Loksabha Election 2019 में मतदान का दौर लगभग खत्म हो गया है. अब इंतजार है Exit poll और फिर 23 दिसंबर को आने वाले नतीजों का. लेकिन, इन सबके बीच एक हकीकत और है. ये सुनने में भले ही अजीब लगे, मगर सत्य यही है कि 2019 के इस आम चुनाव को नोटा ( NOTA ) के कारण भी याद किया जाएगा. ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस भाजपा के विपरीत नोटा एक बड़े वोट कटवा की भूमिका में रहेगा. ध्यान रहे कि चुनाव में नोटा यानी none of the above को एक ऐसा उम्मीदवार माना जा सकता है जो चुनाव के लिए मैदान में नहीं आता. न ही वो वोट मांगने के लिए प्रचार प्रसार करता है. न ही वो अपना नामांकन दाखिल करता है. मगर हर बार चुनाव में उसे बड़ी संख्या में वोट मिलते हैं. जो उन लोगों के लिए परेशानी का सबब बनते हैं, जो अपने अपने दलों का झंडा पकड़े एक दूसरे के मुकाबले होते हैं.
इस देश की राजनीति के लिहाज से 2014 को अहम माना जाता है तो यहां भी हम अपनी बात की शुरुआत 2014 से ही करते हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में, नोटा ने कुल वोटों का 1.1 प्रतिशत मतदान हासिल किया, और 24 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में जीत के अंतर को पार किया जिससे कई दलों को फायदा मिला.
भारतीय चुनावों को नोटा ने कैसे प्रभावित किया इसके लिए हम बिहार विधानसभा चुनाव को बतौर उदाहरण ले सकते हैं. बिहार में नोटा ने रिकॉर्ड 2.5 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था. 2016 में 5 राज्यों में चुनाव हुआ और वहां भी नोटा ने अपना जलवा बरक़रार रखा. साथ ही ये कई मायनों में प्रत्याशियों के लिए निर्णायक साबित हुआ और उनकी जीत या हार का मानक बना.
बात यदि हाल की हो तो हम तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का अवलोकन कर सकते हैं. चुनाव बाद...
Loksabha Election 2019 में मतदान का दौर लगभग खत्म हो गया है. अब इंतजार है Exit poll और फिर 23 दिसंबर को आने वाले नतीजों का. लेकिन, इन सबके बीच एक हकीकत और है. ये सुनने में भले ही अजीब लगे, मगर सत्य यही है कि 2019 के इस आम चुनाव को नोटा ( NOTA ) के कारण भी याद किया जाएगा. ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस भाजपा के विपरीत नोटा एक बड़े वोट कटवा की भूमिका में रहेगा. ध्यान रहे कि चुनाव में नोटा यानी none of the above को एक ऐसा उम्मीदवार माना जा सकता है जो चुनाव के लिए मैदान में नहीं आता. न ही वो वोट मांगने के लिए प्रचार प्रसार करता है. न ही वो अपना नामांकन दाखिल करता है. मगर हर बार चुनाव में उसे बड़ी संख्या में वोट मिलते हैं. जो उन लोगों के लिए परेशानी का सबब बनते हैं, जो अपने अपने दलों का झंडा पकड़े एक दूसरे के मुकाबले होते हैं.
इस देश की राजनीति के लिहाज से 2014 को अहम माना जाता है तो यहां भी हम अपनी बात की शुरुआत 2014 से ही करते हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में, नोटा ने कुल वोटों का 1.1 प्रतिशत मतदान हासिल किया, और 24 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में जीत के अंतर को पार किया जिससे कई दलों को फायदा मिला.
भारतीय चुनावों को नोटा ने कैसे प्रभावित किया इसके लिए हम बिहार विधानसभा चुनाव को बतौर उदाहरण ले सकते हैं. बिहार में नोटा ने रिकॉर्ड 2.5 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था. 2016 में 5 राज्यों में चुनाव हुआ और वहां भी नोटा ने अपना जलवा बरक़रार रखा. साथ ही ये कई मायनों में प्रत्याशियों के लिए निर्णायक साबित हुआ और उनकी जीत या हार का मानक बना.
