है जिसमें वो हर उस छोटे से छोटे तथ्य का इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं जिस से वर्तमान में देश के इन सर्वाधिक प्रभुत्वशाली व्यक्ति की छवि बदरंग हो सके.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.