बात यदि हाल की हो तो हम तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का अवलोकन कर सकते हैं. चुनाव बाद इन राज्यों में कांग्रेस ने सरकार बनाई. कांग्रेस की सरकार इन राज्यों में कैसे आई ये बात किसी से छुपी नहीं है. प्रत्याशियों से जनता नाराज थी, उसने वोट नहीं दिया और इसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिला.
बात आगे बढ़ाने से पहले बता दें कि 2018 में हुए इन चुनावों की सबसे खास बात ये थी कि इसमें केवल नोटा को 15 लाख वोट हासिल हुए जो समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी को मिले वोटों से कहीं ज्यादा था. आज हमारे सामने एक बड़ा वर्ग है, जो ये मान रहा है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी दल की तरह नोटा भी बेहद जरूरी है. मगर सवाल उठता है कि क्या वाकई नोटा जरूरी है? जवाब है नहीं.
जिस तरह नोटा चुनावों को प्रभावित कर रहा है हमारे लिए ये कहने में बिल्कुल भी गुरेज नहीं है कि ये चुनाव के दौरान इस्तेमाल किया जाने वाला एक ऐसा टूल है जिससे इस देश की जनता अपने को धोखे में रखने का इंतजाम खुद कर रही है. हो सकता है ये सुनने में अजीब लगे मगर सत्य यही है. बात शीशे की तरह साफ है नोटा नेताओं से पहले खुद जनता की हार है.
सवाल होगा कि कैसे? तो इसका जवाब हम चुनिन्दा उदाहरणों से देना चाहेंगे उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से भाजपा ने भोजपुरी सुपर स्टार निरहुआ को टिकट दिया है. इसी तरह हेमा मालिनी को मथुरा से भाजपा का उम्मीदवार बनाया गया है. वहीं बनारस में पिछली बार नंबर 3 पर रहे अजय राय पर कांग्रेस ने अपना बड़ा दाव खेला है. अब मान लीजिये कि जनता इन लोगों को पसंद नहीं कर रही है तो परिणाम स्वरुप वो चुनाव के दिन नोटा ही दबाएगी और खामोश हो जाएगी.
जबकि होना ये चाहिए था कि उसे सारी पार्टियों से इस बात को साफ कह देना चाहिए था कि उम्मेदवार कहीं बाहरी नहीं बल्कि उनके अपने बीच का आदमी होगा. जिससे वो मिल सकें अपनी परेशानियां साझा कर सकें. कहना गलत नहीं है कि मौके पर जनता कुछ नहीं बोलती फिर जब चुनाव आता है तो वो नोटा का इस्तेमाल करती है और सोचती है कि उसने बहुत ऐतिहासिक काम किया.
अपने नेता के प्रति जिस तरह का हम लोगों का अब तक का रवैया रहा है. वो यही है कि हम अपने नेता से सवाल पूछने में हिचकते हैं और नोटा जैसी गलती करके अपने मताधिकार का गलत इस्तेमाल करते हैं. भले ही एक वर्ग नोटा को लोकतंत्र के लिहाज से जरूरी बताए. मगर जो इसके पीछे की सच्चाई है वो ये है कि ये साफ तौर पर लोकतंत्र के खिलाफ है. इसमें कहीं न कहीं देश की राजनीति को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है जहां पर अंधकार के सिवा और कुछ नहीं है.
बात चूंकि नोटा पर शुरू होकर इसी पर खत्म होने वाली है तो हमारे लिए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति की उस बात को भी समझना होगा जिसमें उन्होंने उन निर्वाचन क्षेत्रों में फिर से चुनाव कराने की वकालत की है जहां जीत का अंतर नोटा मत संख्या की तुलना में कम रही और विजयी उम्मीदवार एक तिहाई मत जुटाने में भी नाकाम रहे. इसके अलावा तब कृष्णमूर्ति ने इस बात को भी स्वीकार किया था कि भारत में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट निर्वाचन प्रणाली अब अपनी उपयोगिता ख़त्म कर चुकी है.
अंत में बस इतना ही कि इस देश की राजनीति के लिए जनता का एक एक मत जरूरी है. ऐसे में यदि वो नोटा को हथियार बनाती है तो वो और कुछ नहीं बस अपने साथ छल कर रही है और जिसका परिणाम आने वाले वक़्त में बहुत ज्यादा खतरनाक होगा.
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